दिल्ली । कभी अख़बार का संपादक एक संस्था हुआ करता था। उसकी एक पंक्ति से सत्ता की नींव हिल जाया करती थी। लेकिन आज हालात इतने बदल गए हैं कि अगर पाठकों से पूछा जाए, तो उन्हें अपने पसंदीदा अख़बार के संपादक का नाम तक नहीं मालूम। पत्रकारिता के मूल्यों का सूरज ढल रहा है और उसकी जगह पर बाजारू दबावों का अंधेरा छा गया है। खबर अब महज़ एक उत्पाद है, जिसकी बिक्री और टीआरपी ही सब कुछ तय करती है।
आज एडिटोरियल पन्ने सिकुड़ चुके हैं। कार्टूनिस्ट की धारदार कलम की जगह ग्राफ़िक डिज़ाइनर का माउस ले चुका है। और अब तो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस इस भूचाल को और गहरा कर रहा है। वह दिन दूर नहीं जब अख़बारों के दफ़्तरों से ‘लाइब्रेरी’ का वो कोना भी गायब हो जाएगा, जहाँ कभी तथ्यों की खड़खड़ाहट गूंजा करती थी। यह केवल तकनीक का बदलाव नहीं, बल्कि पत्रकारिता की आत्मा का क्षरण है।
ज़्यादा पुरानी बात नहीं है—1970 का दशक। जब हम IIMC से पत्रकारिता की पढ़ाई कर बाहर निकले थे, तब अख़बारों के संपादक देश की बड़ी हस्तियाँ होते थे। बी.जी. वर्गीज, शामलाल, मुलगांवकर, कुलदीप नायर, ईरानी, खुशवंत सिंह, राजेंद्र माथुर, सर्वेश्वर, श्री कांत, राठी जी, श्री अज्ञेय, रतनलाल जोशी, धर्मवीर भारती, बगैरा… यह सभी नाम पत्रकारिता की बुलंदियों का प्रतीक थे। उस दौर के कार्टूनिस्ट्स फ्लैग बीयर्स थे, लक्ष्मण, रंगा, चो, सुधीर दर, काक। उस दौर में अख़बारों को एक पवित्र पेशा माना जाता था। न्यूज़ रूम किसी इबादतगाह से कम न थे, जहाँ सच की खोज और सत्ता को आईना दिखाना ही सबसे बड़ा उद्देश्य था।
विज्ञापन और पब्लिक रिलेशन वालों को शक की नज़र से देखा जाता था। कई अख़बारों में तो मार्केटिंग मैनेजर का न्यूज़ रूम में दाख़िल होना भी नामुमकिन था। एक साफ़ लक्ष्मण रेखा खिंची हुई थी, जिसका सब सम्मान करते थे।
लेकिन अब तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। आज अधिकांश पत्रकार नेता और सत्ता की कृपा दृष्टि के लिए लालायित रहते हैं। जो चीज़ पहले परदे के पीछे, बहुत बारीकी से होती थी, आज खुलेआम और बेपरवाह अंदाज़ में सामने आ रही है। अब पत्रकार खुद इंफ़्लुएंसर, दलाल, बिचौलिये और लॉबिस्ट बन चुके हैं।
जो लोग कभी हक़ीक़त बयान करते थे, वही अब प्रोडक्ट बेचने, नेताओं का प्रचार करने और अफ़वाह फैलाने में जुटे हैं। मीडिया हाउसों में कंसल्टेंट और फिक्सर बाक़ायदा कुर्सियाँ पकड़ चुके हैं। खेल अब छिपा नहीं है, मगर खतरनाक ज़रूर है।
आजाद और बेबाक पत्रकारिता की क़ीमत गिर चुकी है। खबरें अब महज़ तथ्यों का बयान नहीं रहीं, बल्कि राय और मसालेदार तड़के में डुबोकर परोसी जाती हैं ताकि टीआरपी और क्लिक मिल सकें। मोटे पैकेज, आरामदेह लाइफ़स्टाइल और चमक-दमक की चाह में समझौते और सौदेबाजी आम हो चुकी है। ब्लैकमेलिंग के आरोप भी बार-बार उठते हैं।
प्रेस कॉन्फ़्रेंसों में गिफ़्ट्स देकर कवरेज पाना आज “नॉर्मल” है। नकद लिफ़ाफ़े और गिफ़्ट वाउचर खुलेआम दिए जाते हैं। खबरें अब खबर कम और प्रायोजित पैकेज ज़्यादा लगती हैं।
डिजिटल मीडिया ने इस गिरावट की रफ़्तार और तेज़ कर दी है। टीवी चैनल, अख़बार और न्यूज़ पोर्टल अब इश्तिहार और खबर के बीच की लकीर मिटा चुके हैं। प्रायोजित कंटेंट को खबर बनाकर परोसा जाता है। ब्रांड्स तय करते हैं कि कौन-सी स्टोरी छपेगी और कौन-सी दबा दी जाएगी।
नीरा राडिया टेप्स पहले ही उजागर कर चुके थे कि कैसे बड़े-बड़े पत्रकार कॉर्पोरेट और सियासत के बीच बिचौलिये की भूमिका निभा रहे थे। आज “गोदी मीडिया” का तमगा इस मिलीभगत का ही सबूत है।
यह बीमारी केवल हिंदुस्तान तक सीमित नहीं है। अमरीका में 2020 के चुनावों के दौरान इंस्टाग्राम और टिकटॉक के इंफ़्लुएंसर बाक़ायदा पैसे लेकर प्रचार कर रहे थे। हॉलीवुड के नेटिव ऐड्स हों या बॉलीवुड की प्रेस जंकेट्स, हर जगह पत्रकारिता और प्रचार गड्ड-मड्ड हो चुके हैं।
असल वजह है कमर्शियल दबाव। न्यूज़ रूम छोटे हो रहे हैं, बजट घट रहा है, और पत्रकार ग़िग-इकॉनॉमी में जूझ रहे हैं। ऐसे में कॉर्पोरेट मालिक और राजनीतिक रिश्तेदार अपनी मनचाही खबरें छपवा लेते हैं। जो पेशा कभी वॉचडॉग कहलाता था, वह अब सत्ता और पूँजी का भोंपू बन चुका है।
कुछ लोग कहते हैं कि अब लॉबिंग ही पत्रकारिता है, इसी से रोज़ी-रोटी चलती है। लेकिन यह मान लेना दरअसल पत्रकारिता की मौत को स्वीकार करना है। जब सच बिकाऊ माल बन जाए और पत्रकार महज़ दलाल, तो लोकतंत्र का पूरा ढांचा हिल जाता है।
लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है। हालात सुधारे जा सकते हैं, अगर पाठक और दर्शक यह मांग करें कि खबर और विज्ञापन को साफ़-साफ़ अलग रखा जाए। प्रायोजित कंटेंट को स्पष्ट लेबल किया जाए और मीडिया संस्थान सब्सक्राइबर आधारित मॉडल अपनाएँ।
सबसे अहम है मीडिया साक्षरता—ताकि आम पाठक यह पहचान सके कि कौन-सी बात सच है, कौन-सी राय है और कौन-सा महज़ प्रचार है।
गिरती हुई पत्रकारिता की क़ीमत सिर्फ़ पेशे का संकट नहीं है, बल्कि लोकतंत्र का सवाल है। अगर मीडिया सत्ता का चेहरा दिखाने लगे और समाज की असली सूरत छिपा दे, तो लोकतंत्र का आईना धुंधला पड़ जाता है।
इसलिए पत्रकारिता की इज़्ज़त और शुचिता को वापस लाना ज़रूरी है। यह महज़ पुरानी यादों की कसक नहीं है, बल्कि मुल्क के भविष्य की गारंटी है। सच बोलने वाली कलम को बचाना ही लोकतंत्र को बचाना है।