राहुलजी, गाँव कब से आपकी प्रतीक्षा में है, लौट आइए!

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विजय मनोहर तिवारी

दिल्ली । सुप्रसिद्ध पत्रकार राहुलदेव 38 साल बाद एनसीआर छोड़ने पर मजबूर हैं। दैनिक भास्कर के फ्रंट पेज पर उनकी तस्वीर के साथ यह खबर छपी है, जिसके शीर्षक का पहला शब्द है-दर्द। वे हम सबकी तरह दिल्ली के प्रदूषण को लेकर यह पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं। उनके शब्द हैं-अपने शहर लखनऊ जा रहा हूँ। वहाँ भी दिक्कत हुई तो गाँव चला जाऊँगा…
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यह तो होना ही है। आजादी के बाद हाशिए पर छोड़े गए गाँवों के दुष्परिणाम दिल्ली से ही आने चाहिए थे, जहाँ लाल किले से भारत की एक नई सुबह की शपथ शेरवानी में गुलाब खोंसकर ली गई थी।

वो नई सुबह उसी दिल्ली को इस सुबह तक ले आई है। दूरदराज गाँवों में सदियों की गुलामी सहन करते हुए रहती रही भारत की 80 फीसदी आबादी को उपेक्षित छोड़कर विकास का अनूठा मॉडल बनाया गया, जिसकी प्राथमिकता में केवल और केवल शहर थे। अच्छे स्कूल वहाँ थे, अच्छे अस्पताल वहीं बने, अच्छी सड़कें, साफ पानी और हर समय बिजली शहरों को ही मिली। बापू के सपनों का स्वराज्य और बापू के सपनों के गाँव बापू वालों ने बदहाल बना दिए।

गाँवों से एकतरफा पलायन हर दशक में तेज होता गया। हम पढ़ने के लिए शहरों में भागे। नौकरियों के लिए और बड़े शहरों का रुख किया। हमारी अगली पीढ़ी तो गाँवों से पूरी तरह डिस्कनेक्ट ही हो गई। आज गाँव वीरान पड़े हैं। एक कमरा भी किराए पर ले सकने की क्षमता वाला गरीब आदमी पास के किसी कस्बे या छोटे शहर में पड़ा हुआ है। बच्चों को पढ़ाना है, काम करना है, गाँवों में क्या रखा है? हमारे ज्यादातर जनप्रतिनिधियों की पृष्ठभूमि में गाँव थे, कृषि थी। वे किसान पुत्र कहकर खुद को महिमामंडित करते थे, लेकिन गाँवों और किसानों को दुर्दशाग्रस्त पीछे छोड़कर उन्होंने अपनी पालकियाँ राजधानियों में निकालीं।

बीस लाख आबादी के किसी भी शहर में ढाई-तीन लाख सेवानिवृत्त लोग डटे हुए हैं, जो कभी सरकारी या प्राइवेट नौकरियों के लिए गाँव-कस्बों से ही निकले थे। उनके बच्चे बेंगलुरू-हैदराबाद या दिल्ली-मुंबई या ऑस्ट्रेलिया-कनाड़ा जा पहुँचे हैं। लेकिन वे शहरों में खजूर की तरह अटके हुए हैं। आबोहवा कितनी भी साफ भले ही हो, राहुलजी को 38 साल बाद दिल्ली या लखनऊ नहीं, अपने गाँव लौटने की जरूरत है। और मैं यह इसलिए भी कह पा रहा हूँ, क्योंकि मैं अपने गाँव लौट गया हूँ।

ढाई-तीन दशक की नौकरी या बिजनेस के बाद आप शहरों में रहकर थोड़ी पूँजी कमाते हैं, कुछ अधिक संबंध कमाते हैं और सर्वाधिक अनुभव अर्जित करते हैं। इन तीनों का एक अंश लौटकर अपने गाँव में लगा दीजिए और गाँवों की वीरानी को कम कीजिए। शहरों में बेवजह टिकी यह अनुभव संपन्न आबादी करोड़ों में है, जो गाँव लौट जाए तो दिल्ली पर भी कृपा करे और गाँव पर भी, जो कब से उनकी बाट जोह रहे हैं।

प्रधानमंत्री आदरणीय नरेंद्र मोदी की वाणी प्रभावी है। एक बार उन्होंने भारत स्वच्छता का आव्हान किया और देखते ही देखते इंदौर जैसा नर्क हो चुका शहर साफ-सफाई में अव्वल आ गया। संडास में बदल चुके रेलवे स्टेशन और ट्रेनें बैठने-चलने लायक हो गए। अब मैं उनसे आग्रह करूंगा कि वे भारत स्वच्छता अभियान के बाद अगले ही 15 अगस्त को लाल किले से “रिवर्स माइग्रेशन’ का आव्हान करें। शहरों में तीन-चार दशक बिता चुके धन, साधन और अनुभव संपन्न लोग अपने गाँव-कस्बों में कुछ नया करने का प्लान करें। अब गाँवों तक अच्छी सड़कें, बिजली, पानी मुहैया है। इन्फ्रास्ट्रक्चर तेजी से सुधरा है, जिसकी जर्जर हालत ने गाँवों को वीरान कर दिया था। आइए पंचतत्व में विलीन होने के पहले अपने हिस्से का थोड़ा सा समय और योगदान अपने ही गाँव को दे दीजिए।

मैंने 2018 में अपने पिता के जन्मस्थान पर लौटने का निर्णय लिया था। बीस साल पहले अपनी पूज्य मां के हाथों लगाई आम-अमरूद की एक बगिया में एक छोटी सी कुटिया बनाई। 2021 में अमरूद के ढाई हजार पौधे रोपे। उन्हीं के नाम पर इसे सावित्री वृक्ष मंदिर का नाम दिया। चार साल बाद इस बाग में छह महीने 20 लोगों को काम मिला और सात-आठ कर्मवीरों की स्थाई टीम बन गई। गाँव लौटने से दूसरे कुछ काम अलग से मिल गए, जिनकी अलग कहानी है। मेरे मित्रों को उदयपुर की नियमित मासिक हेरिटेज वॉक के बारे में पता है। मेरी एक किताब इसी पर है-जागता हुआ कस्बा।

मुझे इजरायल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन के घर जाने का अवसर मिला था, जो तेल अवीव या ओल्ड जेरूशलम की शानदार रिहाइशों में नहीं था। कार्यकाल समाप्त होने के बाद राजधानी से दूर वे अपने गाँव में खेती करने लौट गए थे। मगर भारत में विचित्र है। एक बार यहाँ जो दिल्ली चला गया, उसके बाद उसका बंगला संग्रहालय में बदलेगा और अजीब-अजीब से नाम वाले घाटों पर उनकी समाधियाँ बनेगी। मुझे आश्चर्य होता है कि अपनी राजनीतिक पारी समाप्त होने के बाद वे अपने गाँव क्यों नहीं लौटते? मरने के बाद भी दिल्ली का मोह नहीं छूटेगा तो दिल्ली जीते-जी आपको छोड़ने के लिए मजबूर कर देगी।

राहुलजी के दर्द ने यह रेखांकित किया है कि सरकार जो करे सो करे, समाज भी गाँवों को अपना ही बिछुड़ा हुआ कुटुंब मानकर उनकी सुध ले। हजार-दो हजार आबादी के किसी भी गाँव से निकले दस-बीस लोग लौट आएँ तो पाँच साल में ही हवा बदल सकते हैं। जरूरी नहीं कि वे बुढ़ापे में लौटकर खेती ही करें। वे स्कूल में दो कमरे बना सकते हैं। चार कम्प्यूटर दे सकते हैं। मंदिर के पास एक बगीचा बना सकते हैं। बच्चों के खेलने के लिए पार्क विकसित कर सकते हैं। किसी ऐतिहासिक स्थान की सुध ले सकते हैं। गाँव वालों को अपने जीवन के अनुभव का कोई भी लाभ दे सकते हैं।

गाँवों से शहरों में हुए एकतरफा पलायन ने गाँव वीरान कर दिए और शहरों का कचूमर निकाल दिया। शहर मर रहे हैं। पंचायती चुनावों ने गाँवों को कलह और वैमनस्य से भर दिया है। मुफ्त की स्कीमों, घटिया राजनीति और बेहिसाब मदिरा ने पूरा ढाँचा ही हिला दिया है।

राहुलजी, इसमें क्या दर्द की बात है, मजबूरी न हो तब भी विचार कीजिए। लखनऊ या अपने गाँव लौटने के पहले एक बार मेरे गाँव में आइए। यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमरूद में आपका स्वागत है!

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