पति की हत्या! पत्नी का बदला! ससुराल में सनसनी! असल मसला क्या है

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दिल्ली । आजकल ये बहुत हो रहा है! जब कोई महिला किसी अपराध में लिप्त पाई जाती है, मीडिया हेडलाइनों में जैसे भूचाल आ जाता है। टीवी स्क्रीन पर चिल्लाते एंकर, सोशल मीडिया पर उबलती भावनाएं और फिर वो परिचित सा नैरेटिव—”औरतें अब डराने लगी हैं!” मेघालय की घटना ने तो झकझोर ही दिया है।

क्या वाकई ऐसा हो रहा है? क्या नई पीढ़ी की महिला वास्तव में भूतनी, वैंपायर बन रही हैं? या ये सिर्फ एक और चाल है उस आवाज़ को दबाने की, जो सदियों के अन्याय के खिलाफ अब उठने लगी है?

पुरुष प्रधान मीडिया, भारत में औरतों की आज़ादी, बराबरी और इंसाफ की जो लड़ाई है, उसे हाल के कुछ सनसनीखेज मामलों से जोड़कर बदनाम करने की कोशिश क्यों कर रहा है? खासकर कुछ घटनाएं, जहां महिलाओं ने पतियों के साथ क्रूरता की या हत्या जैसा कोई चरम कदम उठाया, उन्हें इस तरह पेश किया गया जैसे यह कोई आम चलन बनता जा रहा हो। जबकि हकीकत इससे कोसों दूर है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (2023) के आंकड़े खुद गवाही देते हैं—महिलाओं द्वारा किए गए अपराध कुल अपराधों का सिर्फ 5% से भी कम हैं। और इनमें से हत्या जैसे मामलों की संख्या और भी कम है।

दूसरी तरफ, हर साल 4.5 लाख से ज़्यादा महिलाओं पर हिंसा के मामले दर्ज होते हैं। दहेज के लिए हर साल 6,700 औरतें मारी जाती हैं। बलात्कार, घरेलू हिंसा, एसिड अटैक और यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों का आंकड़ा हर साल और डरावना होता जा रहा है।

2024 के बेंगलुरु की घटना को लें, जहां एक महिला ने कथित तौर पर पति की हत्या की। मीडिया ने इसे कुछ यूं परोसा जैसे ‘पत्नी’ अब ‘हत्यारी’ बनने लगी है। सोशल मीडिया पर बहसें छिड़ गईं—”अब मर्दों को भी डरना चाहिए!”

लेकिन कोई ये नहीं पूछता कि इस महिला ने ये कदम क्यों उठाया? क्या वह लगातार प्रताड़ना से जूझ रही थी? क्या उसके पास कोई विकल्प था?

उत्तर प्रदेश के एक मामले में 2025 में एक महिला ने अपने पति की हत्या की साजिश में हिस्सा लिया। जांच में सामने आया कि वह सालों से दहेज और घरेलू हिंसा की शिकार थी। क्या यह हत्या उसका पहला अपराध था, या एक लंबे सिलसिले की अंतिम चीख?

मैसूर की पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट, मुक्ता गुप्ता कहती हैं, “ये घटनाएं बगावत नहीं हैं, ये वे चीखें हैं जो समाज ने वर्षों तक अनसुनी कीं। ये नारी के प्रतिरोध की आखिरी सीमा हैं, जिन्हें हमें समझने की ज़रूरत है, न कि sensational headlines में कैद करने की। औरतों की तरक्की से इतना डर क्यों? पढ़ी-लिखी महिलाएं अब अपने लिए सोच रही हैं, सवाल पूछ रही हैं, फैसले ले रही हैं। 2020 में महिलाओं की साक्षरता दर 70.3% थी, और शहरी भारत में 32% महिलाएं कामकाजी थीं। ये बदलाव परिवार की पुरानी संरचना और सामाजिक ताने-बाने को चुनौती दे रहे हैं।”

सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, “यही तो बदलाव है, जिससे कुछ लोग घबराए हुए हैं। वे हर ऐसी घटना को औरतों के ‘बिगड़ने’ का सबूत बताकर असल मुद्दों से ध्यान हटाते हैं—दहेज, बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, और लैंगिक भेदभाव। 2011 की जनगणना के अनुसार, 1.09 करोड़ बाल विवाह, जिनमें ज़्यादातर लड़कियां थीं। एक अध्ययन के अनुसार, 2000 से 2019 तक 68 लाख कन्याओं का गर्भपात। मुस्लिम और दलित महिलाएं अब भी शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरियों से वंचित हैं।”

इन हकीकतों को भुलाकर अगर कोई महिला अपराध करे तो उसे एक सामाजिक विद्रोह बना देना कहां तक जायज़ है? हमें यह तय करना होगा कि क्या हम महिलाओं की आवाज़ को दबाना चाहते हैं, या उनकी तकलीफों को सुनना और समझना। अगर कोई महिला हिंसा का रास्ता अपनाती है, तो हमें उसके पीछे छिपे दर्द और अन्याय को भी देखना होगा।

समाज बदल रहा है, और यह बदलाव जरूरी भी है। महिलाएं सिर्फ अपने लिए नहीं, पूरे समाज के लिए बदलाव ला रही हैं—शिक्षा में, कामकाज में, अपने हकों की लड़ाई में।

दिल्ली यूनिवर्सिटी की शिक्षाविद डॉ मांडवी कहती हैं, “औरतों की आज़ादी के खिलाफ जो यह नफरत की मुहिम चल रही है, वह दरअसल डर की उपज है—एक बराबरी वाले समाज के आने का डर। हर महिला अपराध को एक पूरी जेंडर के खिलाफ प्रमाण मान लेना न केवल गलत है, बल्कि खतरनाक भी।”

कोयंबटूर की भारती गोपाल कृष्णन कहती हैं, “हमें औरतों को खलनायिका बनाना बंद करना होगा। समझदारी से, सहानुभूति से, और तथ्यों के आधार पर सोचना होगा—तभी एक न्यायपूर्ण समाज बन पाएगा। औरतों की आवाज़, उनकी आज़ादी—इन पर शक नहीं, समर्थन होना चाहिए।”

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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