प्लास्टिक से जकड़ा भारत

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दिल्ली की जाम नालियाँ, मुंबई के कचरे से पटे समुद्रतट, हिमालय की पगडंडियों पर बिखरे रैपर, वाराणसी और वृंदावन के घाटों पर तैरती बोतलें और माला…आज भारत का हर कोना प्लास्टिक से घिरा है। यह जहरीला बोझ मिट्टी को बंजर बना रहा है, नदियों का दम घोंट रहा है, जानवरों की जिंदगी छीन रहा है और पवित्र स्थलों की आभा धूमिल कर रहा है।
पहाड़, जो कभी निर्मल और शांत थे, अब कचरे के ढेरों से सजे दिखते हैं। तालाब और कुंड प्लास्टिक की मालाओं से भरे हैं, और समुद्रतट पर सीपियों की जगह अब पैकेजिंग व रैपर चमकते हैं। एकबारगी इस्तेमाल होने वाला यह प्लास्टिक सिर्फ कचरा नहीं है—यह हमारे भोजन, हवा और यहां तक कि खून में भी घुस चुका है।
प्लास्टिक प्रदूषण अब सिर्फ पर्यावरणीय समस्या नहीं, बल्कि अस्तित्व का संकट है। जिनेवा में प्लास्टिक पर वैश्विक संधि को लेकर तीन साल चली छह दौर की बातचीत बेनतीजा रही। उत्पादन घटाने की मांग करने वाले और सिर्फ कचरा प्रबंधन पर जोर देने वाले देशों के बीच खाई गहरी होती गई। इसका सबसे बड़ा नुकसान भारत जैसे देशों को हो रहा है, जहां आबादी विशाल है और कचरा प्रबंधन बेहद कमजोर।
भारत रोज़ाना करीब 26,000 टन प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। इसमें से आधे से ज्यादा गलत तरीके से निपटाया जाता है—नालियों में, खाली ज़मीन पर या सीधे नदियों और समुद्र में। नतीजा यह कि भारत हर साल लगभग 80 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक महासागरों में फेंक देता है।
7,500 किलोमीटर लंबी तटरेखा पर बसे मछुआरे समुदाय इसका सीधा खामियाजा भुगत रहे हैं। अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक, कछुए, मछलियां और समुद्री पक्षी प्लास्टिक में उलझे या अपचनीय बोतलों-थैलियों से भरे पेट के साथ मृत पाए जा रहे हैं। माइक्रोप्लास्टिक मछलीपालन को तबाह कर रहा है और खाद्य सुरक्षा पर सीधा खतरा खड़ा कर रहा है।
भारत पर दबाव है कि वह उत्पादन घटाने की दिशा में कदम बढ़ाए। लेकिन यह आसान नहीं। लाखों लोग इस उद्योग पर आश्रित हैं, और भारत जैसा मूल्य-संवेदनशील बाज़ार अभी सस्ते विकल्पों के बिना जी नहीं सकता। रिवर एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर कहती हैं, “प्लास्टिक उद्योग रोज़गार का बड़ा स्रोत है। अगर उत्पादन पर अचानक रोक लगी, तो सामाजिक-आर्थिक संकट गहरा जाएगा।”
फिर भी, भारत ने कुछ कोशिशें की हैं। स्वच्छ भारत मिशन, कुछ राज्यों में एकबारगी प्लास्टिक पर आंशिक प्रतिबंध, और समुद्रतट सफाई अभियान—ये सब आशा जगाते हैं, लेकिन नाकाफी हैं। समस्या है कमजोर ढांचा, असंगत प्रवर्तन और व्यापक रीसाइक्लिंग सिस्टम का अभाव। एक्टिविस्ट चतुर्भुज तिवारी बताते हैं, “देश में सिर्फ 60% प्लास्टिक कचरा ही रीसाइक्लिंग तक पहुंच पाता है। बाकी नालियों में सड़ता है या जलाकर जहरीला धुआं बन जाता है।”
जिनेवा की विफल वार्ता ने साफ कर दिया है कि भारत को वैश्विक सहमति का इंतजार नहीं करना चाहिए। मुक्ता गुप्ता, सोशल एक्टिविस्ट, कहती हैं: “अगर हमें अपनी नदियों, पहाड़ों और समुद्रों को बचाना है, तो हमें खुद निर्णायक कदम उठाने होंगे। कचरे का पृथक्करण अनिवार्य करना होगा, आधुनिक रीसाइक्लिंग तकनीकों में निवेश करना होगा और जैव-अवक्रमणशील विकल्पों को सुलभ बनाना होगा।”
समुद्रतट सफाई जैसे अभियान प्रतीकात्मक हैं। असली बदलाव तभी आएगा जब प्रणालीगत सुधार होंगे—नगर निकायों से लेकर उद्योग तक सबको इसमें भागीदार बनाना होगा। भारत के अनौपचारिक कचरा बीनने वाले, जो रीसाइक्लिंग का बड़ा हिस्सा संभालते हैं, अभी तक सुरक्षा, वेतन और सम्मान से वंचित हैं। उन्हें औपचारिक ढांचे में लाना ही होगा।
एनवायरनमेंटलिस्ट डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य चेतावनी देते हैं, “मछलियों और समुद्री नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक मिल चुका है। यह हमारी थाली तक पहुंच रहा है। स्वास्थ्य पर इसके दीर्घकालिक खतरे अभी पूरी तरह सामने नहीं आए हैं, लेकिन कैंसर, हार्मोनल गड़बड़ियों और प्रतिरोधक क्षमता पर असर की आशंका गहरी है।” आर्थिक दृष्टि से भी संकट बड़ा है। तटीय राज्यों की आजीविका—मत्स्य उद्योग और पर्यटन—दोनों ही खतरे में हैं। कौन विदेशी पर्यटक गंदगी और कचरे से पटे समुद्रतट देखना चाहेगा?
पब्लिक कॉमेंटेटर प्रो. पारस नाथ चौधरी मानते हैं कि समाधान दोतरफा है: “हमें उत्पादन भी घटाना होगा और प्रबंधन भी सुधारना होगा। दोनों में संतुलन लाए बिना भारत न तो अपने लोगों की रक्षा कर पाएगा, न ही वैश्विक स्तर पर उदाहरण बन पाएगा।” आज की हकीकत यह है कि प्लास्टिक प्रदूषण ने भारत के पर्यावरण, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य—चारों पर शिकंजा कस लिया है।
अगर अब निर्णायक कदम नहीं उठाए गए तो नदियाँ, समुद्र, पहाड़ ही नहीं—भारत का भविष्य भी इस प्लास्टिक के बोझ तले दब जाएगा।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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