साहित्य उत्सव में संस्था की ‘क्षुद्रता’

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देवांशु झा

कल साहित्य अकादेमी के साहित्य उत्सव में गया था। दो-तीन सभागारों में बैठता-उठता हुआ अंततः सिनेमा और साहित्य की परिचर्चा सुनने बैठ गया। वहां अतुल तिवारी, नन्दिता दास जैसे विख्यात लोग थे। सिनेमा और साहित्य पर बात करते हुए वे हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के सिनेमा साहित्य तक गए। भाषण में सत्यजित राय बार-बार आते रहे। सत्र के समापन पर संवाद के नाम पर कुछ होना था। कुछ नहीं हुआ। मैंने सत्यजित राय पर एक पुस्तक लिखी है। हाल ही में छपी है। मेरे मन में कुछ प्रश्न थे। लेकिन संवाद का कोई अस्तित्व नहीं होता। ज्ञान बहता है। मैंने अतुल तिवारी और नन्दिता दास से कुछ पूछना चाहा था परन्तु उनके पास अवसर नहीं था। सत्र के समापन के बाद फोटो, सेल्फी, और बड़े लोगों की वार्ता महत्वपूर्ण थी।

मैं बाहर निकला। वहां भोजन की व्यवस्था थी। मैंने सोचा, कुछ खा लूं। दरबान ने रोका। सर पट्टा नहीं है आपके पास। पिछले वर्ष मेरे गले में पट्टा था। तब मैं वक्ता के रूप में आमंत्रित था। इस बार अनाम श्रोता था। अनाम लोगों के लिए वक्ताओं से अलग पीछे खाने की व्यवस्था थी। वहां दोयम दर्जे का भोजन था। भीड़ भी थी। लोग पंक्ति तोड़ रहे थे जो कि साधारण भारतीय आचरण है। मुझे संस्था की क्षुद्रता पर दया आई। साहित्य अकादेमी के उत्सव में कितने श्रोता आते हैं? दो तीन सौ बहुत होते हैं। माननीय साहित्यिकों और कलाकारों के लिए आरक्षित स्थल से अलग उनके लिए भोजन की व्यवस्था तो ठीक है लेकिन उन्हें भिखमंगों की तरह कुछ भी खिला देना निकृष्ट है। आश्चर्य है कि साहित्य अकादेमी ऐसा कर रही।

इतनी बड़ी संस्था जो देश का श्रेष्ठ साहित्य छापने, लेखकों को पुरस्कृत करने का दम भरती है, मानवीय संवेदनाओं को बचा लेने वाले साहित्य के प्रकाशक लोग!–वह सौ डेढ़ सौ लोगों को, जो उन साहित्यकारों को सुनने आते हैं,अच्छा भोजन नहीं करा सकती! शर्मनाक है! कितना पाखंड है! मैं डंके की चोट पर कह सकता हूॅं कि वहां उपस्थित महनीय लेखकों ने इस बारे में कभी विचार नहीं किया होगा। वे तो ज्ञान देने आए थे। ज्ञान से परे लेखन तो साहित्य की बात है भाई! धरातल पर कुछ और ही है। साहित्यिक संस्थाओं और साहित्यकारों के लिए मेरे मन में कोई विशेष सम्मान हो,ऐसा नहीं। मुझे एक घटना की याद आ गई। बरसों पहले मैं मीडिया के जूनियर मित्र के बच्चे के मुंडन संस्कार में गया था। भोजन परोसा गया। गेट के बाहर कुछ भिखारी बैठे थे। मैं ठहर गया। निवाला कैसे उतरे?सामने हाथ फैलाए बच्चे बैठे थे। मैंने मित्र को बुलाया और कहा कि उन दरिद्र नारायण को दे दो। वह क्षुब्ध हुआ परन्तु उसके लिए मेरी बात को काटना सम्भव न था। उसने उन्हें भोजन दिया।

साहित्य अकादेमी अपने महनीय अतिथियों को अलग से खिलाए। खिलाना चाहिए। उनकी निजता का सम्मान हो लेकिन भोजन में भेदभाव? श्रोताओं को अलग से खिलाओ परन्तु वही खिलाओ जो वक्ताओं को खिला रहे हो। अगर कोई सुनने ही नहीं आए तो ज्ञान किसे दोगे? मनुष्य की गरिमा तो समझो! वह नहीं समझ सकते तो इतने बड़े आयोजन का क्या अर्थ? वह तो भंगार है!

(फेसबुक वॉल से)

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