साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर: मालेगांव ब्लास्ट केस से बरी होने की पूरी कहानी

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दिल्ली। आज मुंबई की एक विशेष एनआईए अदालत ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और छह अन्य आरोपियों को 2008 के मालेगांव ब्लास्ट केस में सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। यह फैसला उस लंबी और दर्दनाक यात्रा का अंत था, जिसने साध्वी प्रज्ञा के जीवन को लगभग दो दशकों तक प्रभावित किया। 17 साल की कानूनी लड़ाई, जेल में बिताए नौ साल, शारीरिक और मानसिक यातनाएं, और सामाजिक अपमान—यह कहानी न केवल एक व्यक्ति की है, बल्कि यह उन सवालों को भी उठाती है कि कैसे एक निर्दोष को इतने बड़े मामले में फंसाया गया और क्यों। साध्वी प्रज्ञा ने कोर्ट में कहा, “मैंने शुरू से ही कहा था कि जिन्हें भी जांच के लिए बुलाया जाता है, उनके पीछे कोई न कोई आधार ज़रूर होना चाहिए। मुझे जांच के लिए बुलाया गया और मुझे गिरफ़्तार करके प्रताड़ित किया गया। इससे मेरा पूरा जीवन बर्बाद हो गया।”

प्रारंभिक जीवन और देशभक्ति की शुरुआत

साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का जन्म 2 फरवरी 1970 को मध्य प्रदेश के भिंड जिले में एक साधारण परिवार में हुआ। उनके पिता, चंद्रपाल सिंह ठाकुर, एक आयुर्वेदिक चिकित्सक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सक्रिय सदस्य थे। प्रज्ञा ने इतिहास में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की और युवावस्था में ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और विश्व हिंदू परिषद की महिला शाखा, दुर्गा वाहिनी, से जुड़ गईं। उनकी विचारधारा हिंदू राष्ट्रवाद और सनातन धर्म के प्रति समर्पण से प्रेरित थी। वह एक साध्वी के रूप में आध्यात्मिक जीवन की ओर मुड़ीं और सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहीं। उनकी देशभक्ति और धार्मिक कार्यों ने उन्हें एक मजबूत पहचान दी, लेकिन 2008 में मालेगांव ब्लास्ट ने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया।

मालेगांव ब्लास्ट और गिरफ्तारी

29 सितंबर 2008 को, मालेगांव में एक मोटरसाइकिल में बम विस्फोट हुआ, जिसमें छह लोग मारे गए और 101 से अधिक घायल हुए। इस घटना की जांच शुरू में महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) ने की, जिसके प्रमुख हेमंत करकरे थे। जांच में दावा किया गया कि विस्फोट में प्रयुक्त मोटरसाइकिल साध्वी प्रज्ञा के नाम पर रजिस्टर्ड थी। इसके आधार पर, अक्टूबर 2008 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके साथ लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित और अन्य को भी आरोपी बनाया गया।

प्रज्ञा पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए), भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए। एटीएस ने दावा किया कि वह और उनके सह-आरोपी हिंदू चरमपंथी संगठन अभिनव भारत के सदस्य थे, जिसने कथित तौर पर इस हमले की साजिश रची थी। हालांकि, साध्वी ने शुरू से ही इन आरोपों को खारिज किया और दावा किया कि उन्हें झूठे आधार पर फंसाया गया।

जेल में यातनाएं और स्वास्थ्य संकट

गिरफ्तारी के बाद, साध्वी प्रज्ञा ने दावा किया कि उन्हें महाराष्ट्र एटीएस द्वारा गंभीर शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी गईं। उन्होंने कहा कि उन्हें लाठियों और बेल्ट से पीटा गया, नींद से वंचित किया गया, और अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ा। हालांकि, पूर्व सरकारी वकील रोहिणी सालियन ने इन दावों को खारिज किया, लेकिन प्रज्ञा के समर्थकों का मानना है कि उनकी धार्मिक पहचान को निशाना बनाया गया।

जेल में प्रज्ञा की स्वास्थ्य स्थिति तेजी से बिगड़ने लगी। उन्हें ब्रेस्ट कैंसर का निदान हुआ, और उनके समर्थकों का दावा है कि जेल में उचित चिकित्सा सुविधाएं नहीं दी गईं, जिससे उनकी हालत और गंभीर हो गई। 2017 में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने उनकी खराब स्वास्थ्य स्थिति को देखते हुए उन्हें जमानत दी, लेकिन तब तक वह नौ साल जेल में बिता चुकी थीं। जमानत देते समय कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता।

जांच की खामियां और “हिंदू आतंकवाद” की थ्योरी

2011 में, मालेगांव ब्लास्ट केस की जांच एनआईए को सौंप दी गई। एनआईए ने 2016 में साध्वी प्रज्ञा को क्लीन चिट दी, यह कहते हुए कि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं हैं। हालांकि, विशेष अदालत ने इस क्लीन चिट को खारिज कर दिया और प्रज्ञा सहित सात आरोपियों के खिलाफ यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने का आदेश दिया।

2025 के अंतिम फैसले में, कोर्ट ने पाया कि साध्वी की मोटरसाइकिल के स्वामित्व का कोई ठोस सबूत नहीं था। मोटरसाइकिल के चेसिस नंबर को मिटा दिया गया था, और इसे पुनर्स्थापित नहीं किया जा सका। कर्नल पुरोहित के घर पर आरडीएक्स होने का भी कोई सबूत नहीं मिला। 323 गवाहों की जांच की गई, जिनमें से 37 गवाह अपने बयानों से मुकर गए। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सजा के लिए नैतिक आधार पर्याप्त नहीं हैं; ठोस और विश्वसनीय सबूतों की आवश्यकता होती है, जो इस मामले में नहीं थे।

इसके साथ ही, “हिंदू आतंकवाद” या “भगवा आतंकवाद” की थ्योरी पर सवाल उठने लगे। कई लोगों ने इसे एक राजनीतिक साजिश बताया, जिसका उद्देश्य हिंदू संगठनों को बदनाम करना था। सोशल मीडिया पर भी इस फैसले के बाद “भगवा आतंकवाद” को झूठा और निराधार बताया गया।

तुष्टिकरण और राजनीतिक साजिश के आरोप

मालेगांव ब्लास्ट मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हुआ था, और उस समय सामाजिक तनाव को कम करने के लिए जल्दबाजी में कार्रवाई की गई हो, यह संभव है। कुछ लोगों का मानना है कि साध्वी प्रज्ञा को फंसाना एक तुष्टिकरण की नीति थी, जिसका उद्देश्य एक विशेष समुदाय को संतुष्ट करना था। उस समय की कांग्रेस सरकार पर आरोप लगे कि उन्होंने हिंदू नेताओं को निशाना बनाकर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की। हालांकि, इन दावों का कोई ठोस सबूत नहीं है, लेकिन यह सवाल बना हुआ है कि बिना पर्याप्त सबूतों के साध्वी को इतने बड़े मामले में कैसे फंसाया गया।

साध्वी की पीड़ा और सामाजिक पुनर्वास

साध्वी प्रज्ञा ने नौ साल जेल में बिताए, कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का सामना किया, और सामाजिक अपमान सहे। उनकी छवि को एक आतंकी के रूप में चित्रित किया गया, जिसने उनके परिवार और समर्थकों को गहरा आघात पहुंचाया। 2017 में जमानत मिलने के बाद, उन्होंने 2019 में भोपाल से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह को हराकर सांसद बनीं। यह उनके लिए एक सामाजिक और राजनीतिक पुनर्वास था, लेकिन उनकी कुछ टिप्पणियों, जैसे नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहना, ने विवादों को जन्म दिया।

2024 में, बीजेपी ने उन्हें लोकसभा चुनाव के लिए टिकट नहीं दिया, और उनकी जगह भोपाल से आलोक शर्मा को उम्मीदवार बनाया गया। फिर भी, साध्वी प्रज्ञा ने अपनी निर्दोषता पर जोर दिया और कहा कि उनकी जिंदगी इस मामले ने बर्बाद कर दी।

अनुत्तरित सवाल और सामाजिक असंतोष

साध्वी प्रज्ञा के बरी होने के बाद कई सवाल अनुत्तरित रह गए। अगर वह निर्दोष थीं, तो उन्हें इतने सालों तक जेल में क्यों रखा गया? बिना सबूतों के उन्हें इतने बड़े मामले में कैसे फंसाया गया? और सबसे महत्वपूर्ण, मालेगांव ब्लास्ट के लिए जिम्मेदार कौन है? कोर्ट ने मृतकों के परिवारों को 2 लाख रुपये और घायलों को 50,000 रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया, लेकिन यह सवाल बना रहा कि क्या इस मुआवजे से उनके दर्द की भरपाई हो सकती है?

साध्वी प्रज्ञा की कहानी एक व्यक्ति के संघर्ष की कहानी है, जो जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता, राजनीतिक हस्तक्षेप, और सामाजिक ध्रुवीकरण पर सवाल उठाती है। यह मामला न केवल कानूनी प्रक्रिया की कमियों को उजागर करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे एक निर्दोष व्यक्ति की जिंदगी को सामाजिक और राजनीतिक कारणों से बर्बाद किया जा सकता है। साध्वी प्रज्ञा की बरी होने की खबर ने उनके समर्थकों में खुशी लाई, लेकिन यह समाज को यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या न्याय केवल कोर्ट के फैसले तक सीमित है, या इसके पीछे गहरे सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं

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