दिल्ली। पत्रकारिता का क्षेत्र बाहर से जितना चमकदार और आकर्षक दिखता है, भीतर से उतना ही जटिल और चुनौतीपूर्ण है। पत्रकार अंकित वर्मा, जिन्होंने न्यूज़ चैनलों में 13 साल तक काम किया, अपने सोशल मीडिया पोस्ट के माध्यम से इस दुनिया की हकीकत सामने लाते हैं। उनकी टिप्पणियों को संकलित और संपादित कर यह लेख तैयार किया गया है, जो पत्रकारिता के ग्लैमर के पीछे छिपे सच को उजागर करता है। यह लेख खास तौर पर उन युवाओं के लिए है, जो इस क्षेत्र में कदम रखने की सोच रहे हैं। आइए, अंकित के अनुभवों के आधार पर न्यूज़ चैनलों की दुनिया का एक आलोचनात्मक विश्लेषण देखें।
न्यूज़ चैनलों का चमकता चेहरा और छिपा सच
जब भी किसी बड़े एंकर या न्यूज़ चैनल की “ज्ञानवर्धक” रील सोशल मीडिया पर वायरल होती है, तो अंकित को हंसी आती है। वे कहते हैं कि जनता इन चेहरों को बिना उनकी असलियत जाने पूजती है। अगर कोई चैनल इन एंकर्स के असली व्यवहार, उनकी भाषा, और जूनियर्स के साथ उनके रवैये को उजागर करे, तो सच्चाई का एक अलग ही रंग दिखेगा। अंकित एक काल्पनिक शो “मैं मीडिया से हूँ” का ज़िक्र करते हैं, जो न्यूज़ चैनलों के भीतर की सच्चाई को बयां कर सकता है। उनका कहना है कि वे किसी के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि नए लोगों को इस दुनिया की हकीकत से रूबरू कराना चाहते हैं।
सैलरी का सच: चमक के पीछे का अंधेरा
न्यूज़ चैनलों में सैलरी का ढांचा बेहद असमान है। अंकित बताते हैं कि देश में 20-25 बड़े एंकर और 5-10 चैनल हेड्स या उनके करीबी सहयोगियों की सैलरी 2 लाख से 10 लाख रुपये महीने तक हो सकती है। कुछ बड़े नाम तो 10 लाख से भी ऊपर कमाते हैं और उन्हें कंपनी में छोटे-मोटे शेयर भी दिए जाते हैं। लेकिन यह चमक सिर्फ ऊपरी तबके तक सीमित है।
रिपोर्टर, प्रोड्यूसर, एडिटर और ग्राफिक्स डिज़ाइनर जैसे 90% मीडिया कर्मियों की सैलरी 1 लाख रुपये तक पहुंचना भी मुश्किल होता है। अंकित खुद बताते हैं कि 13 साल के करियर में उनकी आखिरी सैलरी डिजिटल चैनल में हेड के तौर पर 1.25 लाख रुपये थी, जो उनकी काबिलियत से कम थी। जब मालिक ने खर्चे का हवाला देकर सैलरी आधी करने को कहा, तो उन्होंने अलविदा कह दिया।
आजकल न्यूज़ चैनलों में कम बजट का चलन बढ़ गया है। पहले जहां 50 हजार रुपये की सैलरी वाला कर्मचारी चाहिए था, अब चैनल 15-15 हजार के दो लोगों से काम चला लेते हैं। 2008 में पेड इंटर्न की सैलरी 6,000 रुपये थी, जो अब बढ़कर 10,000 रुपये हो गई है। यह वेतन वृद्धि की गति पत्रकारिता की कठिन आर्थिक हकीकत को दर्शाती है। अगर आपकी सैलरी 50-60 हजार से ऊपर हो जाती है, तो आप बॉस की नजरों में खटकने लगते हैं और छंटनी की लिस्ट में आपका नाम सबसे पहले आता है, बशर्ते आप बॉस के खास न हों।
इंक्रीमेंट का चक्रव्यूह
न्यूज़ चैनलों में इंक्रीमेंट एक सपने जैसा है। अंकित बताते हैं कि केवल 5% चैनल ही हर साल सैलरी बढ़ाते हैं, वह भी 2-10% की दर से। इंक्रीमेंट की प्रक्रिया को वे “चक्रव्यूह” कहते हैं, जिसके कई चरण हैं:
छंटनी की अफवाह: हर साल अप्रैल से पहले छंटनी की अफवाहें फैल जाती हैं, जिससे कर्मचारी इंक्रीमेंट की उम्मीद छोड़ नौकरी बचाने की चिंता में डूब जाते हैं।
सीमित विकल्प: देश में न्यूज़ चैनलों की संख्या सीमित (लगभग 10) होने के कारण कर्मचारियों के पास ज्यादा विकल्प नहीं होते।
लॉलीपॉप इंक्रीमेंट: जब इंक्रीमेंट का समय आता है, तो 100 रुपये से 5,000 रुपये तक का मामूली इंक्रीमेंट दिया जाता है, जिसे कर्मचारी नौकरी बचने की खुशी में स्वीकार कर लेते हैं।
बॉस का दबदबा: बॉस खुद को भगवान की तरह पेश करते हैं, यह जताते हुए कि उनकी मेहरबानी से नौकरी बची है। कुछ कर्मचारियों को “अंतिम मौका” देकर डराया जाता है।
इस चक्रव्यूह में फंसकर कर्मचारी न तो सैलरी के लिए आवाज उठा पाते हैं और न ही बॉस से शिकायत कर पाते हैं।
न्यूज़ चैनल का आंतरिक माहौल
अंकित न्यूज़ चैनलों के कुछ खास किरदारों का जिक्र करते हैं, जो इस माहौल को और जटिल बनाते हैं:
बॉस के जासूस: ये वे लोग हैं जो काम कम और जासूसी ज्यादा करते हैं। इन्हें सबसे ज्यादा इंक्रीमेंट मिलता है।
माहौल बनाने वाले: न्यूज़ रूम में “पैकेज फंस जाएगा” चिल्लाने वाले, जो दबाव बनाते हैं, लेकिन असल में कुछ होता नहीं।
काम करवाने वाले: वे लोग जो कर्मचारियों से 9 की जगह 15 घंटे काम करवाते हैं।
रोकने वाले सीनियर्स: कुछ सीनियर्स अपने जूनियर्स को आगे बढ़ने से रोकते हैं, क्योंकि उन्हें खुद ऊपर पहुंचने में सालों लगे।
शिफ्ट का खेल: छोटी गलती पर जासूसों की सलाह पर कर्मचारियों की शिफ्ट सुबह जल्दी या देर रात की कर दी जाती है।
अनुचित व्यवहार: कुछ अधेड़ उम्र के प्रोड्यूसर या एंकर, जो युवा इंटर्न्स के साथ अनुचित व्यवहार करते हैं।
निष्कर्ष: पत्रकारिता में कदम रखने से पहले
अंकित का कहना है कि वे न्यूज़ चैनलों या किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं हैं। उनका मकसद केवल नए लोगों को इस क्षेत्र की हकीकत से वाकिफ कराना है। वे अपने 13 साल के अनुभव के लिए मीडिया और कुछ सीनियर्स के प्रति आभार व्यक्त करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि पत्रकारिता का रास्ता आसान नहीं है। बड़े एंकर और चैनल हेड्स की चमक के पीछे, जूनियर्स की मेहनत और उनकी अनदेखी होती है। सैलरी, इंक्रीमेंट, और कार्यस्थल का माहौल इस बात का सबूत है कि यह क्षेत्र जितना बाहर से आकर्षक दिखता है, भीतर से उतना ही कठिन है।
अगर आप पत्रकारिता में कदम रखने की सोच रहे हैं, तो अंकित की सलाह है—हकीकत को समझें, मेहनत के लिए तैयार रहें, और इस चमकदार दुनिया के पीछे के सच को स्वीकार करें।
नोट: अंकित वर्मा के मूल विचार उनके सोशल मीडिया पेज पर उपलब्ध हैं। यह लेख उनकी पोस्ट को संपादित और संकलित कर प्रस्तुत करता है।