शब्दों की सुनामी में अर्थ का अकाल सूचना की ओवरलोडता से संप्रेषण की

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दिल्ली । शब्द बाण की तरह होते हैं, जो एक बार चल जाएँ, तो वापस नहीं आते — आज के डिजिटल दौर में हम सूचना के महासागर में गोते तो खूब लगा रहे हैं, पर ज्ञान का मोती शायद ही किसी के हाथ आता है। सोशल मीडिया, डिजिटल न्यूज़ प्लेटफॉर्म्स, रील्स और शॉर्ट्स की चकाचौंध में संवाद की गरिमा, सुकून और विचारों की गहराई कहीं पीछे छूटती जा रही है। कभी जिसे ‘वाक्-संयम’ कहा जाता था, आज वही बड़बोलापन बनकर हर स्क्रीन पर नाच रहा है।

हर ओर शब्दों की ओवरलोडता है—content overload—मगर उनमें न रस है, न राग, न रचना। एक समय था जब ऋषि-मुनियों की वाणी में गागर में सागर समा जाता था। आज हमारे पास सागर भर डेटा है, पर गागर भर भी दृष्टि नहीं। साहित्यिक विमर्श अब बुक लॉन्च इवेंट्स और ट्रेंडिंग हैशटैग्स के नीचे दब चुका है।आजकल, लिटरेचर फेस्टिवल्स की धूम है। जिन लेखकों की किताबों को कोई खरीद कर पढ़ता नहीं है, वो इन उत्सवों में ज्ञान के नाम पर भड़ास उगलते हैं। अभी पिछले हफ्ते मैसूर में हुए फेस्टिवल में लेखकों की भाषण प्रवीणता से high society, page three crowd, बेहद प्रभावित हुआ।

सोशल मीडिया की वजह से पत्रकारों से ज्यादा महत्व influencers को मिल रहा है। प्रसिद्ध अंग्रेज़ चिंतक फ्रांसिस बेकन ने कहा था, “Knowledge is power.” आज इस गूढ़ सत्य की जगह ले ली है “कैप्शन मारो और वायरल हो जाओ” की सोच ने।

हर क्षण, हर मिनट, लाखों ट्वीट्स, इंस्टा स्टोरीज़ और वीडियोस अपलोड हो रहे हैं। पर क्या उनमें किसी नयी दृष्टि की झलक है? प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी का कथन यहाँ बिल्कुल सटीक बैठता है— “विस्फोट से बुद्धि कुंद और विवेक शून्य हो रहा है।”

आज का पाठक जानकारी से तो लबालब है, मगर ज्ञान से अनाथ। “अति कथन” का यह काल तर्कहीनता की महामारी बन चुका है। एक समय तुलसीदास ने केवल एक चौपाई में सम्पूर्ण जीवन-दर्शन कह डाला था— “परहित सरिस धर्म नहि भाई, पर पीड़ा सम नहि अधमाई।” पर आज की पीढ़ी को 15 सेकंड में समझाया न जाए तो उसे बोरियत लगती है।

भाषा अब केवल संवाद का माध्यम नहीं रही, वह एक सोशल स्टेटस बन गई है। वायरल होने की भूख ने सृजन की आत्मा को निगल लिया है। युवा लेखिका मुक्ता गुप्ता ने सटीक कहा— “सड़क की भाषा में साहित्य लिखकर अच्छे PR से अवार्ड्स मिल जाते हैं। फिर जरूरत क्या कि जंगल या हिमालय की कंदराओं में जाकर मनन करो, तप करो, तब जाकर मां सरस्वती प्रसन्न हों।”

सही में, आज साहित्य भी बाजार का उत्पाद बन गया है, जहाँ कंटेंट की गुणवत्ता नहीं, बल्कि उसकी बिक्री मायने रखती है।भारतीय ऋषियों से लेकर सुकरात और अरस्तू तक, सभी ने गूढ़ चिंतन को छोटे सूत्रों में पिरोया। “देह को ढँको ताकि आत्मा उघड़ सके”। जैसी उक्ति सम्पूर्ण जीवन-दर्शन को समेटे हुए है।

लेकिन आजकल लेखक “शब्दजाल” में फँसे हैं—जहाँ शब्द तो हैं, पर अर्थ नहीं, भावनाएँ हैं, पर अनुभूति नहीं। अध पके ज्ञान को आज का सोशल मीडिया memes में बदल चुका है। साहित्य की सफलता उसकी “शेल्फ लाइफ” से आँकी जाती है। लेखक बुक लॉन्च के मंचों पर तो हैं, पर विचारों की प्रयोगशाला में नहीं। प्रकाशक को “बेस्टसेलर” चाहिए—ऐसा नहीं जो समय को पार कर जाए, बल्कि जो समय के साथ बिक जाए।

किसी लेखक ने बहुत सुंदर कहा— “शेक्सपियर या तुलसीदास आज होते तो उन्हें भी बुक ट्रेलर और ट्विटर पर रील्स बनाने को कहा जाता।”

आज के लेखकों, पाठकों और समाज को यह निर्णय करना है कि वे रील्स की चमक में खो जाना चाहते हैं, या शब्दों की लौ से आत्मा को प्रकाशित करना। वरना इस “सूचना विस्फोट” में कहीं ऐसा न हो कि शब्द तो रह जाएँ, पर उनका अर्थ खो जाए।

वर्तमान दौर में, “अति-कथन” संप्रेषण का एक प्रमुख लक्षण बन गया है। गुजरे युग के मनीषियों ने सूत्रों और दोहों में गहन विचार व्यक्त किए, जिन पर आज शोधकर्ता ग्रंथ लिखते हैं। तुलसीदास की रामचरितमानस या कबीर के दोहे इसका जीवंत उदाहरण हैं। इन रचनाओं में संक्षिप्तता के साथ गहन दार्शनिक और नैतिक संदेश समाहित हैं। इसके विपरीत, आज का साहित्य अक्सर सनसनीखेज कथानकों और सतही भावनाओं पर निर्भर करता है। इसका प्रमुख कारण त्वरित ख्याति और लोकप्रियता की चाह है, जो लेखकों को गहन चिंतन-मनन के बजाय बाजार की मांगों के अनुरूप लिखने के लिए प्रेरित करती है।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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