सच्चिदा बाबू नहीं रहे

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अवधेश कुमार

पटना। अभी-अभी श्री सच्चिदानंद सिन्हा या सच्चिदा बाबू के निधन की सूचना मिली। पटना से पत्रकार मुकेश बालयोगी जी ने बताया कि कुछ ही देर पहले सच्चिदा बाबू का निधन हो गया है। यद्यपि सच्चीदा बाबू ने लंबा जीवन जिया। बावजूद उनकी मृत्यु देश के लिए अपूरणीय क्षति है। संपूर्ण क्षमता और योग्यता होते हुए भी उन्होंने समाज के अंतिम पायदान के आदमी के रूप में अपनी जिंदगी को ढाला। पिछले लगभग साढ़े तीन दशक से बिहार के मुजफ्फरपुर जिले का मुसहरी गांव उनका ठिकाना था। गांव में रहते हुए बिना टेलीविजन के वे देश और दुनिया की घटनाओं को लेकर हमेशा अद्यतन रहते थे। कुछ वर्ष पहले तक समाचार पत्रों में उनके विचारोत्तेजक आलेख आते रहते थे। वे विचारधारा से समाजवादी थे और यही उनके जीवन में दिखता था। सच कहा जाए तो वह एक क्रांतिकारी थे। अपने जीवन को न्यूनतम खर्च तक सीमित करके जीना सक्रिय जीवन में किसी क्रांति से कम नहीं है।

उनकी पुस्तकें – पुस्तिकाएं आज भी बदलाव के लिए रचनात्मक एवं संघर्षात्मक अभियानों में लगे लोगों के लिए वैचारिकी ही नहीं व्यावहारिक प्रेरणा भी हैं। यह समय का दुर्भाग्य है कि आज राजनीति ही नहीं समाज और संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय लोगों द्वारा जितना उनका उपयोग किया जा सकता था नहीं किया गया। यह हमारे समय में दृष्टि भ्रम का ही परिणाम है। मुझे अनेक बार उनसे मिलने ,बात करने, कार्यक्रमों में साथ रहने और साथ जाने- आने का भी अनुभव रहा। मुझे याद है एक समय देश के दूरस्थ या राजधानी दिल्ली द से जाने वाले बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और एक्टिविस्टों की चाहत सच्चिदा बाबू से मिलने की होती थी।‌ उनके कार्यक्रमों में मुसहरी जाना भी शामिल होता था। पहले मुसहरी गांव के लोगों को भी समझ में नहीं आया कि यह कौन आदमी है। धीरे-धीरे जब उनके पास लोग पहुंचने लगे, उन्हें कार्यक्रमों में ले जाया जाने लगा, नए पत्रकारों को भी उनके बारे में जानकारी हुई तथा समय-समय पर उनकी टिप्पणियां ली जाने लगीं तब मुसहरी और आसपास के गांव को उनके कद का आभास हुआ। हालांकि इससे उनके जीवन में कोई अंतर आया हो ऐसा नहीं है। जब तक उनका शरीर साथ देता रहा वह साइकिल की ही सवारी करते रहे।

कई बार किसी को कुछ टिप्पणी देनी होती तो वह साइकिल से ही पहुंच कर दे आते। मैंने उनसे एक बार पूछा था कि आपका भोजन कैसे होता है तो उन्होंने उत्तर दिया कि मैं चूड़ा दही रखता हूं। बिहार में चूड़ा दही सुबह का मुख्य जलपान होता था। कई लोग जो अकेले होते थे दिन में और रात में भी उसका उपयोग करते थे। दुर्भाग्य से इधर लंबे समय से उनसे मिलना नहीं हुआ। मिलना होता तो समझ पाता कि वर्तमान भारत , बिहार और दुनिया के बारे में उनकी सोच क्या है और वो कैसा भविष्य देखते हैं। आने वाली पीढ़ी को तो छोड़िए वर्तमान समय में भी ज्यादातर लोगों को यह कल्पना नहीं होगी कि संपूर्ण सुख के जीवन की क्षमता रखते हुए भी कोई ऐसा व्यक्ति हमारे आसपास था जिसने ऐच्छिक गरीबी को अपनाया और उसी में शत-प्रतिशत संतुष्ट रहते हुए अपनी अंतिम सांसें ली।

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