बृज खंडेलवाल
मथुरा । ब्रजभूमि — श्रीकृष्ण की वह पावन धरती जो मथुरा के आस-पास लगभग 150 किलोमीटर तक फैली है — केवल भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि एक गहरी रूहानी और पौराणिक विरासत है। यह वही इलाका है जहाँ वृंदावन, गोवर्धन और गोकुल की गलियाँ आज भी “राधे-राधे” और “जय श्रीकृष्ण” की पुकार से गूंजती हैं। लेकिन अफसोस! आज यही धरती एक अस्तित्व संकट से जूझ रही है — बेहिसाब विकास परियोजनाओं, अवैध निर्माणों और पर्यावरणीय विनाश की वजह से। भीड़ तो हजार गुणा बढ़ी है पर भक्ति भावना की जगह व्यावसायिक लाभ के लिए टूरिज्म हावी हो रहा है।
धर्म और आस्था के नाम पर चल रही ये “तरक्की” दरअसल ब्रज की आत्मा को खोखला कर रही है — जहाँ कभी हरे-भरे वन थे, वहाँ अब कंक्रीट के जंगल खड़े हैं; जहाँ कभी पवित्र कुंड और नदियाँ बहती थीं, वहाँ अब गंदगी और प्लास्टिक का सैलाब है। श्रद्धालु जब इस पावन भूमि पर कूड़े और भीख माँगते बच्चों के बीच थकान से गुजरते हैं, तो सवाल उठता है — क्या ब्रजभूमि अब सिर्फ एक “पिकनिक स्पॉट” बनकर रह जाएगी?
ब्रज के पर्यावरण संकट की जड़ में उसकी प्राकृतिक पहचान का विनाश है। गोवर्धन पर्वत, जिसे श्रीकृष्ण ने इंद्र के कोप से ग्वालों की रक्षा के लिए उठाया था, अब चारों ओर से कालोनियों और ऊँची इमारतों से घिर गया है। जहाँ कभी हरियाली और गायों के झुंड दिखते थे, वहाँ अब सीमेंट और धूल है। पवित्र कुंड, मेड़ और झाड़ियाँ मिट रही हैं, जिससे भूमि क्षरण, जैव विविधता का ह्रास और जलसंकट बढ़ रहा है।
यमुना, जिसमें कृष्ण ने कालिया नाग का विनाश किया था, अब जहरीले कचरे और नालों की गंदगी से बेहाल है। यह न केवल लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरा है, बल्कि इस पवित्र नदी की रूहानी पाकीज़गी को भी दागदार कर रहा है। मथुरा के पर्यावरण कार्यकर्ता कहते हैं — “कृष्ण की लीला करुणा और समानता की प्रतीक थी, लेकिन आज का ब्रज लोभ और असंवेदनशीलता का शिकार है।”
तेज़ी से बढ़ते निर्माण और अव्यवस्थित पर्यटन ने हालात को और बदतर कर दिया है। ब्रज सर्किट — जो उत्तर प्रदेश की सबसे लोकप्रिय धार्मिक यात्रा मानी जाती है — असली विकास के बजाय अवैध कब्ज़ों और अंधाधुंध निर्माण का गढ़ बन गई है। वृंदावन और गोवर्धन में महंगे फ्लैट, आलीशान आश्रम, और फिल्मी हस्तियों के रिज़ॉर्ट बन रहे हैं। गोवर्धन की 21 किलोमीटर लंबी परिक्रमा मार्ग को सीमेंट से पाटा जा रहा है और जगह-जगह दुकानों से घेर दिया गया है। वृंदावन में तो अब मथुरा से ज़्यादा ऊँची इमारतें हैं, जहाँ हरियाली का नामोनिशान मिट रहा है।
स्थानीय ब्रजवासी कहते हैं, “अब यह भूमि हमारे हाथ से निकल रही है। परिक्रमा मार्गों को भी अब निजी होटलों और आलीशान भवनों में बदल दिया गया है।”
यह सब ब्रज की आत्मा के खिलाफ है — जो सादगी, भक्ति और प्रकृति की पवित्रता पर आधारित है। प्रस्तावित गगनचुंबी मंदिर को लेकर भी स्थानीय पर्यावरणविदों ने विरोध जताया है कि इससे जल और बिजली संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा और ब्रज की ‘देहाती-रूहानी’ छवि नष्ट होगी। मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण (MVDA) में न दृष्टि है, न योजना। आधुनिकता की अंधी दौड़ में पुरानी वास्तुकला और सांस्कृतिक माहौल सब गड्डमड्ड हो गया है। ब्रज संस्कृति की आत्मा लापता है।
ट्रैफिक जाम, गंदे नाले, अतिक्रमण, टूटी हवेलियाँ और उजड़े घाट — सब इस विनाश की गवाही दे रहे हैं। मनोरंजन पार्कों, लग्ज़री रिज़ॉर्ट्स और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स ने आध्यात्मिकता की जगह उथले मनोरंजन को दे दी है। यह पर्यटकनुमा विकास ब्रज की पवित्रता और पुरातात्विक धरोहर दोनों को मिटा देगा।
विदेशी अनुयायियों की बढ़ती भीड़ भी इस पवित्र भूमि पर उपभोक्तावाद का दबाव बढ़ा रही है। पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य और धरोहर संरक्षणवादी डॉ. मुकुल पंड्या का कहना है कि अब वक़्त है कि “मुनाफे के लालच” के बजाय “संतुलित और सतत विकास” को अपनाया जाए। हेरिटेज ग्रुप के गोपाल सिंह कहते हैं, “ब्रज की पाकीज़गी को बचाना ही असली भक्ति है, न कि इसे मनोरंजन का बाज़ार बनाना।”
अब वक्त है एक समन्वित और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने का — जिसमें वृक्षारोपण, यमुना की सफाई, ठोस कचरा प्रबंधन, और स्थानीय समुदाय की भागीदारी हो। शाश्वत पर्यटन, पर्यावरण शिक्षा, सांस्कृतिक जागरूकता और निगरानी के ठोस कदम उठाने होंगे।
अंततः, ब्रजभूमि का विनाश सिर्फ पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि उसकी आत्मा पर वार है। श्रीकृष्ण की वह भूमि जहाँ प्रकृति और प्रेम एक थे, अब लालच और लापरवाही की भेंट चढ़ रही है। अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो यह धरती ‘भक्ति की भूमि’ से ‘व्यापार की भूमि’ बन जाएगी।
ब्रज को बचाना केवल पारिस्थितिकी नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण की अमर कथा की अस्मिता को बचाना है — ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इस पवित्र भूमि की सच्ची खुशबू महसूस कर सकें



