इम्पल्स कोटा
दरभंगा । 13वीं सदी के उत्तरार्ध तक, मिथिला में नव्यन्याय की तार्किक धारा के किनारे, सनातनी व्यवस्था पुष्पित-पल्लवित होती आ रही थी।
इसके पूर्व गंगेश उपाध्याय द्वारा ‘तत्वचिंतामणि’ पुस्तक की रचना हुई थी।
उससे पहले जयंतभट्ट की ‘न्यायमंजरी’, उदयनाचार्य की ‘न्यायकुसुमांजली तथा तात्पर्यशुद्धिविवेक’ और वाचस्पति मिश्र की ‘न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका’ द्वारा ‘मिथिला’ न्यायदर्शन को अपनी विद्वत परंपरा से अभिसिंचित कर चुका था।
मैथिल अक्षपाद गौतम ‘न्यायदर्शन’ के प्रणेता थे।
गौतम लिखित ग्रंथ ‘न्यायसूत्र’ से ही महात्मा बुद्ध को पूर्व के ‘विचार-प्रवाह’ को परिष्कृत करने की आवश्यकता जान पड़ी थी।
पक्षधर मिश्र या उनके बाद के कुछ दसकों तक, मिथिला के विद्वान अपनी ‘ज्ञान परंपरा’ को मिथिला से बाहर नहीं जाने देते थे। उस ज्ञान-परंपरा पर केवल मिथिला में रहनेवाले लोगों का अधिकार था।
यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इस समय तक मिथिला में ‘इस्लाम’ की उपस्थिति का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
उदयनाचार्य सदृश नैयायिकों द्वारा बौद्ध मत को पहले ही निर्मूल कर दिया गया था।
मंडन मिश्र तथा आदि शंकराचार्य प्रकरण के बाद संपूर्ण मिथिला क्षेत्र ‘सनातन संस्कृति’ का क्षीर-सागर बन चुका था।
अनगिनत राज्याश्रित शिक्षण केंद्रों द्वारा ‘विद्या बल’ का संचय कर मिथिला सम्पूर्ण भारतवर्ष को सनातन दृष्टि प्रदान कर रही थी।
इस तरह से मिथिला ‘सनातन धर्म दर्शन परंपरा’ का सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र बन चुका था।
यह अलग बात है कि उसी समय मिथिला के चारों ओर इस्लामी प्रचार-प्रसार केंद्र विकसित हो चुके थे।
काशी में भी सनातनी व्यवस्था ध्वस्त होती जा रही थी।
12वीं-13वीं सदी में मोहम्मद गोरी और बख्तियार खिलजी के आक्रमणों से दिल्ली, जौनपुर, बिहारशरीफ, लखनौती तथा मालदा आदि क्षेत्र इस्लाम के राजनैतिक, सैनिक तथा जिहादी केंद्र के तौर पर विकसित हो चुके थे।
ऐसी स्थिति में भी मिथिला हिन्दू धर्म, संस्कार तथा संस्कृति की शरणस्थली बना हुआ था।
इसी बीच नालंदा विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर बख्तियार खिलजी ने तत्कालीन मिथिला नरेश कर्णाट वंशी रामसिंह देव को परास्त किया।
मिथिला में लूटपाट कर खिलजी गौड़ बंगाल की ओर निकल गया।
यही वह समय था जब पहली बार मिथिला का सामना इस्लामी अतिक्रमण से हुआ। जिहादी तत्वों की पहली ‘आहट’ तभी सुनाई पड़ी।
कर्णाट वंश के बाद भी लेकिन मिथिला पर हिन्दू शासन ओइनवार राजाओ के रूपः में यथावत चलता रहा।
इसका कारण यह था कि उस समय राजनीतिक स्थिति में भले परिवर्तन आ गया परंतु धरातल पर स्थिति हिंदुत्व के पक्ष में थी।
पूरे मिथिला क्षेत्र में हिन्दू धर्म को मानने वाली जनता के दवाब के सम्मुख इस्लामी राजनीतिक सत्ता-केंद्र असहाय ही रहा।
क्षेत्रीय स्तर पर मिथिला की बागडोर हिन्दू राजाओं के हाथ रही।
राज्याश्रित कौलिक शैक्षणिक व्यवस्था निरंतर अपने संचित ज्ञान-बल द्वारा मिथिला समाज को प्रदीप्त करती रही।
इस हिन्दू शासन का अंत 1527 में तब हुआ जब सिकंदर लोदी ने अंतिम ओइनवार राजा कंसनारायन लक्ष्मीनाथ देव को पराजित किया।
इस बीच यह जानना आवश्यक है कि बख्तियार खिलजी से सिकंदर लोदी तक, मिथिला के दरभंगा पर ग्यारह बार आक्रमण हुए।
इन आक्रमणों के पीछे लूटमार तथा इस्लामी जिहाद प्रमुख कारक थे। मिथिला की हिन्दू जनता के साथ अत्याचार उनमें ‘गाजी’ की भावना विकसित करती थी।
इन्हीं आक्रमणों के बीच मिथिला में इस्लामी उन्माद की आहट जोरदार ढंग से सुनाई देने लगी।
1326 ईसवी में हिन्दू राजा हरिसिंह देव की पराजय के बाद इस्लामी ताकतों द्वारा दरभंगा के क़िलाघाट में एक जामा मस्जिद, एक टकसाल तथा एक किला बनाकर उसका नाम तुग़लकपुरी रखा गया।
मिथिला के स्थानीय हिन्दू लोगों के प्रतिरोध के कारण ही दिल्ली सल्तनत ने ओइनवार ब्राह्मण भोगीस्वर ठाकुर को लगभग 1335 में मिथिला का राजा नियुक्त किया था।
ऊपर बताया जा चुका है कि 1527 में सिकंदर लोदी से हार के बाद यह हिन्दू शासन खत्म हो गया।
तत्पश्चात दिल्ली से बंगाल की यात्रा के लिए ‘मिथिला’ के भूभाग का उपयोग किया जाने लगा।
इसके पीछे उनकी मंशा यही थी की स्थानीय हिन्दू बहुल जनता को भयाक्रांत रखा जा सके और सनातनी व्यवस्था के प्रमुख केंद्रों को भी लगातार कमजोर किया जाता रहे।
मुख्य रूप से निम्नलिखित मार्गो का उपयोग किया जाता था-
1. जौनपुर- गोरखपुर- बनारस- सिवान- केसरिया- तुर्की- मुजफ्फरपुर- दरभंगा- पुर्णिया- दिनाजपुर- लखनौती।
2. दरभंगा- बहेड़ा- रोसड़ा- बलिया- मुंगेर।
3. दरभंगा- समस्तीपुर- बाजिदपुर- तेघरा- बलिया- मुंगेर।
इन मार्गों का उपयोग कर बख्तियार खिलजी, इल्तुतमिश, रजिया सुल्तान, गयासुद्दीन, मुहम्मद बिन तुगलक, फिरोजशाह, सिकंदर लोदी तथा शेरशाह सूरी के सैनिको ने गौड़ बंगाल पर आक्रमण किया था।
इन लगातार आक्रमणों से उत्पन्न इस्लामी आतंक को देख मिथिला के विद्वानों का यह निश्चय दृढ़ होता गया कि सनातन धर्म व्यवस्था के प्राचीन मान्यताओं को नवीन, समयानुकूल और सोद्देश्यपूर्ण आधार पर सुदृढ़ कर समाज के प्रत्येक वर्ग को एकता के सूत्र में बांधकर सनातनी आदर्शों के प्रति एकनिष्ठ रखने का प्रयास किया जाए।
मिथिला के विद्वानों को यह आभास हो गया था कि राजनीतिक रूप से मजबूत हो रहे इस्लामी झंझावात से सनातनी मैथिल सामाजिक बंधन शिथिल हो सकते हैं।
विदेशी विधर्मी आक्रमणकारियों से सनातनी मैथिल जीवन पूर्ववत स्वायत्त रहे इसीलिए तब मिथिला के विद्वानों ने मिथिला ही नहीं वरन संपूर्ण भारतीय जनमानस को सांस्कृतिक रूप से ‘एकसूत्र’ में पिरोने के लिए प्राचीन धर्मशास्त्रों का नवीन प्रणयन शुरू किया।
इस प्रणयन की मेखला तो ‘न्याय दर्शन’ को बना परंतु परिधि पर अन्य धर्मशास्त्रीय निबंधों, साहित्यिक पदावलियों तथा भगवद लोकगीतों को रखा गया।
मिथिला के निकट, बंगाल का नवद्वीप क्षेत्र था। उस क्षेत्र को भी प्राचीन धर्म दर्शन जीवन परंपरा से संपृक्त रखने की जिम्मेदारी मिथिला ने उठाया।
नवद्वीप के वासुदेव सार्वभौम तथा रघुनाथ शिरोमणि अध्धयन के लिए मिथिला आए।
तत्समय महापंडित पक्षधर मिश्र से शिक्षा ग्रहण कर उन्होंने नवद्वीप में न्याय विद्यापीठ की स्थापना किया। समय के गर्भ से उसी नवद्वीप में चैतन्य महाप्रभु ने ‘कृष्ण-भक्ति’ को नई ऊंचाई तक पहुंचाया।
इसी विद्यापीठ से उत्पन्न मथुरानाथ तर्कवागीश, जगदीश तर्कालंकार, गदाधर भट्टाचार्य प्रभृत विद्वानों ने उस क्षेत्र में सनातनी धर्म व्यवस्था की ध्वजा को मजबूती से थामे रखा।
इतना ही नहीं, पक्षधर मिश्र के नाटक ‘प्रसन्नराघव’ से प्रभावित गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ की रचना कर, इस्लामी अतिक्रमण से उद्वेलित उत्तर भारतीय जनमानस को श्रीराम के रूप में अपना अनन्य नायक प्रदान किया।
इस्लामी अतिक्रमण से उत्पन्न अराजकता से सनातनी मर्यादा के टूटते तंतुओं को एक ऐसे नायक की आवश्यकता थी जिसके व्यक्तित्व में वही पुरातन कौलिक आदर्शों की उपस्थिति संभव हो जिनके दम पर आजतक हिंदुत्व की सरिता से अपना जीवन-जल प्राप्त कर रहा समाज, अविकल अपने दैनिक जीवन में ‘धर्म’ के आचरणों को धारण करता आ रहा था।
मैथिल सीता और अवधेश श्रीराम के कठिन परंतु आदर्श जीवन को श्रीरामचरितमानस के माध्यम से घर-घर तक पहुंचाकर, सम्पूर्ण सनातनी समाज को वह आवश्यक संबल प्रदान किया गया जिसकी उपादेयता तब के समय सर्वाधिक थी।
काशी तब हिंदुत्व की हृदयस्थली था जिसे मिथिला की पांडित्य परंपरा का रक्त पर्याप्त पोषण प्रदान कर रहा था।
मगर केंद्र में संगठित हो रहे मुगल साम्राज्य ने मिथिला क्षेत्र में ‘इस्लामी प्रचार प्रसार’ को तब महत्वपूर्ण सहायता प्रदान किया जब मुगल सम्राट अकबर ने 1570 ईसवी में गंगा के दक्षिणी तथा गंगा के उत्तरी क्षेत्रों को जोड़कर एक ‘सूबा’ बना दिया।
अब मिथिला अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो चुका था।
इसके साथ ही दरभंगा, मधुबनी, रोसड़ा, बेलसंड, परसरमा, महुआ, दलसिंहसराय, बलिया, तुर्की, महिषी आदि स्थानों में इस्लामी सैन्य छावनियों का निर्माण किया गया।
सनातनी धर्म व्यवस्था के केंद्रों तथा उसके उन्नायकों की अनुपस्थिति में यह इस्लामी जिहादी अतिक्रमण निर्बाध चलता रहा।
इस काल में इस्लामी फ़क़ीर, मौलवी, मखदूम, मुल्ला लोगों ने इस्लामी शासन के सहयोग से ‘धर्म प्रचार’ करना शुरू किया। इनमें से कइयों ने तो मिथिला पर हो रहे आक्रमणों में जिहादी तत्वों का साथ भी दिया।
अंग्रेजी शासन व्यवस्था आने तक यह इस्लामी प्रचार-प्रसार पूरी सक्रियता से चलता रहा, जिससे मिथिला की ‘जननांकिय स्थिति’ प्रभावी रूप से परिवर्तित होने लगी।
इस बीच सनातन धर्म दर्शन परंपरा के जितने भी ‘संदर्भ केंद्र’ थे वो धराशायी हो गए। याज्ञवल्क्य, वाचस्पति, मंडन, उदयन तथा पक्षधर सदृश केंद्रों का संरक्षण और संवर्धन क्षीण होता गया।
परिणामस्वरूप 1872 की प्रथम जनगणना में मिथिला क्षेत्र में मुस्लिम जनसंख्या 12 प्रतिशत दर्ज की गई।
आज के समय मे 2011 की जनगणना के अनुसार मिथिला क्षेत्र के अधिकांश भागों में मुसलमानों की जनसंख्या 35 प्रतिशत से अधिक हो गई है।
मिथिला के सुदूरवर्ती कुछ क्षेत्रों में तो मुस्लिम जनसंख्या 50 प्रतिशत से ज्यादा हो गई है।
इस स्थिति की शुरुआत धर्म-परिवर्तन से हुई जिसे उनकी जनसंख्या-विस्फोट ने आगे बढ़ाया।
नेपाल तथा बांग्लादेश से जुड़े होने के कारण भारत के सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में इस्लामी उन्माद की जो आहट चौदहवीं शताब्दी में सुनी गई, वह खतरनाक आहट आज केवल सात सौ वर्षों के बाद एक आसन्न ‘संकट’ में परिणत हो चुकी है।
स्पष्ट है कि जिस मिथिला ने मध्य काल में बंगाल, आसाम तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘हिंदुत्व’ का जोरदार संरक्षण किया, वही मिथिला 19वीं-20वीं-21वीं सदी में इतना कमजोर हो गया है कि आसाम-बंगाल से पूर्वी उत्तर प्रदेश तक की संपूर्ण भारतीय सीमा संकटापन्न हो गई है।



