झिरम घाटी की घटना के कुछ ही दिनों पहले मैंने सलवा जुडुम आंदोलन के शीर्ष नेता महेंद्र कर्मा से बातचीत की थी। उनसे मेरा प्रश्न था कि माओवादियों से लड़ाई तो आप हार गये, इसका क्या कारण पाते हैं? तब उन्होंने दो टूक कहा था कि “जंगल में हम अपनी लड़ाई जीत जाते, उसे दिल्ली में पावर पॉईंट प्रेजेंटेशनों में हार गये”। यह कथोपकथन बहुत महत्व का है, उस दौर में दिल्ली वाली लॉबी कितनी सशक्त थी इसका उदाहरण यह कि तब एक वरिष्ठ कथाकार जिन्होंने बस्तर पर केंद्रित अनेक कहानियाँ लिखी हैं, उन्होंने महेंद्र कर्मा का यह साक्षात्कार जो तब छत्तीसगढ़ अखबार में प्रकाशित हुआ था, उसे फ़ेसबुक पर शेयर कर दिया। इसके बाद शहरी नक्सलतंत्र की प्रगतिशीलता जागी और उन्हें इस इस भांति की गालियां तथा साहित्यिक जगत से तड़ीपारी की धमकियाँ मिलने लगीं कि आखिर वे अपना पोस्ट डिलीट कर इस विषय पर सर्वदा के लिए शांत हो गये। शहरी नक्सल तंत्र एक दौर में इतना ताकतवर हो चला था कि केवल समूहों को ही नहीं, वह व्यक्तियों को भी निशाने पर ले रहा था, इसका उद्देश्य था कि केवल वही लिखा जाये जो वे निर्देशित करें, केवल वही कहा जाये जो जो वे चाहते हैं और केवल वही सुना जाये जो उन्होंने कहा है।
शहरी नक्सलवाद को हमेशा बहुत हल्के में लिया गया है। जिस दौर में आधे बस्तर संभाग पर माओवादी अपनी पकड़ बनाने में समर्थ हो चले थे, बड़ी बड़ी घटनायें जिनमें रानीबोदली के कैंप पर हमला हो या कि छिहत्तर जवानों का एंबुश में मारा जाना हो या कि झिरम घाटी में राज्य के शीर्ष कॉन्ग्रेसी नेतृत्व को मार दिया जाना हो, उसी दौर में समानांतर इन्हें जस्टीफाई करने के नैरेटिव गढे गये। देश के अधिकांश मीडिया संस्थानों पर वामपंथ हावी है शायद यही कारण है कि लाल नैरेटिव को फैलाने फैलाने में तब अधिक समस्या नही हुआ करती थी। माओवादी नेटवर्क केवल लेखक ही नहीं पालता-पोस्ता था बल्कि इनकी संगठित लीगल टीम भी विभिन्न नामों के साथ नक्सल क्षेत्रों में कार्य कर रही थी। देश की याददाश्त कमजोर है इसलिए मानवता के वे अपराधी भुला दिए गए है जो मानवअधिकार की खाल ओढ कर बंदूख वाले माओवादियों की अपनी कलम से ढाल बने हुए थे।
दिल्ली का एक विश्वविद्यालय तो तब शहरी नक्सलवादियों की राजधानी बन कर उभरा था। सुरक्षाबल यदि माओवादियों के विरुद्ध अभियान में सफल होते तो मानवाधिकार के हनन पर सेमीनार आयोजित होते, विश्व भर के लाल-घड़ियाल बुक्का फाड़ फाड़ कर रोते और जवानों के मारे जाने पर विश्वविद्यालय के भीतर जाम टकराये जाते थे। एक पुस्तक के सिलसिले में, बड़ी संख्या में आत्मसामार्थित माओवादियों से मेरी बातचीत हुई है, अनेक ने मुझे बताया कि आजकल आना बंद हुआ है अन्यथा पहले जब विश्वविद्यालय में गर्मी की छुट्टियाँ होती और प्राध्यापकों के निर्देश पर समाजशास्त्र के छात्रों का समरकैम्प नक्सलियों के मध्य अबूझमाड में लगा करता था। जैसे जैसे माओवाद कमजोर पड़ता गया, विद्यार्थियों का समाज और शास्त्र अलग अलग हो गया और अब जंगलों में इनकी आमद नहीं के बराबर है।
अब दो रणनीतियाँ स्मरण कीजिये। बात एक दौर में बस्तर आईजी रहे एसआरपी कल्लूरी से ले कर वर्तमान में इस पद पर अवस्थित सुंदराजन तक की कर लेते हैं। ये दोनों ही समय माओवाद के विरुद्ध बड़ी सफलताओं के दौर हैं। दोनों के समय अच्छा मुखबिर नेटवर्क बनाने के लिए जाने जाएंगे यहाँ तक कि इन समयों की कार्यशाली में दो नामों पर गौर कीजिए एक हैं एसपीओ और दूसरा डीआरजी। एसपीओ अथवा स्पेशल पुलिस ऑफिसर भी स्थानीय थे, अनेक युवक माओवादी जीवन छोड़ने के कारण तो अनेक सलवाजुड़ुम के कारण माओवादियों के निशाने पर थे। सरकार ने इन्हें प्रशिक्षित लिया, इनकी सेवाएं लीं और तब माओवादियों के पैर उखाड़ने लगे थे। ठीक इसी समय पिटीशन पर पिटीशन दायर होंने लगीं। पुलिस अधिकारी मानवता के शत्रु निरूपित कर दिए गए। देश भर के अखबार इस तरह रंग गए जैसे माओवादी नहीं सुरक्षाबल ही अपराधी हैं। इन दबावों को सरकार और पुलिस झेलने में असमर्थ रही एसपीओ को डिसमैन्टल कर दिया गया और माओवादी पहले से अधिक तकतवर हो कर उभरे। सलवाजुडुम से जुड़े ग्रामीणों और एसपीओ से सम्बद्ध युवकों को तलाश तलाश कर माओवादियों ने मारा और मानवता के नारे जो सुरक्षाबलों के विरुद्ध मुखर थे, अब मुंह में दही जमा कर बैठ गये। वर्तमान में छत्तीसगढ़ में डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) सक्रिय है जिसमें अधिकांश आत्मसमार्थित माओवादी हैं। इन्हें मिलने वाली सफलता ऐसी है कि स्वयं माओवादी महासचिव वसवा राजू ने डायरी में लिखे एक संदेश में अपने कैडरों को डीआरजी से सावधान किया था। डीआरजी ने माओवाद की जड़ें ही ढीली नहीं की बल्कि नक्सल महासचिव को भी मिट्टी में मिला दिया है।
अब सोचिए कि एसपीओ से डीआरजी तक क्या बदला है? वस्तुत: अब शहरी माओवादी उजागर हो चले हैं, बैकफुट पर हैं। शहरी नक्सलवाद शब्द का पहले बहुत परिहास हुआ लेकिन जैसे जैसे इसके कारिंदे अपनी कलम और कारस्तानियों साहित उजागर होने लगे, बंदूख वाले नक्सली भी अपनी ढाल खो बैठे। अब बोलने-छापने वालों के बीच भी वामपंथ का दबदबा कम हुआ है और अन्य विचार विमर्श भी अपनी जगह बनाने लगे हैं। इससे आमजान ठीक से परिस्थतितियों को समझ सका, इसी कारण नक्सलवाद को लाल-आतंकवाद के रूप में उसकी सही पहचान मिली। आज समाज को न नक्सलियों से सहानुभूति है न नक्सल समर्थकों से इसलिए बंदूख वाले नक्सली मिट रहे हैं और कलम वाले बेबस।