उंगलबाज पांडेय
रवीश कुमार, एक पत्रकार जिन्हें कभी भारतीय पत्रकारिता का चमकता सितारा माना जाता था, आज अपने दोहरेपन और पक्षपातपूर्ण रवैये के लिए चर्चा में हैं। उनकी पत्रकारिता, जो कभी सामाजिक मुद्दों और सत्ता की जवाबदेही पर केंद्रित थी, अब एकतरफा और कांग्रेस के प्रति अंधी चाटुकारिता का पर्याय बन चुकी है। यह लेख उनके इस दोहरे चरित्र और उनकी पत्रकारीय विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का प्रयास है, विशेष रूप से उनके तुर्की और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति रवैये के संदर्भ में।
रवीश कुमार को 2019 में रैमॉन मेग्सेसे पुरस्कार मिला, जिसे कई लोग उनकी निष्पक्ष और साहसी पत्रकारिता के लिए मानते हैं। लेकिन इस सम्मान के बाद उनकी पत्रकारिता में एक स्पष्ट बदलाव देखने को मिला। उनकी रिपोर्टिंग अब न केवल एकतरफा हो गई है, बल्कि वे बार-बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आलोचना में ही डूबे रहते हैं। यह पक्षपात इतना प्रबल है कि अन्य महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दों, जैसे तुर्की में मानवाधिकारों का हनन या वहां की सरकार की तानाशाही नीतियां, पर वे तब तक नहीं बोलते जब तक इसे भारत की सत्तारूढ़ पार्टी से जोड़ने का मौका न मिले। यह रवैया उनकी पत्रकारीय नैतिकता पर सवाल उठाता है।
उदाहरण के लिए, तुर्की में राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोआन की सरकार ने पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों पर अभूतपूर्व दमन किया है। प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में तुर्की 180 देशों में 149वें स्थान पर है। वहां सैकड़ों पत्रकार जेल में हैं, और सोशल मीडिया पर सेंसरशिप आम बात है। लेकिन रवीश ने इस पर कोई गंभीर वीडियो या विश्लेषण नहीं किया। इसका कारण स्पष्ट है: तुर्की के मुद्दों को उठाने से उन्हें वह राजनीतिक लाभ नहीं मिलता, जो भारत में मोदी सरकार की आलोचना से मिलता है। उनकी यह चुप्पी तब और स्पष्ट होती है, जब वे भारत में प्रेस की स्वतंत्रता पर लंबे-लंबे व्याख्यान देते हैं, लेकिन तुर्की जैसे देशों में पत्रकारों के दमन पर चुप रहते हैं। यह दोहरापन उनकी विश्वसनीयता को और कमजोर करता है।
रवीश की पत्रकारिता में कांग्रेस के प्रति उनकी झलकती चाटुकारिता भी उनकी आलोचना का एक प्रमुख कारण है। वे बार-बार मोदी सरकार के खिलाफ बोलते हैं, लेकिन कांग्रेस शासित राज्यों में भ्रष्टाचार, कुशासन या नीतिगत विफलताओं पर उनकी चुप्पी आश्चर्यजनक है। उदाहरण के लिए, राजस्थान या छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल में हुए विवादों पर उनकी टिप्पणी लगभग न के बराबर रही है। यह एकतरफा रवैया उनकी पत्रकारिता को केवल एक राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा बनाता है।
मेग्सेसे पुरस्कार के बाद रवीश का रवैया और भी विवादास्पद हो गया है। कई लोग मानते हैं कि यह पुरस्कार उनकी पत्रकारीय स्वतंत्रता को बढ़ाने के बजाय उनके लिए एक तरह का वैचारिक जाल बन गया। वे अब केवल उन मुद्दों पर बोलते हैं, जो उनकी छवि को एक खास विचारधारा के साथ जोड़ते हैं। उनकी यह प्रवृत्ति न केवल पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों—निष्पक्षता और तटस्थता—के खिलाफ है, बल्कि यह उनके दर्शकों को भी गुमराह करती है।
रवीश का यह दोहरापन तब और स्पष्ट होता है, जब वे वैश्विक मुद्दों पर अपनी चुप्पी को भारत-केंद्रित आलोचना से ढकने की कोशिश करते हैं। तुर्की जैसे देशों में लोकतंत्र का क्षरण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले और अल्पसंख्यकों का दमन जैसे मुद्दे उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं, क्योंकि ये उनके ‘मोदी-विरोधी’ नैरेटिव को मजबूत नहीं करते। यह उनकी पत्रकारीय नीचता का प्रतीक है, जहां वैश्विक मुद्दों को भी केवल एक स्थानीय राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है।
निष्कर्षतः, रवीश कुमार की पत्रकारिता अब निष्पक्षता से कोसों दूर है। उनकी कांग्रेस के प्रति चाटुकारिता और तुर्की जैसे मुद्दों पर चुप्पी उनके दोहरे चरित्र को उजागर करती है। मेग्सेसे पुरस्कार ने उन्हें एक वैश्विक मंच दिया, लेकिन उनकी पत्रकारीय विश्वसनीयता को बनाए रखने में वे विफल रहे। एक पत्रकार का कर्तव्य है कि वह सत्य को बिना किसी पक्षपात के सामने लाए, लेकिन रवीश की पत्रकारिता अब केवल एक राजनीतिक एजेंडे की गुलाम बनकर रह गई है।