सर्वेश तिवारी श्रीमुख
काशी। उन्नीस साल के उस किशोर ने क्या उपलब्धि प्राप्त की है, यह स्पष्ट नहीं समझ पाया हूँ। दण्डक्रम क्या है, क्यों विशेष है, यह जानकारी हम सामान्य गृहस्थों को नहीं ही है। हममें तो अधिकांश यह भी नहीं जानते कि किसी वेद की अलग अलग शाखाओं में क्या भेद है। लेकिन पिछले दो दिनों से जिस तरह देश का प्रबुद्ध वर्ग इस किशोर की मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहा है, वह सिद्ध करता है कि यह मिट्टी अब भी विद्वता का आदर करती है, पूजती है।
सोचिये न! देश के सबसे चर्चित मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि मुझे गर्व है कि देवव्रत महेश रेखे ने हमारे राज्य में यह उपलब्धि हासिल की है। देश के प्रधानमंत्री इस बात के लिए गौरवांवित हो रहे हैं कि इस किशोर ने यह उपलब्धि उनके संसदीय क्षेत्र में प्राप्त की है। समूचा विद्वत समाज उसके आगे नतमस्तक है। फेसबुक ट्विटर पर उसके लिए करोड़ों पोस्ट लिखे जा चुके। यह अपने आप में कितनी बड़ी बात है, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। उन्नीस वर्ष की आयु में किसी व्यक्ति को और कितनी प्रतिष्ठा चाहिये!
मैं अपने आस-पड़ोस में देखता हूँ, जिन परिवारों में सदियों से पुरोहित परम्परा रही है, उन परिवारों के बच्चे भी अब संस्कृत नहीं पढ़ते। कुछ तो दिल्ली मुंबई में कहीं पन्द्रह हजार की नौकरी करते हैं, प्राइवेट विद्यालयों में छह छह हजार पर भी पढ़ाते हैं, लेकिन अपना कर्म नहीं करते। उनकी दर्जनों आपत्तियां हैं- भइया संस्कृत पढ़ कर क्या होगा, अरे अब उतनी प्रतिष्ठा नहीं है, भीमटे तो गालियां देते रहते हैं, पुरोहिती में कोई आय भी तो नहीं, वगैरह वगैरह… इनमें कुछ बातें सही भी हैं। पुरोहितकर्म में कोई विशेष आय तो सचमुच नहीं है। और गाली देने वाले भी हैं ही… पर क्या इसी लिए संस्कृत छोड़ दी जाय?
अपनी असफलता की कुंठा में जल रहे नफरती मूर्खों की सोशल मिडीआई बकवास वस्तुतः बकवास ही होती है, वह मिट्टी का मूल स्वर नहीं होता। वे तो चाहते ही हैं कि संस्कृत समाप्त हो जाय, उसे पढ़ने वाले समाप्त हो जाएं, धर्म समाप्त हो जाय… ऐसों की बात क्यों ही सुनी जाय? इनकी फूहड़ गलीबाजी से चिढ़ कर धर्म छोड़ना तो इनके एजेंडे को सफल बनाने जैसा ही है न!
और दूसरी बात यह कि इन फूहड़ गालीबाजों की संख्या अब भी बहुत कम है। उनका स्वर इस मिट्टी का स्वर नहीं है। देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए अब भी संस्कृत एक भाषा से अधिक है। संस्कृत देश की श्रद्धा है। इसमें विद्वता प्राप्त करने वालों को यह देश ऐसे ही पूजता रहा है और भविष्य में भी पूजता रहेगा।
देवव्रत की सफलता पर देश का उत्सव मनाना सुखद संकेत है। संस्कृत और धर्म से भाग रहा हमारा समाज वापस इसकी ओर मुड़े तो और बात बने। वैसे यदि यह उत्सव न होता तब भी हमें उस युवक पर गर्व होता, क्योंकि यह प्रसिद्धि उसका लक्ष्य तो नहीं ही थी। वेदाध्ययन तो धर्मकाज है। प्रसिद्धि तो उपहार जैसी है…
बहुत बहुत बधाई देवव्रत को! नई पीढ़ी उनसे सीखे, उनका अनुशरण करे, इसी कामना के साथ…



