डॉ शिवनन्दन
किरोड़ीमल कॉलेज
युवक वही जो तूफानों से टकराना जाने
दीपक वही जो अंधेरों में जलना जाने
यह पंक्ति युवा के सामर्थ की ओर संकेत कर रहा है। जो केवल शक्ति से ही नहीं अपितु चरित्र, अनुशासन और राष्ट्रभक्त से पूर्ण हो। क्योंकि केवल शक्ति का होना व्यक्ति को अनैतिक और अधर्म के मार्ग पर ले जाता है। और उस शक्ति को साधने के लिए अनुशासन की जरूरत है और यह अनुशासन या मूल्य हमें एक दिन में नहीं मिलता और ना ही हम खरीद सकते हैं। हम इसे धीरे-धीरे घर परिवार या समाज से सीखते हैं। समाज ही युवाओं को एक अच्छे संस्कार से परिपूर्ण कर सकता है। इस दिशा में समाज भिन्न-भिन्न रूपोंमें लगा हुआ है या युवाओं को नेतृत्व कराने का प्रयास करता है। ऐसे ही राष्ट्रीय स्वयं संघ भारत के युवाओं को इस रूप में करने का कार्य दशकों से कर रहा है। जब देश एक नए भारत की परिकल्पना कर रहा है। जो आत्मनिर्भर, सशक्त, समावेशी और सांस्कृतिक रूप से जागरूक हो तब यह आवश्यक है कि नेतृत्व की बागडोर ऐसे युवाओं के हाथों में हो जो केवल कैरियर नहीं, अधिकार ही नहीं अपितु अपने कर्तव्य में विश्वास करते हो।कर्म और उत्तरदायित्व की प्रधानता रखते हो।
युवा शक्ति भारत की सबसे बड़ी पूंजी
भारत युवाओं का राष्ट्र है कुल आबादी का लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा 35 साल से कम उम्र का है। यह जनसांख्यिकीय लाभ तभी सार्थक है। जब इस ऊर्जा को रचनात्मक दिशा में लगाया जाए। इसी दिशा में संघ ने अपने स्थापना से ध्यान केंद्रित किया हुआ है। परम पूजनीय डॉक्टर साहब ने संघ की शुरुआत बच्चों से ही की थी और प्रमुखता युवाओं को ही केंद्र में रखे थे।उन्हें यह पता था कि राष्ट्र का निर्माण युवाओं के हाथ में है। युवाओं को संस्कारित करना जरूरी है। इसलिए नागपुर के बाद शाखों का विस्तार विश्वविद्यालय और कॉलेज के आसपास के क्षेत्र में ज्यादा हुआ। संघ ने स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक युवाओं को संगठित, संस्कारित और समर्पित करने का कार्य किया है। संघ का मानना है कि यदि युवाओं का सही मार्गदर्शन किया जाए तो वह सिर्फ अपने लिए ही नहीं अपितु राष्ट्र के लिए जीने वाले नागरिक बन सकते हैं। और नित्य प्रति प्रार्थना में सभी भारत के परम वैभव के प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते हैं। जो युवाओं को राष्ट्र प्रेम की भावना से ओत-प्रोत करता है।
RSS की युवा नीति : विचार से व्यवहार तक
आरएसएस केवल संगठन ही नहीं है अपितु यह एक जीवन शैली है। क्योंकि आरएसएस के जो कार्य है वह सभी हमारे परंपरा और संस्कृति से हैं। चुकी परंपरा और संस्कृति हमारे जीवन का अंग है। हमारे सनातन परंपरा से लिए गए हैं। RSS उन्हीं मूल्यों को लोगों में जागने का प्रयास करता है। जो भारतीय दर्शन से पुष्पित और पल्लवित हुए हैं। RSS की युवा नीति स्पष्ट है युवाओं को सद्गुणों से पूर्ण करना, न कि नेता बनना। हां लेकिन नित्य प्रति जो शाखा आता है उसमें सत्चरित्र, संवाद की शैली, शारीरिक रूप से सुदृढ़ और नेतृत्व की शैली स्वतः ही विकसित हो जाती है। आरएसएस व्यक्तित्व निर्माण पर बल देता है। व्यक्तित्व निर्माण केवल व्यक्तिगत विकास का कार्य नहीं है। बल्कि यह राष्ट्र निर्माण का आधार है। संघ का मानना है कि यदि व्यक्ति नैतिक, चरित्रवान, अनुशासित और राष्ट्रभक्त होगा तो वह समाज और राष्ट्र के लिए एक मजबूत आधारशिला बन सकता है। ऐसे व्यक्ति में चरित्र निर्माण, राष्ट्रीय चेतना का विकास, शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास, सेवा और त्याग की भावना, संगठित जीवन और अनुशासन, संस्कार और संस्कृति के प्रति आदर जैसे गुण को देखने को मिलता है।
“हजारों लाखों चरित्रवान व्यक्तियों का संगठन ही भारत को पुनः एक विश्व गुरु बन सकता है”
व्यक्तित्व निर्माण एक सतत प्रक्रिया के तहत होता है जिसे परम पूजनीय डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने भारत के महापुरुषों की सोच को आधार बनाकर युवाओं को विचारशीलता, सेवा और संगठन कौशल में प्रशिक्षित करने की योजना बनाई और यह योजना शाखा के रूप में देखने को मिलता है।
शाखा
संघ मतलब शाखा, अगर संघ को जानना है तो शाखा आना होगा। अब प्रश्न है की शाखा क्या है? शाखा संघ की वह मूल इकाई है जहां लोग एक दूसरे से आत्मीयता से जुड़ते हैं। शाखा एक प्रशिक्षण स्थल है जहां पर नित्य प्रति एक निश्चित समय पर कुछ लोगों का समूह परम पवित्र भगवान ध्वज (गुरु)के संरक्षण में खेल खेलते हैं। और यह खेल शारीरिक तथा मानसिक दोनों होते हैं। प्रतिदिन नियमित शाखा में खेलों के माध्यम से व्यक्ति में अनुशासन,धैर्य, टीम की भावना इत्यादि का विकास होता है।
यह शारीरिक प्रशिक्षण केवल स्वास्थ्य के लिए ही नहीं बल्कि संकट की घड़ी में तत्परता और सामूहिक चेतना के विकास का माध्यम भी है। चूंकि खेल के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। कुछ खेल ऐसे हैं जिनके माध्यम से संगठन या आपदा के समय में सामूहिक रूप से काम करना सिखते हैं। इसी के साथ शाखाबौद्धिक कालांश में भी विभाजित होती है।
बौद्धिक विकास में भी शाखा का एक प्रमुख हिस्सा है क्योंकि नेतृत्व के गुण एक दिन में नहीं आते। लेकिन सतत अभ्यास से जरूर आते हैं। इसलिए बौद्धिक के लिए शाखा में अलग कालांश होता है। जिसमें अमृत वचन,सुभाषित, गीत, कविता, मूल्य या किसी भी मुद्दों पर बात रखना शामिल होता है। तथा समय-समय पर प्रवास के माध्यम से भी बौद्धिक विकास में सहयोग मिलता है। और शाखा के सुदृढ़ीकरण हेतु बीच-बीच में प्रशिक्षण भी मिलता है।
नैतिकता और संस्कृति : संघ का मूल्य आधारित मॉडल
आज जब वर्तमान में नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है। तो संघ युवाओं को भारतीय संस्कृति से जोड़ने का कार्य कर रहा है। संघ का दृष्टिकोण केवल धार्मिक नहीं बल्कि धर्म आधारित नैतिक जीवन का है। यहां धर्म का अर्थ केवल कर्मकांड या पूजा पाठ ही नहीं अपितु संघ कर्तव्य, सच्चाई और सेवा पर बल देता है। क्योंकि भारतीय संस्कृति में लोगों के कर्मकांड अलग हो सकते हैं लेकिन उनके मूल्यों और कर्तव्यों में कोई असमानता नहीं दिखती। सभी भारतीय मतों के परम तत्व पहुंचने के रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं। परंतु उन सब का मानना है कि परम तत्व एक ही है(एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति)। और उस तक पहुंचने के लिए सभी ने प्रेम, करुणा, मैत्री, दया, सेवा,वसुधैव कुटुंबकम्, अद्वैत या अद्वैवाद तथा संपूर्ण जगत एक ही धरती मां की संतान है इत्यादि भावना को स्वीकार किया है। यही धर्म है जिसेव्यक्ति को धारण करने के लिए गीता, उपनिषद, बौद्ध (एस धम्मो सनंतनो- धम्मपद), जैन, आदि ने सुझाव दिए हैं। यही भारतीय संस्कृति की सुंदरता है, यही आध्यात्मिकता है। इसे संघ ने अपनी आत्मा माना है और इसे ही युवाओं में विकास करने का लक्ष्य ले रखा है। और यही परम वैभव प्राप्ति का मार्ग हो सकता है।
नेतृत्व निर्माण की प्रयोगशाला
उपरोक्त गुणों का विकास अचानक नहीं होता किंतु इसका विकास धीरे-धीरे होता है और यह खेल-खेल में हम इन सभी मूल्यों और नेतृत्व के गुण को सीख लेते हैं और हमें पता भी नहीं चलता। संघ के हर एक कार्य और हर एक खेल के पीछे कोई नहीं कोई उद्देश्य छिपा होता है। हो सकता है वह तात्कालिक या दूरगामी परिणाम दे।यही से स्वयंसेवक सेवा, नेतृत्व के गुण, संगठन कौशल, अनुशासन और जनसंपर्क जैसी जीवनोपयोगी योग्यताओं को आत्मसात करता है। यहां नेतृत्व किसी पद या अधिकार से नहीं बल्कि सेवा और समर्पण से उपजता है।
संघ में प्रत्येक कार्यकर्ता किसी-न-किसी स्तर की जिम्मेदारी निभाता है। इस जिम्मेदारी के अनुभव से उसमें निर्णय लेने की क्षमता, अनुशासन और लोगों के साथ समन्वय बिठाने का कौशल विकसित होता है। संघ द्वारा हर वर्ष आयोजित होने वाले प्रशिक्षण वर्ग (Training Camps) इसका प्रमुख माध्यम हैं, जहाँ हजारों युवाओं को स्वयं के भीतर छिपे नेतृत्व को पहचानने और निखारने का अवसर मिलता है।
इन शिविरों में केवल भाषण नहीं होते, बल्कि अनुशासित जीवन, श्रम, सेवा और सहभागिता के माध्यम से नेतृत्व के व्यावहारिक पहलुओं को सिखाया जाता है। यही कारण है कि संघ में जो स्वयंसेवक वर्षों तक निस्वार्थ सेवा करता है, वही संगठन में उच्च दायित्वों तक पहुँचता है — बिना किसी प्रचार या प्रदर्शन के।
सेवा: नेतृत्व की पहली शर्त
संघ का स्पष्ट मत है कि “नेतृत्व सेवा से आता है, अधिकार से नहीं।” यह विचार केवल एक आदर्श नहीं, बल्कि संघ के हर कार्य में व्यावहारिक रूप से देखा जा सकता है। जब-जब देश पर संकट आया है, संघ के स्वयंसेवक मूक सेवकों की तरह अग्रिम पंक्ति में खड़े नजर आए हैं।
कोविड-19 महामारीके दौरान लाखों स्वयंसेवकों ने जरूरतमंदों तक भोजन, दवाइयाँ और सहायता पहुँचाई — बिना मीडिया प्रचार के। केरल की बाढ़ और उत्तराखंड आपदा जैसी घटनाओं में राहत शिविर, दवा वितरण और पुनर्वास कार्यों में संघ की तत्परता ने साबित किया कि सेवा ही उनका धर्म है।
भविष्य
वर्तमान की Gen Z बच्चे जो सोशल मीडिया, मोबाइल, लैपटॉप आदि विचलित करने वाली वस्तुओं में ज्यादा समय व्यतीत कर रहे हैं। आज हर मां-बाप सोचता है कि उसके बच्चे को एक सही दिशा मिले परंतु हो नहीं पता। क्योंकि जब परिवार समूह में रहते थे। तो घर में बच्चों को मूल्यात्मक शिक्षा देने का कार्य घर के बड़े-बुजुर्ग, दादा-दादी या नाना- नानी करते थे। लेकिन वर्तमान में भारतीय समाज भी एकल परिवार की ओर बढ़ रहा है। जहां माता-पिता दोनों काम में व्यस्त हैं तो उनके नवनिहालों को सही-गलत, उचित- अनुचित की दिशा कौन दे? यह भी देखने को मिलता है कि बच्चों को शांत रखने के लिए उसे मोबाइल देते हैं। बिना मोबाइल के बच्चे खाना नहीं खा रहे हैं इत्यादि। कई सारी समस्याएं जन्म ले रही हैं। इन समस्याओं को देखते हुए संघ ने पंच परिवर्तन में कुटुंब प्रबोधन को ले रखा है। बच्चों में मोबाइल के लत से परेशान माता-पिता भी संघ की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
ऐसा भी नहीं है कि संघ आधुनिकता का विरोधी है। संघ यह दिखता है कि भारतीय परंपरा और आधुनिकता एक दूसरे के पूरक है। संघ एक ओर जहां भगवान ध्वज और प्राचीन मूल्यों को संजोए रखता है तो वहीं दूसरी ओर युवाओं को तकनीकी रूप से दक्ष बनाकर एक समृद्ध भारत की नींव रख रहा है। एक शताब्दी में संघ अपने अभियान में समय और काल के साथ टेक्नोलॉजी और उसके प्रति दीवानी युवा पीढ़ी के साथ तालमेल बिठा रखने के लिए खुद को समय-समय पर ढालने की भी कोशिश की है। जिस समय दुनिया में Gen Z चर्चा में है। उस समय संघ इस वर्ग में बहुत ही सक्रियता के साथ सकारात्मक रूप से कदम ताल कर रहा है। इसके लिए शाखा, मंथन, YUVA (Youth United for Vision and Action), आईटी मिलन,स्टार्टअप सहयोग, नवाचार शिवरों तथा संघ के प्रकल्पों प्रचार, प्रसार, सेवा के माध्यम से युवा जुड़ रहे हैं। इस कार्यक्रमों के माध्यम से युवा तकनीकी के जरिए समाज सेवा और राष्ट्र निर्माण की दिशा में प्रेषित हो रहे हैं।
आज भारत जब ‘विकसित राष्ट्र’ बनने की ओर अग्रसर है, तब उसे ऐसे नेताओं की आवश्यकता है जो केवल बुद्धिमान या तकनीकी रूप से दक्ष न हों, बल्कि जिनमें संस्कार, सेवा और संयम हो। यह नेतृत्व किसी कोर्स या डिग्री से नहीं, बल्कि संघ जैसी प्रयोगशालाओं से निकलता है। और संघ के शताब्दी वर्ष में व्यक्तित्व निर्माण की प्रयोगशाला में संघ की शुरुआत जहां मात्र 17 स्वयंसेवक से हुई थी आज वही देश भर में साप्ताहिक 32000 बैठकों के अलावा प्रतिदिन 83000 से अधिक शाखा लग रही है।
संघ ऐसे युवाओं को गढ़ता है, जिनमें शक्ति हो पर अहंकार नहीं आत्मविश्वास हो पर दिखावा नहीं और सबसे बढ़कर, ”राष्ट्र सर्वोपरि” की भावना हो।
(लेखक दिल्ली विश्व विद्यालय में शोध छात्र हैं)



