विजयदशमीं और दीपावली के बीच ये बीस दिन संपूर्ण समाज और राष्ट्र को एक सूत्र में समरस होने की अवधि है। इसका बहुत स्पष्ट संदेश लंका विजय के बाद श्रीरामजी के अयोध्या लौटने की तैयारी में भी दिया है और इसे लोकजीवन में दीपावली की तैयारी से भी समझा जा सकता है।
भारतीय वाड्मय की प्रत्येक पुराण कथा, अवतारों की अवधारणा अथवा तीज त्यौहार मनाने की परंपरा साधारण नहीं है। इसके पीछे आदर्श समाज निर्माण, प्रत्येक प्राणी और प्रकृति से समन्वय का संदेश है। यदि “वसुधैव कुटुम्बकम” कहा है तो यह केवल सिद्धांत नहीं है। इसे व्यवहारिक जीवन में उतारने का संदेश सभी तीज त्यौहार में दिया गया है। अब विजय दशमीं के बाद दीपावली तैयारी की इन बीस दिनों की अवधि को ही देखें, इसमें संपूर्ण समाज एक दूसरे का पूरक है, एक दूसरे पर आधारित है। मानों संपूर्ण राष्ट्र समरसता की एक माला में पिरोया हुआ है। यही कार्य रामजी ने लंका विजय के बाद किया था और यही परंपरा दीपावली की तैयारी में है।
रावण वध के बाद के बीस दिन
रावण वध के बाद रामजी को अयोध्या लौटने में पूरे बीस दिन लगे थे। यह अवधि अनावश्यक विलंब या विजय का उत्सव मनाने की नहीं है अपितु रामजी द्वारा पूरे भारतवर्ष और प्रत्येक समाज को समरस बनाकर एक सूत्र में पिरोने की अवधि है। इसका स्पष्ट वर्णन रामचरितमानस में है। रावण वध अश्विन माह शुक्लपक्ष दशमीं को हो गया था। लेकिन रामजी कार्तिक मास की अमावस को अयौध्या लौटे। इन दोनों तिथियों में बीस दिन का अंतर है। बीस दिन की इस अवधि में लंका में नहीं रुके थे। केवल दो दिन लंका में रुके थे। रावण वध के बाद रामजी अपने सैन्य शिविर में रहे। उन्होंने विभीषण से युद्ध में मारे गये रावण सहित सभी परिजनों का अंतिम संस्कार करने को कहा। इसमें एक दिन लगा। अगले दिन विभीषण का राज्याभिषेक हुआ। राज्याभिषेक के बाद विभीषण स्वयं सीता माता को सम्मान सहित लेकर रामजी के पास लेकर आये। विभीषण विभिन्न भेंट और पुष्पक विमान भी अपने साथ लेकर आये थे ताकि रामजी तुरन्त अयोध्या लौट सकें। ये मिलाकर कुल दो दिन हुये।
पुष्पक विमान साधारण नहीं था वह दिव्य था जो पवन से तीव्रगति से चल सकता था। उसमें यात्रियों के बैठने की क्षमता भी असीम थी। यात्रियों की संख्या बढ़ने के साथ उसका विस्तार हो सकता था। रामजी पुष्पक विमान द्वारा उसी साँझ लंका से चल दिये थे। वे चाहते तो कुछ घंटों में ही अयोध्या आ सकते थे। लेकिन उन्हें मार्ग में अठारह दिन लगे और कार्तिक मास की अमावस को अयोध्या लौट सके। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि रामजी ने पुष्पक विमान में बैठकर सीधे अयौध्या का मार्ग क्यों नहीं पकड़ा था और उन्हें य। अठारह दिन कहाँ लगे? इस प्रश्न का समाधान रामजी के लौटने के विवरण में है। लौटने केलिये रामजी ने उसी मार्ग से अपनी यात्रा आरंभ की, जिस मार्ग से वे लंका गये थे। लौटने की अपनी यात्रा में रामजी उन सभी वन्य और ग्राम्य क्षेत्रों के निवासियों से मिले जिनसे जाते समय मिले थे। लौटने में रामजी उन सभी ऋषि आश्रमों में भी गये जिनमें जाते समय गये थे। लौटते समय भी रामजी ने सभी समाज प्रतिनिधियों से भेंट की जिनसे जाते समय मिले थे। इतना ही नहीं, वनवासियों से लेकर ऋषि आश्रमों तक सबको अयोध्या आने का आमंत्रण भी दिया। जो समाज प्रमुख उनके साथ ही चलने को तैयार हो गये उन सबको अपने साथ पुष्पक विमान में बैठा लिया। इनमें भील समाज के मुखिया, निषाद, किरात आदि समाज प्रमुख थे। रामजी ने हर स्थान पर एक एक रात्रि भी बिताई। इसी कार्य में उन्हे अट्ठारह दिन लगे ।
इन अठारह दिनों में रामजी ने पूरे भारत और सभी समाज जनों को स्वयं से जोड़ा और सबको परस्पर जुड़ने का संकल्प भी दिलाया । चूँकि दानवी शक्तियाँ सात्विक समाज के विखराव का ही लाभ उठातीं हैं। यदि समाज संगठित है, जागरूक है, एक सूत्र में आबद्ध है तो आसुरी शक्तियाँ कभी प्रभावी नहीं हो सकती । इसके साथ रामजी ने यह संदेश भी दिया कि उन लोगों के प्रति सदैव आभार का भाव रखना चाहिये जो असामान्य दिनों में सहयोगी बनते हैं।
दीपोत्सव की तैयारी में भी संपूर्ण समाज के एक सूत्र होने की झलक
रामजी ने जो संदेश लंका से अयोध्या लौटने की यात्रा में दिया था वही संदेश आज भी दीपावली की तैयारी में झलकता है । रामजी के अयोध्या लौटने पर केवल दीप जलाने परंपरा होती तो यह कार्य तो एक ही दिन में हो सकता है। लेकिन दीपावली एक दिन का उत्सव नहीं है। यह त्यौहार पूरे पांच दिन का है और इसकी तैयारी में पूरे अठारह बीस दिन लग जाते हैं। यह पाँच दिवसीय त्यौहार और इसकी तैयारी संपूर्ण समाज को एक सूत्र में जोड़ती है। इसमें संपूर्ण समाज की प्रत्यक्ष या परोक्ष सहभागिता होती है। त्यौहार की तैयारी, साफ सफाई, लिपाई पुताई, पुरानी वस्तुओं को हटाना और नयी वस्तुओं के क्रय करने में समाज का ऐसा कौन सा वर्ग है जिसकी सहभागिता नहीं होती । घर की झाड़ू से लेकर स्वर्णाभूषण तक सभी वस्तुएँ क्रय की जातीं हैं। समाज का ऐसा कौनसा वर्ग या व्यक्ति है जिसे भेंट नहीं दी जाती । यही तो सर्व समाज की सहभागिता और सहयोग है। दीपावली की पूजन में जो वस्तुएँ अनिवार्य बताई गई हैं उनका संबंध भी समाज के प्रत्येक शिल्प समूह से है।
रामजी ने श्रीलंका से लौटते समय संपूर्ण समाज को एकत्व का यही संदेश दिया कि संपूर्ण भारतीय समाज संगठित रहे, परस्पर सहयोगी रहे। तभी आसुरी शक्तियों से सभ्य सुसंस्कृत समाज सुरक्षित रहेगा। हम आज भले मूल उद्देश्य का स्मरण न करते हों पर समाज को जोड़ने जुड़ने की प्रक्रिया यथावत है। साफ सफाई, लिपाई पुताई से लेकर नयी वस्त्र वर्तन आभूषण, घर या भवन को सजाने की वस्तुएँ क्रय करते हैं जिससे हर हाथ को काम मिले। सबको एक दूसरे की आवश्यकता अनुभव हो। सब एक दूसरे का महत्व समझे। सब एक दूसरे का सहयोग करें तब ही तो सबकी दीवाली मनती है ।
भारतीय संस्कृति एक मात्र ऐसी मानवीय मूल्यों को महत्व देती है इसमें संसार का एक एक प्राणी समाया है । त्यौहारों की परंपराओं का संदेश भी यही है कि विभिन्न समाजों और वर्गों का एक एक व्यक्ति परस्पर जुड़ सके, एक दूसरे का पूरक बन सके। इसमें कोई भेद नहीं। न नगरवासी का, न ग्रामवासी का और न कोई वन के निवासी का । भारतीय संस्कृति में न जन्म का भेद है, न वर्ग का, न वर्ण का भेद है और न जाति का । यह गुण और कर्म पर आधारित है । इसीलिए निषाद किरात और वनावासी सुग्रीव सब रामजी के मित्र हैं। जो अंतर हमें दिखाई देता है, वह केवल वाह्य स्वरूप है। जिस प्रकार भूमि के हर हिस्से में एक ही प्रकार के फल फूल या फसल नहीं होते। हर पर्वत पर एक सी औषधि नहीं होती। लेकिन सब एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। उसी प्रकार प्राणियों की भाव भाषा में विविधता भी देशकाल और परिस्थिति के अनुरूप है। समय के साथ व्यक्ति अथवा समाज की जीवन शैली विकास की धारा है।इसी आधार पर समूह बने जिन्होंने वर्ग या उपवर्ग बने। लेकिन आतंरिक स्वरूप में कोई अंतर नहीं। ग्रामवासियों और वनवासियों जो वर्ग उपवर्ग भील गौंड, कोल, कोरकू माढ़िया मुंडा आदि आज हैं, वे वर्ग उपवर्ग रामायण काल में भी थे। लेकिन उनमें मानवीय सम्मान में कोई भेद नहीं था। तभी तो रामजी इन सभी वर्ग और उपवर्ग समूहों के बीच रहे और लौटते समय उन सबके मुखियाओं को पुष्पक विमान में अपने साथ लेकर अयौध्या आये। जिस प्रकार एक ही वृक्ष की शाखाएं अलग-अलग दिशाओं में फैलती हैं या उसके पके हुये फल से निकला बीज किसी दूसरे स्थान पर पनप जाता है और नया वृक्ष बन जाता है उसी समाज का विस्तार होता है। विश्व की संपूर्ण मानवता का केन्द्रीभूत विन्दु तो एक ही है । इसी भाव से भरा हुआ रामजी का आचरण और यही संदेश दीपावली की तैयारी में है। भले रामायण काल को बीते हजारों वर्ष बीत गये। दासत्व का अंधकार भी सैकड़ों साल रहा फिर भी भारतीय जीवन में यह परंपरा आज भी बनी हुई । इसीलिए दीपावली पर केवल दीपोत्सव नहीं होता, यह समूचे समाज का कायाकल्प होता है । धन से भी, श्रम से भी, परस्पर आदान प्रदान से भी और भेंट मिलाप से भी। इस प्रकार विजयदशमीं से दीपावली के बीच बीस दिन की यह अवधि संपूर्ण राष्ट्र और समाज वर्गों को परस्पर समरूप होने और एक दूसरे का पूरक बनने की बनने और बनाने की अवधि है।