दिल्ली । वैश्विक स्तर पर कई विकासशील एवं अविकसित देशों पर लगातार बढ़ रहे ऋण के दबाव के चलते इन देशों की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव स्पष्टत: दिखाई दे रहा है। इन देशों द्वारा अपने नागरिकों को लम्बे समय तक मुफ्त सुविधाएं उपलब्ध कराना जारी रखा गया है एवं यहां की सरकारों द्वारा अपने आय के साधनों में पर्याप्त वृद्धि नहीं की गई है। नागरिकों को दी जाने वाली सुविधाओं को ऋण लेकर भी जारी रखना अब इन देशों के लिए आत्मघाती निर्णय साबित होता हुआ दिखाई दे रहा है, और आज यह देश दिवालिया होने के मुहाने पर खड़े हैं तथा इन्हें अपना सामान्य प्रशासन चलाने के लिए खर्च करने हेतु भी ऋण लेना पड़ रहा है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक आंकलन के अनुसार, अक्टूबर 2025 में वैश्विक स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद का 98.9 प्रतिशत सार्वजनिक ऋण बकाया है, जो वर्ष 2030 तक 102.3 प्रतिशत तक बढ़ जाने की सम्भावना है। विभिन्न देशों के सार्वजनिक ऋण, आय से अधिक खर्च करने की प्रवृति, अधिक ब्याज दर, आय में कम वृद्धि होना, आदि कारकों के चलते लगातार बढ़ता जा रहा है। विकासशील एवं अविकसित देश अपनी आय में वृद्धि नहीं कर पाते हैं परंतु, उन्हें अपने नागरिकों को विभिन्न सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए खर्च लगातार बढ़ाते रहना होते हैं। इन्हीं कारणों के चलते श्रीलंका, अर्जेंटीना, सूडान, ग्रीस, मालदीव, सेनेगल, आदि देशों में तो आर्थिक आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी थी एवं विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं अन्य वैश्विक वित्तीय संस्थानों द्वारा इन देशों की मदद के लिए आगे आना पड़ा था, अन्यथा यह देश लगभग दिवालिया घोषित होने की स्थिति में पहुंच गए थे। वर्ष 2025 में विश्व के प्रथम 10 देशों में, जिनका ऋण का सकल घरेलू उत्पाद से प्रतिशत सबसे अधिक है, शामिल हैं – जापान (229.6 प्रतिशत), सूडान (221.5 प्रतिशत), सिंगापुर (175.6 प्रतिशत), ग्रीस (146.7 प्रतिशत), बहरीन (142.5 प्रतिशत), इटली (136.8 प्रतिशत), मालदीव (131.8 प्रतिशत), अमेरिका (125 प्रतिशत), सेनेगल (122.9 प्रतिशत) एवं फ्रान्स (116.5 प्रतिशत)।
ग्रीस, घाना, हैती, मोजांबीक, पाकिस्तान, जाम्बिया, फिलिपींस, श्रीलंका, कीन्या, अर्जेंटीना, आदि देशों द्वारा अधिक मात्रा में लिए गए ऋण के चलते इनकी वित्तीय स्थिति डावांडोल हो चुकी है। इन देशों द्वारा अपने खर्चों को व्यवस्थित तरीके से नहीं किया गया था एवं केवल जनता को मुफ्त में सुविधाएं उपलब्ध कराना लम्बे समय तक जारी रखा गया था तथा साथ में आय बढ़ाने के साधनों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। इससे इन देशों का बजटीय घाटा लगातार बढ़ता रहा तथा मजबूरी में इन्हें अपने साधारण सरकारी कामकाज चलाने के लिए भी ऋण लेते रहना पड़ा है। वर्ष 2001 में युगांडा में वित्तीय संकट खड़ा हो गया था एवं उस समय पर युगांडा अपने सामान्य खर्चों को जारी रखने के स्थिति में भी नहीं था।
भारत में भी कुछ राज्य “फ्रीबी” के नाम पर कुछ ऐसी योजनाएं चला रहे हैं जिनके अंतर्गत राज्य की जनता के बिजली एवं पानी के बिल समय समय पर माफ किये जा रहे हैं। किसानों, बुजुर्गों एवं मातृशक्ति के बैंक खातों में सीधे ही कुछ राशि प्रति माह जमा की रही है। जबकि, इन राज्यों की वित्तीय स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि इनके बजट इस अतिरिक्त खर्च को वहन कर सकें। कुछ राज्य तो आज मजबूरी में इन योजनाओं को चलायमान बनाए रखने के लिए बाजार से ऊंची ब्याज दर पर ऋण भी लेने लगे हैं। जिसका प्रभाव इन राज्यों की वित्तीय स्थिति पर विपरीत रूप से पड़ रहा है। यदि समय पर ये राज्य नहीं चेते एवं इन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं किया तो ये राज्य अपने भारी भरकम ऋणों पर ब्याज अदा करने में चूक करने की ओर आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। जाहिर तौर पर जब राज्यों की आर्थिक स्थिति की चर्चा होती है तो इसका असर राज्यों के विकास और इन राज्यों में निवास कर रहे नागरिकों के जीवन पर भी पड़ता है। लोकलुभावन राजनीति इन राज्यों की वित्तीय स्थिति को बहुत बुरे तरीके से प्रभावित कर रही है। भारतीय रिजर्व बैंक के वार्षिक प्रतिवेदन में भी राज्यों की वित्तीय स्थिति को लेकर कई गंभीर पहलु और सवाल खड़े किए गए हैं। विशेष रूप से पंजाब, केरल, झारखंड, राजस्थान और पश्चिम बंगाल आदि राज्य बढ़ते कर्ज के बोझ तले दबे जा रहे हैं और इन राज्यों की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। हाल ही के समय में पंजाब, केरल, राजस्थान, पश्चिम बंगाल एवं बिहार की वित्तीय सेहत बहुत बिगड़ी है।
सभी राज्यों की वित्तीय सेहत का विस्तार से आकलन करने पर ध्यान में आता है कि कई राज्यों द्वारा अनियंत्रित रूप से चलाई जा रही मुफ्त योजनाओं, लोकलुभावन घोषणाओं, अत्यधिक सब्सिडी देने एवं पुरानी पेंशन योजना बहाली से इन राज्यों की वित्तीय सेहत बहुत बुरी तरह से बिगड़ रही है। राज्य, विशेष रूप से सत्ता प्राप्त करने के उद्देश्य से, कई लोकलुभावन घोषणाएं करते हैं जैसे कि बिजली एवं पानी मुफ्त में उपलब्ध कराने का वादा, उर्वरकों पर सब्सिडी प्रदान करने का वादा आदि जिसका सीधा असर राज्य की माली हालत पर पड़ता है। पंजाब की आर्थिक स्थिति पूर्व में ही बहुत गम्भीर अवस्था में पहुंच चुकी है फिर वहां नई सरकार ने किए गए चुनावी वादे अर्थात मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने के अपने वादे पर कार्य करना शुरू कर दिया है जिससे पंजाब की स्थिति निश्चित रूप से और अधिक बिगड़ने जा रही है और पंजाब को ऋण की किश्त एवं ऋणों पर ब्याज अदा करने हेतु भी ऋण लेना पड़ रहा है। किन परिस्थितियों में, कितने प्रकार की, कितनी और किस स्तर तक लोक लुभावन घोषणाएं की जानी चाहिए, इस सम्बंध में अब नियम बनाने का समय आ गया है। वैसे यदि ऋण को उत्पादक कार्यों पर खर्च किया जाय तो अधिक ऋण-सकल घरेलू अनुपात अपने आप में बुराई नहीं है परंतु जब ऋण लेकर इसे अनुत्पादक कार्यों जैसे मुफ्त बिजली एवं मुफ्त पानी उपलब्ध कराने जैसे कार्यों पर खर्च किया जाता है तो इसका राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर बहुत ही बुरा असर पड़ता है। चुनावों के वादे पूरे करने के लिए राज्यों द्वारा ऋण लिए जा रहे हैं। इन्हीं कारणों के चलते पंजाब की आर्थिक हालत आज बहुत ही दयनीय स्थिति में पहुंच गई हैं। देश के कई राज्य आज ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि इन राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक मदद यदि समय पर नहीं पहुंचाई जाती तो इन राज्यों की स्थिति भी आर्जेंटीना, श्रीलंका अथवा ग्रीस जैसी बनती दिखाई देती। कुछ राज्यों की स्थिति तो यह है कि इनके रोजमर्रा के खर्चे चलाने के लिए उनकी कुल आय का 90 प्रतिशत भाग इन खर्चों पर उपयोग हो जाता है जिसके परिणाम स्वरूप राज्य के विकास कार्यों पर खर्च करने को कुछ बचता ही नहीं है। अब इन राज्यों की आय कैसे बढ़े? इन राज्यों द्वारा लगातार की जा रही लोक लुभावन घोषणाओं के कारण इन राज्यों के खर्चे लगातार अनियंत्रित रूप से बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह के खर्चों को करने के लिए नित नए ऋण लिए जा रहे हैं और इन ऋण राशि का उपयोग उत्पादक कार्यों में नहीं लगा पाने के कारण ये राज्य अपनी आय में वृद्धि भी नहीं कर पा ररही हैं। इस प्रकार ये राज्य “डेट ट्रैप” की स्थिति में फंसते जा रहे हैं। आय का 25 से 30 प्रतिशत भाग ऋण का ब्याज भुगतान करने में ही खर्च हो रहा है। पंजाब तो अब आर्थिक मदद के लिए केंद्र सरकार से लगातार गुहार लगा रहा है। इसी तरह राजस्थान, केरल, पश्चिम बंगाल एवं बिहार की स्थिति भी बिगड़ रही है। अगर राज्य पूंजीगत खर्च नहीं कर रहे हैं तो अपना भविष्य अंधकारमय बना रहे हैं। इस प्रकार तो भविष्य में इन राज्यों की विकास दर भी रुक जाने वाली है।
विभिन्न राज्यों के वित्तीय घाटे की स्थिति एवं प्रवृत्ति पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर इस पर रोक लगने का समय अब आ गया है। उत्पादक कार्यों पर सब्सिडी दी जाय तो ठीक है परंतु यदि यह लोक लुभावन वायदों को पूरा करने पर दी जा रही है तो इन पर अब अंकुश लगाया जाना चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा आगे बढ़कर इस सम्बंध में कुछ नियम जरूर बनाए जाने चाहिए। यदि इन राज्यों की वित्तीय स्थिति लोक लुभावन घोषणाओं को पूरा करने की नहीं है तो, इस प्रकार की घोषणाएं चिन्हित राज्यों द्वारा नहीं की जानी चाहिए, ऐसे नियम बनाए जाने चाहिए। सहायता की राशि केवल चिन्हित व्यक्तियों को ही प्रदान की जानी चाहिए न कि राज्य की पूरी जनता को उपलब्ध करायी जाय। जैसा कि बिजली माफी योजना के अंतर्गत किया जा रहा है। राज्य के समस्त परिवारों को 330 यूनिट बिजली मुफ़्त में उपलब्ध कराए जाने के प्रयास हो रहे हैं। यदि राज्य की आर्थिक हालत बिगड़ रही है तो इसका खामियाजा भी अंततः उस प्रदेश की जनता को ही भुगतना पड़ता है। यह राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, आदि मदों पर होने वाले खर्च में कटौती करते हैं, जो राज्य के आर्थिक विकास एवं भविष्य में आने वाली पीढ़ी के लिए ठीक नहीं है। राज्य में आर्थिक विकास की गति कम होने से इन राज्यों में रोजगार के अधिक अवसर भी निर्मित नहीं हो पा रहे है।



