सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

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डा. प्रवेश कुमार चौधरी

सामाजिक समरसता बाबा साहब अम्बेडकर के विचारो का असल अर्थो मे अनुपालन करना है, अम्बेडकर ने तीन मानव मूल्यो की बात की स्वतन्त्रता , समानता , बंधुत्व ये तीनों तत्व समाज विकास के लिए अनिवार्य हैं

पिछले दिनों एक विद्यार्थी के दलित विषय पर किए गए शोध रिपोर्ट को जाँच रहा था। इसी में दलित साहित्यकारों द्वारा बार-बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को टारगेट करते देख, मुझे लगा कि इस पक्ष की खोज पड़ताल की जाये। इस शोध से पूर्व मैंने राजस्थान के एक दलित लेखक जो पूर्व में संघ से जुड़े होने का दवा करते है, उनकी आत्मकथा को पढ़ा था। जिसमें उन्होंने अपनी आप बीती को व्यक्त करते हुए संघ को लेकर कई अपति दर्ज की है। वही कुछ वर्ष पूर्व एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में देश के पूर्व मुख्य न्यायधीश जो की समाज के दलित वर्ग से आते हैं उनके द्वार कार्यक्रम में सामाजिक न्याय की बात उठाना । वही समय – समय के अपने उदबोधनो में पूज्य सर संघचालक मोहन राव भागवत जी द्वारा सामाजिक समरसता तत्व की बार- बार चर्चा करना । ये सब समाज में कही कोतूहल ज़रूर पैदा करता हैं ,लोगों के मन में संघ को जानने की तीव्र इच्छा भी पैदा करता हैं। उनके मन में उपयुक्त प्रश्न ज़रूर आते हैं की संघ की समाज दृष्टि क्या हैं ? उसकी अनुसूचित जाति – जनजाति को लेकर सोच क्या हैं ?, आरक्षण जैसे विषय पर संघ की क्या समझ है? ये लेख कुछ इनहि प्रश्नो को उत्तर देने का प्रयास हैं ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना महराष्ट्र में स्वतंत्रता सेनानी डॉ० केशवराव बलिराम हेडगेवार के द्वारा 1925 को की जाती , संघ का हेतु एक हैं “समाज में देश भक्त नागरिकों का निर्माण करना , में मेरी चिंता के साथ अपने पड़ोसी की, समाज की ,राष्ट्र और विश्व की चिंता करूँ ये ही संघ की दृष्टि हैं, ये ही हिंदू दृष्टि भी हैं । ये ही विचार इस भारत का भी मूल विचार हैं , परंतु विगत वर्षों कि विदेशी राष्ट्रों के अधीनता ने भारत के मानस से इस भाव को प्रायः समाप्त ही कर दिया इसी को पुनः जागृत करना ही तो अपना ध्येय हैं । इसी लिए संघ के लाखों , करोड़ों स्वयंसेवक कार्यकर्ता दुनिया भर में समाज और राष्ट्र के बेहतरी के लिए अनवरत कार्यों में लगे हैं। परस्पर सहयोग और प्रेम का भाव ही तो हिंदुत्व का दर्शन हैं इसी के भीतर समरसता का तत्व अंतर निहित हैं । ये समरसता ही ये बताती हैं की मैं और तुम भिन्न नहीं हम एक हैं। इसी एकात्म तत्व का जागरण कर समाज को संगठित करना इसी कार्य को लगभग 90 वर्षों से संघ करता आ रहा हैं। ये “एकात्म” भाव इस भारत का भाव है इसी के छिन्न होने के कारण भारत वर्षों तक विदेशी अक्रांताओ के अधीन रहा,संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवर जानते थे की भारत एक ना एक दिन ज़रूर आज़ाद हो जाएगा परंतु यादि भारत की इस मानव शक्ति को वैचारिक एकत्व , देशिक विचार से ना जोड़ा गया तो क्या तय भारत पुनः ग़ुलामी की और चला जाये । इसी लिए संघ की शाखा में जाने वाला प्रत्येक स्वयंसेवक केवल एक पहचान को लेकर साथ-साथ काम करता वो हैं हिंदू पहचान।

जब 1934 में महात्मा गांधी वर्धा में संघ के शिविर में गए तो उन्होंने ये जानने की कोशिश की यहाँ साथ रहने वाले स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं की क्या जाति हैं । गांधी ने एक स्वयंसेवक से पूछ आप क्या हैं? उसने उत्तर दिया हिंदू , इस प्रकार कई कार्यकर्ताओं से पूछने पर भी समान उत्तर मिला तो गांधी जी ने पूछ आपकी जाति क्या हैं?तब ज्ञात हुआ की तमाम स्वयंसेवक साथ-साथ भोजन करते है साथ-साथ रहते हैं परंतु उनमें काफ़ी स्वयंसेवक तो समाज के अश्प्र्श्य वर्ग से सम्बंधित हैं। इसी लिए 1938 में डॉ अम्बेडकर भी संघ के शिविर में जाते हैं और अपने जीवन काल में संघ को लेकर अम्बेडकर ने कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी जी से उनको बहुत स्नेह रहा , वे अम्बेडकर के चुनाव के एजेंट भी बने। संघ ने हमेशा से जाति और वर्ण आधारित समाज व्यवस्था को नकार दिया उसको कभी भारतीय दर्शन का मूल विचार नहीं माना अगर संघ इस बात को कहता हैं तो इसके समर्थन मे कुछ तर्क भी दिये जा सकते हैं ये तर्क हमे उन्ही वेदिक, उपनिषदों मे ही मिलते हैं। कंठकौपनिषद कहता हैं “एक स्वथा सर्वभुतान्तारात्मा” (समस्त प्राणियों की अंतरत्मा में एक ही परमब्रह्म हैं ,जो सभी प्राणियों मे विराजमान हैं) जब ईश्वर एक हैं तो सभी मे एक ही आत्मा हैं वो दलित , शूद्र , अवर्ण -स्वर्ण सभी मे एक हैं , ये ही भारत का चिंतन हैं, संघ और भारत का दर्शन भिन्न नहीं एक ही हैं । संघ ने तमाम बार जाति और उसके द्वारा किए गए उत्पीड़न का विरोध किया हैं। डॉ हेड्गेवार ने तो पहले ही जाति नाम की संस्था की अंत की बात की और गुरु गोलवलकर ने भी ऐसी व्यवस्था को नष्ट होने की बात की , इसी लिए संघ की शाखा पर किसी भी प्रकार के भेद को अस्वीकार कर दिया जाता हैं सभी स्वयंसेवक एक रस होकर देश और समाज के हित मे चिंतन करते हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन में सामाजिक रूप से अस्पर्यशता को डॉ हेड्गेवार ने नकारा हैं, वे पुना के न्यू इंग्लिश हाईस्कूल मे अश्प्र्श्यो के साथ सहभोज के आयोजको मे से एक थे। 23 अक्तूबर 1932 को इसी स्कूल के छात्रो को संबोधित करते हुए उन्होने कहा की साहसपूर्ण ढंग से अस्प्र्श्यता का मुक़ाबला करे ।

संघ के तृतीय सर-संघचालक बाला साहब देवरस ने संघ के विभिन्न शिविरों में अपने वक्तव्यों में इस बात को कहा कि ‘‘संघ वर्ण व्यवस्था को नहीं मानता किसी भी ऊँच-नीच और असमानता को नहीं मानता, मनुस्मृति में असमानता है तो हम इसको नहीं मानते आरक्षण का हम समर्थन करते हैं। आरक्षण के समर्थन में संघ की सोचा है की सदियों से शोषित पीड़ित ,दलित और फलस्वरूप पिछड़ी अवस्था में रहने वाले समाज को शेष समाज की बराबरी की सुविधाएं एवं संरक्षण देना उचित ही है और वैसे करते समय कोई वर्ग शिकायत करते हैं तो वह सामाजिक एकात्मकता के अभाव का ही लक्षण माना जाएगा। संघ ने खुले शब्दो मे आरक्षण का समर्थन किया 2014 मे संघ के सरसंघचालक पूजनीय मोहन भगवत जी ने दिल्ली मे डॉ विजय सोनकर शास्त्री द्वरा लिखित पुस्तक विमोचन कार्यक्रम मे कहा “ आरक्षण 100 सालो तक अभी बना रहना चाहिए ,और आगे भी जरूरत हुई तो जारी रहे समाज एकात्म सूत्र मे बन्ध रहा हैं “ ये पंक्तीय आज की प्रस्थतियों मे और महत्व रखती हैं | जबकि संघ को लेकर अनर्गल बातें समाज में चलती रहती है । संघ ने सदेव समरस समाज की बात की और समरसता के विचार को माना संघ मानता है समरसता “ स्वतन्त्रता , समानता , बंधुत्व तीनों को व्यक्ति अपने आचरण मे ले यही समरसता हैं “ सामाजिक समरसता बाबा साहब अम्बेडकर के विचारो का असल अर्थो मे अनुपालन करना हैं , अम्बेडकर ने तीन मानव मूल्यो की बात की स्वतन्त्रता , समानता , बंधुत्व ये तीनों तत्व समाज विकास के लिए अनिवार्य हैं परंतु अम्बेडकर बंधुता को समाज मे लागू होने को सबसे ज्यादा महत्व देते हैं , जब व्यक्ति का व्यक्ति के साथ प्रेम हो उसके दुख मे वो दुखी हो और सुख मे खुद भी परम आनंद को महसूस करे ये बंधुत्व का भाव हैं जिसे कभी क़ानून से नहीं लागू किया जा सकता ये तो पूर्णत: व्यक्ति पर निर्भर है , संघ वर्षों इसी तत्व को व्यक्ति के मन में जागृत करने का कार्य कर रहा हैं। सामाजिक समरसता ये आत्मीयता का भाव पैदा करने का ही काम करता हैं।

(श्री चौधरी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति विषय पर विगत एक दशक से लिख रहे हैं)

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