पौष शुक्ल पंचमी (9 दिसम्बर) 1915 : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस का जन्म

01_10_2025-rss1_24066262.webp.jpeg.webp

भोपाल । निरंतर हमलों के बीच भी यदि अपनी शताब्दी यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वरूप और कार्य में निरंतर निरंतर विस्तार हुआ है तो उसका आधार संघ की समयानुकूल व्यवहारिक कार्यशैली है। तृतीय सरसंघचालक बालासाहब जी देवरस भी संघ की कार्यशैली में ऐसे ही व्यवहारिक विस्तार देने के लिये जाने जाते हैं। उनकी प्रत्येक भोपाल यात्रा में संघ कार्य में विस्तार हुआ कार्यकर्ताओं में नया उत्साह आया ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई और लगभग डेढ़ वर्ष बाद नियमित शाखाएँ आरंभ हुईं। देवरसजी प्रारंभिक शाखा में ही स्वयंसेवक बने थे। तब उनकी आयु मात्र ग्यारह वर्ष थी। इस शाखा का शुभारंभ संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जी ने स्वयं किया था। इस प्रथम शाखा में बालासाहब के साथ केशवराव वकील, त्र्यंबक झिलेदार, अल्हाड़ जी अंबेडकर, बापू रावदिवाकर, नरहरि पारखी, बाली यशकुण्यवर, माधवराव मुले और एकनाथ रानाडे भी थे। बाला साहब बचपन से बहुत कुशाग्र और तीक्ष्ण बुद्धि थे। विषय को सुनकर प्रस्तुतिकरण करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। इसलिये वे इस टोली के स्वभाविक समन्वयक के रूप में उभरे । डाॅक्टरजी स्वयं इस शाखा के शिक्षक और संचालक थे। इस टोली की पूरी शिक्षा डॉक्टरजी के माध्यम से ही हुई। देवरसजी के विषय प्रस्तुतिकरण में भी डॉक्टरजी की झलक साफ होती थी। समय के साथ संघ की संकल्पना, शिक्षा और डाक्टरजी के मार्गदर्शन से वे इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने संघ को माध्यम बनाकर अपना पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति की सेवा केलिये समर्पित कर दिया। देवरसजी द्वारा प्रस्तुत विषयों में गहराई और व्यापकता बहुत विशिष्ट थी। श्रोता वर्ग एकाग्रता के साथ उनसे बंध जाता था। भले कोई स्वयं सेवक हों अथवा समाज के अन्य प्रबुद्ध जन, सभी एकाग्र होकर उनका बौद्धिक सुनते थे। उन्होंने प्रचारक से लेकर सरसंघचालक तक संघ के सभी दायित्वों का निर्वाहन किया। उन्होंने भारत के प्रत्येक प्राँत और क्षेत्र की यात्रा करके कार्य को विस्तार दिया। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीसरे सरसंघचालक थे। द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य “गुरुजी” जी का निधन 5 जून 1973 को हुआ। संघ की परंपरानुसार प.पू. गुरूजी संसार से विदा होने से पहले पत्र लिखकर देवरसजी को अपना उत्तराधिकार सौंप गये थे।

और उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप देवरसजी ने 6 जून 1973 को तृतीय “सरसंघचालक” का दायित्व संभाला। तब उनकी आयु 58 वर्ष थी। मधुमेह रोग ने भी उन्हें प्रभावित कर लिया था। फिर भी उन्होंने अपने शरीर और स्वास्थ्य की कोई परवाह नहीं की और देश व्यापी यात्रा करते रहे। उन्हीं दिनों भारत में मँहगाई विरोधी आँदोलन आरंभ हुआ था। यह आँदोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहा था। जन सामान्य को मँहगाई से राहत दिलाने के इस आँदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता बढ़ चढ़ भाग ले रहे थे। देवरसजी ने देशभर की व्यापक यात्राएँ की और राष्ट्रहित केलिये संपूर्ण समाज को एकजुट होने का आव्हान किया। उनकी इन यात्राओं से समाज में संघ को लेकर वे भ्रांत धारणाएँ स्पष्ट होने लगी जो कतिपय संघ विरोधी शक्तियों ने फैला रखीं थीं। उनकी इन यात्राओं से संघ के कार्यकर्ताओं में उत्साह आया कार्य विस्तार भी हुआ। मंहगाई विरोधी आँदोलन में संघ कार्यकर्ता एक बड़ी शक्ति थे। इस तथ्य से सरकार भी अवगत हो गई थी। इसलिये संघ के अधिकारियों की निगरानी बढ़ी। परिस्थितियों को देखकर देवरस जी को यह आभास हो गया था कि प्रधानमंत्री श्रीमती गाँधी कोई कड़ा निर्णय ले सकतीं हैं। उन्होंने अपने आकलन से संघ के सभी प्रमुख अधिकारियों को सावधान कर दिया था। इंदिराजी ने आपातकाल लगाया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा और सर्वाधिक दमन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं का हुआ। यह देवरसजी की दूरदृष्टि और समय से पूर्व उठाये गये कुछ कदम थे कि देशभर में एक लाख स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी होने के बाद भी संघ की सक्रियता बनी रही। आँदोलन और गिरफ्तारियों का क्रम आपातकाल की पूरी अवधि चला। और आपातकाल हटने के तुरन्त बाद संघ पुनः अपनी गति से काम करने लगा ।

कुछ परंपराओं को व्यवहारिक बनाया

बालासाहब देवरस जी ने संघ की कुछ परंपराओं को समयानुकूल व्यवहारिक भी बनाया। इसमें सबसे पहले था “परम पूज्यनीय” संबोधन। जब उन्हें “परम पूजनीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस” संबोधित किया गया तो उन्होंने स्पष्ट किया कि “परम् पूज्यनीय” संबोधन केवल “सरसंघचालक” दायित्व के लिये हो, व्यक्ति के लिये नहीं।
बालासाहेब देवरस ने बौद्धिक परंपरा को भी उभय पक्षीय बनाया और विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के साथ संवाद की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया । उनका मानना था कि यदि स्वयंसेवकों के मन में कोई प्रश्न उठ रहा है तो इसका समाधान होना चाहिए। इसलिये बौद्धिक समागम में शंका समाधान के लिये भी समय रहे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सरसंघचालक का दायित्व सौंपने की एक परंपरा थी। सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी का चयन करके एक पत्र लिखकर रख देते थे। यह उनके निधन के बाद खोला जाता था। डाॅक्टरजी के निधन के बाद उनका पत्र पढ़ा गया। और उनके अनुसार ही “गोलवलकर जी उपाख्य गुरुजी” को सरसंघचालक का दायित्व सौंपा गया और “गुरूजी” के पत्र के आधार पर यह दायित्व बालासाहब देवरस जी को मिला। लेकिन देवरस जी ने इस परंपरा में एक परिवर्तन किया। उन्होंने अपने जीवन काल में ही सरसंघचालक का दायित्व रज्जू भैया को सौंप दिया था। उनके बाद रज्जू भैया ने भी इस परम्परा का पालन किया करके अपने जीवनकाल में ही सुदर्शन जी को सरसंघचालक का दायित्व सौंप दिया था। सुदर्शन जी ने भी इसी परंपरा का पालन किया और अपने जीवन काल में ही यह दायित्व वर्तमान सरसंघचालक डा मोहन भागवतजी सौंप दिया था।

देवरसजी की कुछ प्रमुख भोपाल यात्राएँ

अपनी देश व्यापी यात्राओं के क्रम में वे अनेक बार भोपाल आये। सरसंघचालक के रूप में भी और इससे पहले सरकार्यवाह एवं सहसरकार्यवाह के रूप में भी। उनके कुछ प्रमुख कार्यक्रमों एक आयोजन सरस्वती शिशु मंदिरों के विद्यार्थियों का समागम था । यह आयोजन तात्या टोपे नगर भोपाल के स्टेडियम में हुआ था। इसमें लगभग चार से अधिक बच्चे थे। नगर प्रबुद्धजनों की संख्या भी बहुत अधिक थे। इस समागम में देवरसजी ने हिन्दुत्व और सामाजिक स्वरूप की व्याख्या की थी। देवरसजी आधुनिकता के समर्थक तो थे लेकिन अपने स्वत्व एवं आत्म गौरव के साथ। उनका मानना था स्वत्व व्यक्ति का मूल है। जो अपने मूल से जितना गहरा जुड़ा होगा वह आकाश की उतनी ही ऊँचाई तक जा सकता है। अपने प्रबोधन में उन्होंने यही बात समझाने का प्रयास किया था।उनके संबोधन में दो धाराएँ बहुत स्पष्ट थीं। एक आव्हान बच्चों और किशोरों से था। उन्होंने उभरती पीढ़ी से सैद्धांतिक अडिगता के साथ समय के अनुरूप व्यवहारिक होने का संदेश दिया। जबकि समाज के वरिष्ठ और प्रबुद्ध जनों से भ्रांत धारणाओं से मुक्त होकर आगामी पीढ़ी को समाज के मूल स्वरूप से परिचित कराने का आव्हान किया। उनके व्याख्यान में हिन्दुत्व की व्याख्या के उदाहरण इतने प्रभावशाली थे कि आगामी दिनों में प्रबुद्ध जनों के विमर्श में प्रमुख विन्दु बने। उनकी एक अन्य यात्रा भोपाल स्थित वर्तमान भारत माता चौराहे के समीप भदभदा रोड पर भारतीय मजदूर संघ और विद्यार्थी परिषद भवन के भूमि पूजन के निमित्त बनी। इस आयोजन में भी संघ से सम्बद्ध कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त नगर प्रबुद्ध जनों को भी आमंत्रित किया गया था। कार्य व्यवहार की दृष्टि से देंखे तो मजदूर संघ और विद्यार्थी परिषद दो अलग धाराएँ हैं पर देवरस जी का संबोधन दोनों संस्थाओं के लिये प्रेरक रहा। वे अपनी एक यात्रा में उन्होंने भोपाल के पत्रकारों से पृथक भेंट की थी। यद्यपि उनके सार्वजनिक आयोजनों में प्रबुद्ध जनों के साथ पत्रकार भी होते थे। भोपाल के कुछ पत्रकारों ने उनके साथ भोजन भी किया है। उनका तर्कशील प्रबोधन और विषय का प्रस्तुतिकरण सदैव प्रभावी रहा।

संक्षिप्त जीवन परिचय

बालासाहब देवरस जी का पूरा नाम मधुकर दत्तात्रेय देवरस था लेकिन वे बालासाहेब देवरस के नाम से जाने गये। परिवार यद्यपि आन्ध्रप्रदेश का मूल निवासी था। लेकिन पिता दत्तात्रेय जी शासकीय सेवा के चलते मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में रहे। बालासाहब का जन्म मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में हुआ। इस नाते उन्हें मध्यप्रदेश से बहुत लगाव था। उनका जन्म स्थान बालाघाट जिले में करंजा नामक स्थान था। उनकी जन्म तिथि पौष शुक्ल पक्ष की पंचमी और विक्रम संवत 1972 था। जबकि ईस्वी कैलेंडर के अनुसार उनकी जन्मतिथि 11 दिसम्बर 1915 थी । इस वर्ष पौष शुक्ल पंचमी तिथि 9 दिसम्बर को पड़ रही है। पिता दत्तात्रेय कृष्णराव देवरस और माता पार्वती बाई दोनों भारतीय परंपराओं और मान्यताओं के लिये समर्पित थे । उनके जन्म के साथ ही पिता का स्थानान्तर नागपुर हो गया। इसके चलते बालासाहब की शिक्षा नागपुर के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में हुई। उन्होंने 1931 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। नागपुर महाविद्यालय से वकालत पास की ।

वे बाल स्वयंसेवक थे । पढ़ाई पूरी करके संघ के प्रचारक बने । प्रचारक के रूप में संघ कार्य विस्तार केलिये उन्हे पहला दायित्व बंगाल का मिला। 1946 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के का सहसरकार्यवाह और 1965 सरकार्यवाह बने। 6 जून, 1973 को संघ के सरसंघचालक बने । उनके दायित्व संभालने के दो साल बाद ही देश में 25 जून 1975 को आपातकाल लागू हो गया 30 जून को देवरसजी गिरफ्तार कर लिये गये। उन्हें यरवदा जेल में रखा गया। 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा जो 1977 तक जारी रहा। 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हुआ और देवरसजी सहित संघ के अन्य कार्यकर्त्ता रिहा हो सके। आपातकाल के दौरान देवरस जी 20 महीनों से भी अधिक समय तक जेल में रहे।

सरसंघचालक के रूप में उनके कार्यकाल में संघ पर दूसरी बार प्रतिबंध 1992 में लगा। यह अयोध्या में विवादास्पद बाबरी ढांचा ढहने के बाद 10 दिसंबर 1992 को नरसिम्हा राव सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगाया था जो छै माह तक लगा रहा था । बालासाहेब 1994 तक सरसंघचालक रहे। स्वास्थ्य की गिरावट के कारण उन्होंने पद छोड़ दिया और प्रो. राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया को संघ का सरसंघचालक नियुक्त कर दिया था। समय अपनी गति से आगे बढ़ा और 17 जून 1996 को देवरसजी ने देह त्यागकर संसार से विदा ले ली ।

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top