दिल्ली। भारतीय सिनेमा, विशेषतः बॉलीवुड, न केवल भारत की सांस्कृतिक पहचान का संवाहक रहा है, बल्कि उसने वैश्विक परिदृश्य में भारतवंशियों की भावनात्मक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थितियों का भी प्रभावशाली चित्रण किया है। आज, बॉलीवुड और भारतीय प्रवासी समुदाय के बीच एक व्यावसायिक और सांस्कृतिक समन्वय स्थापित हो चुका है। सौ से अधिक देशों में फैला तीन करोड़ से भी अधिक की जनसंख्या वाला भारतीय डायस्पोरा बॉलीवुड के लिए एक महत्वपूर्ण दर्शक वर्ग बन चुका है।
‘बॉलीवुड’ के वैश्विक रूप में पुनर्निर्माण के साथ हिंदी सिनेमा की विषयवस्तु, पात्र-निर्माण और प्रस्तुति में वैश्विकता का समावेश हुआ है। प्रवासी भारतीयों के जीवन, उनकी सांस्कृतिक जटिलताओं, पहचान-संकटों और भारतीय मूल्यों के साथ उनके जुड़ाव को फिल्मी कथानकों में रेखांकित किया जाने लगा है। इस प्रकार बॉलीवुड ने भारत और विदेश दोनों जगहों पर अपने दर्शकों के लिए एक अधिक समावेशी और वैश्विक छवि प्रस्तुत की है। जहाँ एक ओर यह सिनेमा भारतीय प्रवासी समुदाय को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखने का कार्य करता है, वहीं दूसरी ओर यह उन्हें उनकी भारतीय पहचान को एक वैश्विक मंच पर पुनर्स्थापित करने का अवसर भी प्रदान करता है। जिस कार्य को कभी रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ निभाते थे, वही कार्य अब डिजिटल मीडिया और सामाजिक मंचों पर सिनेमा के माध्यम से सम्पन्न हो रहा है।
इस कड़ी में वी. शांताराम की डॉ. कोटनीस की अमर कहानी (1946) एक प्रारंभिक प्रयास रही, जिसमें एक विदेशी भूमि पर कार्यरत भारतीय डॉक्टर की कथा को प्रस्तुत किया गया। इसके बाद संगम (1964), लव इन टोक्यो (1966), एन ईवनिंग इन पेरिस (1967), पूरब और पश्चिम (1970) जैसी फिल्मों ने विदेश में भारतीय जीवन की झलक दिखाई। वास्तविक प्रवासी जीवन की संवेदनशीलता 1990 के दशक के बाद और अधिक मुखर रूप में सामने आई। दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995), परदेस (1997), कभी ख़ुशी कभी ग़म (2001), कल हो ना हो (2003), सलाम नमस्ते (2005), नमस्ते लंदन (2006), और तारा रम पम (2007) जैसी फिल्मों ने प्रवासी भारतीयों की द्वंद्वात्मक पहचान, पारिवारिक मूल्यों और पश्चिमी समाज के साथ उनकी सामंजस्य की कोशिशों को केंद्र में रखा। बॉलीवुड के अतिरिक्त कई प्रवासी भारतीय फिल्मकारों—बाला राजशेखरानी, डॉ. निखिल कौशिक, कल्पना सिंह, करनशेर सिंह, अंगदपाल, आनंद सिंह, सुरेश सेठ, बिपिन पटेल और तरलोक मलिक—ने भी प्रवासी जीवन पर केंद्रित उल्लेखनीय फिल्में बनाई हैं। प्रवासी भारतीयों के जीवन को चित्रित करने वाली फिल्मों में सबसे प्रमुख नाम मनोज कुमार द्वारा निर्मित “पूरब और पश्चिम” (1970) का आता है। यह फिल्म भारतीय और पश्चिमी जीवनशैली के बीच के अंतरों को दर्शाते हुए भारतीय परंपराओं, मूल्यों और जीवन-दृष्टि को श्रेष्ठ ठहराने का प्रयास करती है। फिल्म का केंद्रीय संदेश यह है कि कोई युवा चाहे विदेश में आधुनिक शिक्षा प्राप्त करे, किंतु उसका अंतिम उद्देश्य स्वदेश लौटकर अपने देश की सेवा करना होना चाहिए। 1995 में आई आदित्य चोपड़ा की फिल्म “दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे” (डीडीएलजे) प्रवासी भारतीयों पर केंद्रित एक युगांतकारी कृति सिद्ध हुई। जहाँ साठ से नब्बे के दशक तक प्रवासी भारतीयों पर इक्का-दुक्का फिल्में बनीं, वहीं डीडीएलजे ने इस विषय को मुख्यधारा में लाकर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया। 1990 के दशक की फिल्मों में आधुनिकता और परंपरा के संघर्ष के स्थान पर दोनों के सह-अस्तित्व और समन्वय को महत्व दिया गया। प्रवासी भारतीय को ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाया गया जो आधुनिकता और परंपरा, दोनों दुनियाओं के बीच संतुलन बनाते हुए जीवन जीता है।
इन फिल्मों में भारत की सांस्कृतिक अवधारणाएँ और परंपराएँ एक ऐसे परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत की गईं जो न केवल प्रवासी दर्शकों को अपनी जड़ों से जोड़े रखती हैं, बल्कि उन्हें गर्व के साथ वैश्विक पहचान की ओर भी अग्रसर करती हैं।
भारतीय सिनेमा, विशेषतः बॉलीवुड, समय के साथ केवल मनोरंजन का माध्यम न रहकर, भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों, पहचान, और सामाजिक परिवेश का वैश्विक प्रवक्ता बन चुका है। प्रवासी भारतीयों के जीवन, संघर्ष, द्वंद्व, और सांस्कृतिक अनुकूलन की गाथाओं को केंद्र में रखकर बनी फिल्मों ने न केवल दर्शकों को आत्मचिंतन के लिए प्रेरित किया है, बल्कि एक वैश्विक भारतीय चेतना का भी निर्माण किया है। बॉलीवुड ने प्रवासी भारतीयों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखने का कार्य किया है। सिनेमा के माध्यम से भारतीय मूल्य, परंपराएँ, भाषिक भावनाएँ और पारिवारिक ताने-बाने, वैश्विक मंच पर प्रस्तुत होकर, भारतीय पहचान को सुदृढ़ करते हैं। यह वही भूमिका है जो पूर्व समय में रामायण जैसे ग्रंथ निभाते थे—आज वही स्थान डिजिटल युग में सिनेमा ने ले लिया है। वहीं दूसरी ओर, प्रवासी भारतीयों को भी बॉलीवुड के माध्यम से न केवल सांस्कृतिक जुड़ाव प्राप्त होता है, बल्कि वे अपनी पहचान को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पुनः परिभाषित करने में भी समर्थ होते हैं। इस प्रकार बॉलीवुड केवल एक सिनेमाई विधा नहीं, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक सेतु बनकर उभरा है, जो ‘देसी’ और ‘परदेसी’ के बीच भावनात्मक पुल का कार्य करता है।