पुस्तकें अपनी सामग्री से बिकती हैं, संबंधों से नहीं!

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कमलेश कमल

क्या आपने कभी सोचा है कि जब हमें कपड़े, दवाइयाँ या अन्य ज़रूरी चीज़ें खरीदनी होती हैं, तो हम कहाँ जाते हैं? निश्चित ही वहाँ, जहाँ हमारी ज़रूरत पूरी हो सके। केवल दोस्ती या संबंधों के कारण हम गलत दुकान से सामान नहीं खरीदते।

यही बात पुस्तकों पर भी लागू होती है। किताबें गुणवत्ता और सामग्री के कारण खरीदी जाती हैं, न कि किसी लेखक की बार-बार की अपील या अनुरोध पर। यदि कोई लेखक अनावश्यक रूप से लिंक भेजकर या किताब खरीदने की प्रार्थना करके अपनी पुस्तक को प्रचारित करता है, तो यह न केवल उसके प्रति पाठकों की रुचि को कम करता है, बल्कि उसकी मेहनत और रचनात्मकता का अवमूल्यन भी करता है।

एक और महत्वपूर्ण बात— जिसे दवा की आवश्यकता नहीं है, उसे दवा देंगे तो वह उसे फेंकेगा। यही बात पुस्तकों पर भी लागू होती है। किसी को अनावश्यक रूप से पुस्तक की प्रति देना लेखक की मजबूरी नहीं, बल्कि एक सरल और मासूम प्रयास है कि रचना सही हाथों तक पहुँचे। इससे बचना चाहिए! हाँ, अपनी रचना के बारे में बताना आपका अधिकार है। विज्ञापन का युग है, तो इसके लाभ भी हैं; लेकिन ‘content is king’ पुस्तकों के संदर्भ में एकदम सटीक है।

पुस्तकें उपहार नहीं, विचार हैं। वे तभी अर्थवत्ता प्राप्त करती हैं, जब सही पाठक तक पहुँचें। लेखक का काम अपनी श्रेष्ठ रचना देना है, न कि उसे जबरन किसी पर थोपना। मैंने सदा सर्वोत्तम साधना पर बल दिया है और शेष कार्य देश भर के हिंदीप्रेमी करते हैं। शब्द-संधान के प्रीबुकिंग की एक सूचना दी थी और पुस्तक वैश्विक रैंकिंग में नम्बर #1 बेस्टसेलर बन गई। पुस्तक छपकर कल से लोगों को मिलने लगी है। लगभग 80-90 लोगों से पुस्तक मिलने की सूचना प्राप्त हुई है। ऐसे बहुत से अन्य हिंदीप्रेमी होंगे। आप सबका स्नेह ही मुझे ऊर्जस्वित् करता है।

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