बृज खंडेलवाल
पटना । अगर शेक्सपियर आज ज़िंदा होते, तो अपना अगला ‘ट्रैजिक हीरो’ किसी शाही दरबार में नहीं, बल्कि नंगे पैर बिहार की धूल उड़ाता हुआ मिलता। प्रशांत किशोर—वही शख़्स जिसे कभी मोदी की 2014 की सुनामी और नीतीश कुमार के सियासी पुनर्जागरण का mastermind कहा गया—2025 के चुनाव मैदान में ऐसे उतरे, मानो तक़दीर ने उनके लिए कोई तख़्त पहले से रिज़र्व कर रखा हो।
तीन बरस तक वे पूरे बिहार में एक फ़कीर-से खाक छानते रहे—5,000 किलोमीटर की पदयात्राएँ, आधी रात को ‘सुशासन’ पर बयानबाज़ी, “बिहार की बदहाली ख़त्म करने” के मसीहाई दावे, और हर कदम पर ऐसा आभास कि वे अपने ही क़िस्मतनामे का महानायक बनने निकले हों।
लेकिन जैसे ही वोटों की गिनती पूरी हुई, कहानी कॉमेडी सर्कस में बदल गई। जिसने सोचा था कि वह बिहार की सियासत के देवताओं को मात दे देगा, उसे पता चला कि देवताओं को भी ज़बरदस्त ह्यूमर (हास्य रस) पसंद होता है। जन सुराज सिर्फ़ हारा नहीं—वह तो धूल चाट गया। शून्य सीटें। ज़मानत जब्त। कार्यकर्ता मायूस। और PK—जिसे कभी oracle समझा जाता था—अब चाय की दुकानों में हंसी का पात्र और सोशल मीडिया पर मीम-मटेरियल।
यह बिल्कुल ग्रीक त्रासदी वाली ‘ह्यूब्रिस’ थी—एक सलाहकार जिसने तालियों को मोहब्बत, और analytics को emotions समझ लिया। जिसने दूसरों के लिए फ़तह लिखी, वह अपने ही अरमानों के मलबे में लड़खड़ा गया—और बिहार ने उसके लिखे हुए नाटक की अंतिम पंक्ति उसी के ख़िलाफ़ लिख दी।
इस बीच असली सियासी मुकाबले में कोई ड्रामा नहीं था।
NDA—BJP और नीतीश कुमार की JDU—ने शानदार फ़तह दर्ज की।
14 नवंबर को काउंटिंग के बाद BJP 89 सीटों पर और JDU 85 सीटों पर क़ाबिज़ रही—आवश्यक 122 से कहीं ऊपर, एक मज़बूत सुपरमेज़ॉरिटी।
तेजस्वी यादव की महागठबंधन की नैया मुश्किल से ही तैर पाई। RJD को 25, कांग्रेस को सिर्फ़ 6 सीटें मिलीं। लेफ्ट लगभग ग़ायब रहा।
करीब 62% मतदान में महिलाएँ और सवर्ण मतदाता साफ़ तौर पर NDA की ओर झुके। उनके लिए नीतीश की स्थिरता और मोदी की राष्ट्रीय अपील, विपक्ष की जातीय राजनीति की यादों से कहीं ज़्यादा भरोसेमंद साबित हुई।
यह महज़ चुनावी जीत नहीं थी—यह बिहार का संदेश था: उथल-पुथल के दौर में निरंतरता ही अमन है।
लेकिन इस चुनाव का सबसे बड़ा खौफनाक अध्याय था जन सुराज का ज़बरदस्त पतन। PK ने खुद को बिहार का ‘disruptor’ समझ लिया था—एक टेक्नोक्रैट-से-मसीहा जो साफ़ राजनीति, सार्वभौमिक रोज़गार कोटा, मुफ़्त बिजली और भ्रष्टाचार-मुक्त ब्यूरोक्रेसी का वादा कर रहा था।
उनकी पदयात्राओं में विद्यार्थी, NRI और शहरी आदर्शवादी शामिल हुए।
उनके भाषण ऑनलाइन छा गए।
उनकी ‘सच्चाई बोलने वाले सुधारक’ की इमेज़ ने थके हुए युवाओं को आकर्षित किया।
पर चुनाव वेबिनार नहीं होते।
बिहार की सियासत केस स्टडी नहीं—जंग का मैदान है।
जब बैलट खुले, जन सुराज को मुश्किल से 3% वोट मिले।
98% उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त।
जहाँ PK ने हफ़्तों कैंप किया, वे क्षेत्र उंगलियों से रेत की तरह फिसल गए।
समर्थकों को एहसास हुआ कि उन्होंने एक लौ-सा जुनून बनाया था, मतदाता मशीन नहीं।
एक मायूस स्वयंसेवक बोला:
“हम तीन साल चले, पर भूल गए कि चुनाव एक्सेल शीट से नहीं, जज़्बात से जीतते हैं।”
PK का पतन उन सब टेक्नोक्रैट विद्रोहों जैसा था जो धरातल की हक़ीक़त से टकराकर चकनाचूर हुए—जैसे 2014 में योगेंद्र यादव का हरियाणा प्रयोग। जन सुराज विचारकों की पार्टी बन गया, वोट जुटाने वालों की नहीं।
बिहार के देहात में PK की ईमानदार लगने वाली ‘साफ़-सुथरी राजनीति’ की तक़रीरें उस नेटवर्क से नहीं टकरा सकीं जिसे दशकों की जाति-आधारित निष्ठा, लाभ योजनाएँ और गहरे राजनीतिक रिश्ते सँभालते हैं।
उन्होंने चुनावी राजनीति का सबसे बुनियादी उसूल भूल गए:
मोहब्बत बहुत है, मगर भरोसा नहीं।
PK का नरेटिव भी उनके काम नहीं आया—50 सीटों का ताबड़तोड़ दावा, माहिर नेताओं की खिल्ली उड़ाना, हर दल पर एक-सा हमला—वे कहीं visionary लगे, कहीं झिड़कने वाले मौलवी जैसे।
मतदाता उन्हें दिलचस्प तो मानते रहे, पर अपना नहीं समझ पाए।
महत्त्वाकांक्षा दिखी, जमीनी सच्चाई नहीं।
आख़िर में जनता ने वही चुना—
“जो जाना-पहचाना है, उससे बेहतर वह फ़रिश्ता नहीं जो हमें हर वक़्त समझाता रहे।”
अब 48 की उम्र में PK दोराहे पर खड़े हैं। शायद वे वापस उसी दुनिया में लौट जाएँ जिसे वे सबसे अच्छी तरह समझते हैं—ग्लोबल पॉलिटिकल कंसल्टेंसी। यूरोप से लेकर जेरूसलम तक उनका फ़ोनबुक ऐसे क्लाइंटों से भरा है जो आज भी उन्हें strategist मानते हैं, न कि नाक़ाम उम्मीदवार। घर में, जन सुराज शायद think-tank बनकर रह जाए। योगेंद्र यादव के एक्सपीरियंस से कुछ सीखा होता तो ये हस्र न होता।
बिहार ने उनके नेतृत्व के दावे को साफ़ ठुकरा दिया है, और अब क्षेत्रीय पार्टियाँ भी उनसे दूरी ही रखेंगी—उनके ‘ज़हरीले टच’ के डर से।
UP या महाराष्ट्र में नई शुरुआत की उम्मीद भी कम है—वहाँ की ज़मीन बाहरी दावेदारों के लिए और भी सख़्त है। PK की पदयात्राओं का जज़्बा उस सख़्त हक़ीक़त को नहीं बदल सकता जो बिहार ने बयान कर दी: असलीयत, algorithm पर भारी पड़ती है।
PK अब एक पहेली हैं—
न राजा बनाने वाले,
न वो सुधारक जिसकी उन्होंने झलक दिखाई थी।
बल्कि एक सबक—कि राजनीति उन लोगों को माफ़ नहीं करती जो ‘दिमाग़’ को ‘दिल’ से ऊपर रख बैठते हैं।
तो यूँ गिरता है पर्दा प्रशांत किशोर के इस बड़े सियासी तजुर्बे पर।
न किसी तूफ़ान के साथ,
न किसी ताजपोशी के साथ—
बस ख़ामोशी के साथ।
एक चेतावनी की तरह।
धुआँ-धार कमरों में चुनावी रणनीतियाँ गढ़ने वाला शख़्स खुले मंच पर तन्हा रह गया।
हीरो की चादर उतरी,
रोशनी बुझी,
और दर्शक आगे बढ़ गए।



