राहुल गांधी के आरोपों पर शपथ पत्र से इनकार: लोकतंत्र के लिए खतरा?

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राहुल गांधी के हालिया आरोपों पर शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार ने उनकी विश्वसनीयता और भारत के स्वस्थ लोकतंत्र पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, गांधी ने चुनाव आयोग पर वोटर लिस्ट में हेरफेर का आरोप लगाया, लेकिन जब कर्नाटक के मुख्य चुनाव अधिकारी ने इन आरोपों को शपथ पत्र के साथ साबित करने को कहा, तो गांधी का जवाब था, “मैं नेता हूं, मैं मुंह से बोलूंगा।” उनका यह रवैया न्यायालय से बार-बार लताड़े जाने के बावजूद बदल नहीं रहा है, जैसे कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक मानहानि मामले में कार्यवाही पर रोक लगाने के दौरान माननीय न्यायालय ने उनकी क्लास लगाई थी। इस सबसे बावजूद उनमें कोई सुधार नहीं दिख रहा। वे हाथ में संविधान सिर्फ इसलिए रखते हैं क्योंकि हो सकता है कि उनकी पीआर की टीम ने कहा हो कि इससे वे कुल दिखाई देते हैं। शेष वे संविधान या संवैधानिक संस्थाओं का थोड़ा भी सम्मान करते हैं, उनके व्यवहार से तो नहीं लगता।

शपथ पत्र को लेकर गांधी की यह हिचकिचाहट उनके आरोपों की सत्यता पर सवाल उठाती है। शपथ पत्र पर हस्ताक्षर न करना कानूनी दायरे में आने और झूठे बयान के लिए मुकदमा झेलने के डर को दर्शाता है। यह व्यवहार न केवल उनकी व्यक्तिगत साख को प्रभावित करता है, बल्कि कांग्रेस पार्टी की स्थिति को भी कमजोर करता है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी गांधी की बयानबाजी पर नाराजगी जताई है, जैसे कि भारतीय सेना पर उनके विवादास्पद बयान के मामले में, जहां न्यायालय ने उनकी आलोचना की थी।

गांधी का यह रवैया भारत के लोकतंत्र के लिए खतरा बनता जा रहा है, क्योंकि यह चुनावी प्रक्रिया पर अविश्वास फैलाता है और सार्वजनिक राय को ध्रुवीकृत करता है। उनकी ओर से सबूतों के बिना गंभीर आरोप लगाना संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करता है और राजनीतिक माहौल को जहरीला बनाता है। यह आवश्यक है कि राजनीतिक नेता अपने बयानों के लिए जवाबदेही लें, अन्यथा लोकतंत्र की नींव कमजोर होती जाएगी।

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