प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
भारतीय लोकतंत्र के लिये एक अत्यंत खतरनाक और भयावह लक्षण राष्ट्रीय पटल पर उभर रहा है। भारत की ज्यूडिशियरी में समानान्तर भारत सरकार चलाने के इच्छुक कतिपय जज सामने आ रहे हैं, जो एक अभूतपूर्व दशा है। भारत में एंग्लों सेक्शन क्रिश्चियन ढांचे वाली ज्यूडिशियरी है। उस ज्यूडिशियरी में विगत 200 वर्षों में आज तक एक बार भी ऐसा कोई जज देखने में नहीं आया जो सार्वजनिक जीवन में सक्रियता का कोई खतरा उठाये बिना अपनी पीठ पर आसीन रहते हुये समानान्तर सरकार चलाने की कामना या कल्पना भी करता हो। परंतु भारत की ज्यूडिशियरी में कुछ लोगों में ये लक्षण उभर रहे हैं। भारत की माननीय संसद को इन खतरनाक लक्षणों का संज्ञान तत्काल लेना चाहिये और ज्यूडिशियरी को सुस्थापित मर्यादाओं के पालन की अपनी भव्य परंपरा का स्मरण विनयपूर्वक परंतु दृढ़ता से करा देना चाहिये।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक जज साहब ने हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को कुचलते हुये एक स्थगन आदेश तो दिया ही, उसके साथ अत्यंत विचित्र या अटपटी टिप्पणियाँ भी कर दीं। पहली बात तो यह स्थगन आदेश एक ऐसी याचिकाकर्ता महुआ मोइत्रा की याचिका पर दिया गया जिसे भारत की माननीय संसद ने इस कारण सदस्यता से वंचित किया है कि उन्हांने अपनी लोकसभा की आईडी दुबई के एक व्यापारी को ही बेच दी। ऐसे स्पष्ट रूप से आपराधिक आचरण वाले व्यक्ति की याचिका की सुनवाई में सावधानी अपेक्षित थी। वह नहीं बरती गई।
दूसरे याचिकाकर्ता श्री अपूर्वानंद हैं जिन्हें मैं उनके विद्यार्थी जीवन से जानता हूँ। वे एक प्रतिभाशाली और उग्र कम्युनिस्ट हैं तथा दिल्ली दंगे के आरोपी भी हैं। उनके अन्य धत करम भी बहुचर्चित हैं।
जिस पक्ष के विरूद्ध याचिका लाई गई थी, उस पक्ष को बुलाये बिना और उनका पक्ष सुने बिना किसी भी तरह का आदेश जारी करना एक मनमाना व्यवहार है। पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि उक्त जज साहब ने याचिका सुनते समय एक अत्यंत निरर्थक और निजी टिप्पणी की कि मैं केरल में जिस भोजनालय में भोजन करता था, उसका स्वामी एक मुसलमान था और वह भोजनालय बगल के हिन्दू भोजनालय से कहीं अधिक स्वच्छ और सुंदर था। यह बात अपनी जगह सत्य हो सकती है। परंतु केरल के किसी एक स्थान के किसी एक होटल को भारत के सभी मुसलमानों के सभी होटलों का प्रतिनिधि या सेंपल मान लेना न्याय का उपहास है। यह नितांत मनमानी बात है। इस तरह से तो संसार में कोई न्यायिक निर्णय नहीं होता। यह अनुचित है।
उक्त जज महोदय ने यह चिंता भी नहीं की कि विचाराधीन प्रकरण का संबंध केवल स्वच्छता से नहीं है। उसका संबंध धार्मिकता से है। सनातन धर्म के किसी भी अनुयायी द्वारा कांवड़ यात्रा तथा तीर्थ यात्रायें एवं विविध पुण्य आयोजन पुण्य अर्जन के लिये किये जाते हैं। वे घूमने या पर्यटन का अंग नहीं हैं। पुण्य अर्जन के लिये पुण्य कर्मों का आचरण आवश्यक है। ऐसे किसी भी व्यक्ति की दुकान या होटल में भोजन करना या जलमात्र भी पीना पुण्य का क्षय कर देता है जो स्वयं सनातन धर्म में श्रद्धा नहीं रखता हो और सनातन धर्म के साथ वंचना करने के पापपूर्ण प्रयोजन से कोई दुकान या होटल चला रहा हो अथवा जो सनातन धर्म में मान्य कण-कण व्यापी परमेश्वर में श्रद्धा नहीं रखता हो तथा जो अपने मजहब के आराध्य को ही सर्वोपरि मानता हो और हिन्दू धर्म के आराध्य देवी-देवताओं को असत्य और अंधकार का लक्षण मानता हो। क्योंकि ऐसे व्यक्ति से तो तीर्थयात्रा के समय संवाद करना भी पुण्य का क्षय करता है।
फिर उसका जल ग्रहण करना या उसकी दुकान या होटल से कुछ भी क्रय करना तो पुण्य का नाश ही कर देगा। इस प्रकार जज महोदय हिन्दुओं को उनके धार्मिक कर्तव्य से वंचित करने वाला निर्णय सुनाते हुये शासन के धर्मरक्षक आदेश को जो कि एक सार्वजनिक हित एवं कल्याण की भावना से निर्गत किया गया है, स्थगित करते हैं। यह सनातन धर्म के महत्व को न मानना और हिन्दुओं के धार्मिक कर्तव्य को बाधित करना है। भारत के शासकों और माननीय संसद को भारत के बहुसंख्यकों के धर्म यानी सनातन धर्म की रक्षा के लिये इस प्रकार की कार्यवाहियों की संभावना को जड़मूल से समाप्त करने का विचार करना चाहिये तथा बहुसंख्यकों के धार्मिक कर्तव्यों का निष्पादन सुगम बनाने का लोककल्याणकारी कर्तव्य करना चाहिये। शासन चलाना शासकों का काम है। उसके विधिक अंग के अधिकारियों का कर्तव्य विधि की रक्षा करना है न कि लोकजीवन को सीधे संचालित करने का प्रयास करना।
*समग्र संवाद से साभार*