आज जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विश्व के सबसे बड़े संगठन के रूप में जाना जाता है, उसकी नींव डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने रखी थी। संघ को जानने का प्रयास करने वाले किसी भी व्यक्ति को इसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के जीवन से परिचित होना जरूरी है, जोकि अपने जीवनकाल में स्नेहपूर्वक ‘डॉक्टरजी’ के रूप में जाने जाते थे। डॉक्टरजी ने जब संघ की स्थापना की, उनकी आयु 36 वर्ष थी। उनके स्वयं के मन में राजनेता बनने की कोई इच्छा नहीं थी, क्योंकि यदि वे राजनेता ही बनना चाहते तो अपनी व्यक्तिगत कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने एक राजनैतिक पार्टी की स्थापना की होती, किंतु यह सब उनका लक्ष्य नहीं था।
“राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रादुर्भाव उस समय हुआ, जब अंग्रेजों की दासता में भारतीय संस्कृति का सर्वनाश हो रहा था। इससे व्यथित होकर डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। उनमें समाज सेवा तथा देशभक्ति कूट-कूटकर भरी थी। उन्होंने बाल्यावस्था में ही बालकों के साथ मिलकर सीतावर्डी के दुर्ग से अंग्रेज यूनियन जैक का झंडा उतारने के लिए सुरंग बनाने की योजना बना डाली थी। इससे उनकी राष्ट्रीय भावना का परिचय मिलता है”।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने विजयादशमी के पावन अवसर पर 1925 में की थी। प्रतिनिधि सभा, मार्च 2024 के अनुसार- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 922 जिलों, 6597 खंडों और 27,720 मंडलों में 73,117 दैनिक शाखाएं हैं, प्रत्येक मंडल में 12 से 15 गांव शामिल हैं। समाज के हर क्षेत्र में संघ की प्रेरणा से विभिन्न संगठन चल रहे हैं जो राष्ट्र निर्माण तथा हिंदू समाज को संगठित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। संघ के विरोधियों ने तीन बार इस पर प्रतिबंध लगाया – 1948, 1975 एवं 1992 में। लेकिन तीनों बार संघ पहले से भी अधिक मजबूत होकर उभरा। संघ एक सामाजिक—सांस्कृतिक संगठन है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ‘हिन्दू’ शब्द की व्याख्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संदर्भ में करता है जो किसी भी तरह से (पश्चिमी) धार्मिक अवधारणा के समान नहीं है। इसकी विचारधारा और मिशन का जीवंत सम्बन्ध स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द, बाल गंगाधर तिलक और बी. सी. पाल जैसे हिन्दू विचारकों के दर्शन से है। स्वामी विवेकानंद ने यह महसूस किया था कि “एक सही अर्थों में हिन्दू संगठन अत्यंत आवश्यक है जो हिन्दुओं को परस्पर सहयोग और सराहना का भाव सिखाए”।
स्वामी विवेकानंद के इस विचार को डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने व्यवहार में तब्दील कर दिया। उनका मानना था कि हिन्दुओं को एक ऐसे कार्य-दर्शन की आवश्यकता है जो इतिहास और संस्कृति पर आधारित हो, जो उनके अतीत का हिस्सा हो और जिसके बारे में उन्हें कुछ जानकारी हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं ‘स्व’ के भाव को परिशुद्ध कर एक बड़े सामाजिक और राष्ट्रीय हित की भावना में मिला देती हैं।
वस्तुतः हम यह कह सकते हैं कि हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र करने व हिन्दू समाज, हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र कों परम वैभव तक पहुँचाने के उद्देश्य से डॉक्टर साहब ने संघ की स्थापना की।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : महान भारत का संकल्प
संघ कोई राजनीतिक दल नहीं है, अपितु एक सामाजिक संगठन है। इसकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, और न ही यह राजनीतिक परिणामों के लिए काम करता है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन पर इसका प्रभाव परिलक्षित होता है, तो भी यह राजनीति से दूर ही रहता है। इसकी शाखा पद्धति में जरूर ऐसे स्वयंसेवक तैयार हुए हैं, जो आज राजनीति में उच्च स्थानों पर हैं। संघ का साधारण सिद्धांत यह है कि संघ शाखा चलाने के सिवाय कुछ नहीं करेगा और स्वयंसेवक कोई कार्यक्षेत्र नहीं छोड़ेगा। स्वयंसेवक समाज के सभी क्षेत्रों यथा- शिक्षा, राजनीति, अर्थशास्त्र, सुरक्षा व संस्कृति इत्यादि क्षेत्रों में काम करते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का केवल एक ही ध्येय है-
भारत को महान बनाना। संघ एक सशक्त हिन्दू समाज के निर्माण के लिए सभी जाति के लोगों को एक करना चाहता है।
महात्मा गांधी की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति जिज्ञासा पर डॉ. हेडगेवार का उत्तर
गांधी जी का एक प्रश्न यह था कि डॉ. जी ने अपना संगठन कांग्रेस जैसी लोकप्रिय संस्था की छाया में ही क्यों नहीं प्रारंभ किया? क्या कांग्रेस ने आर्थिक समर्थन देने से इनकार किया था? उदारमनस्क लोगों की क्या कांग्रेस में कमी थी। डॉक्टर जी का उत्तर था – “कांग्रेस का कार्य करते समय उसकी छाया में ही स्थायी स्वयंसेवक संगठन खड़ा करने का ही उन्होंने प्रथमतः प्रयास किया था। किंतु सफलता नहीं मिली। प्रश्न पैसों का नहीं था। पैसों के बल पर सभी कुछ नहीं किया जा सकता। प्रश्न था स्वयंसेवक संगठन की ओर देखने की दृष्टि का। कांग्रेस में कार्य करने वाले भले लोगों की संख्या काफी तो थी, किंतु उन लोगों का ध्यान हमेशा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति की ओर ही लगा रहता है। सामयिक राजनीतिक हितों के परे उनकी दृष्टि आमतौर पर जाती ही नहीं। उन लोगों की राय में स्वयंसेवक संगठन का उपयोग यही है कि स्वयंसेवक उनके अपने कामो के लिए भाग-दौड़ करें। राष्ट्र के लिए स्वयं प्रेरणा से कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं का निर्माण करने वाले सामर्थ्यशाली संगठन उनकी विचारशक्ति के बूते से बाहर है। फिर देश के नवनिर्माण की आशा उनसे कैसे की जा सकती है। इसलिए संघ की स्थापना एवं संगठन देश के नवनिर्माण का एक प्रयास है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सब समान हैं। यहाँ किसी भेदभाव को प्रश्य नहीं। ‘आदर्शवादी स्वयंसेवक’ यही उन सबकी भूमिका और इसी में संघ के बढ़ते सामर्थ्य का रहस्य है”।
जब देश में कांग्रेस का कार्य जारी है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की क्या आवश्यकता है, इस बात का जवाब डॉक्टर जी की उस टिप्पणी में मिल जाता है। विशेष उल्लेखनीय बात यहाँ है कि यह टिप्पणी उन्होंने संघ की स्थापना के पांच वर्ष के अन्दर ही लिखी है।
डॉक्टर जी लिखते हैं, “हिन्दू-संस्कृति हिन्दुस्तान का प्राण है। अतएव हिन्दुस्तान का संरक्षण करना हो तो हिन्दू-संस्कृति का संरक्षण करना हमारा पहला कर्त्तव्य हो जाता है। हिन्दुस्तान की हिन्दू-संस्कृति ही नष्ट होने वाली हो तो, हिन्दू समाज का नामोनिशान हिन्दुस्तान से मिटने वाला हो, तो फिर शेष जमीन के टुकड़े को हिन्दुस्तान या हिन्दूराष्ट्र कैसे कहा जा सकता है ? क्योकि राष्ट्र जमीन के टुकड़े का नाम तो नहीं है… यह बात एकदम सत्य है। फिर भी हिन्दू-धर्म तथा हिन्दू-संस्कृति की सुरक्षा एवं प्रतिदिन विधर्मियों द्वारा हिन्दू समाज पर हो रहे विनाशकारी हमलों को कांग्रेस द्वारा दुर्लक्षित किया जा रहा है, इसलिए इस अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आवश्यकता है। फिर भी यह संघ कांग्रेस का कदापि विरोधी नहीं है। हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के मार्ग में बाधा न बनने वाले स्वतंत्रता प्राप्ति के कार्यक्रमों में संघ कांग्रेस के साथ सहयोग करेगा और आज तक करते आया भी है।”
भारत का स्वाधीनता संग्राम
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही जिसे डॉ. साहब के अथक प्रयासों के संदर्भ में समझा जा सकता है। कलकत्ता (कोलकाता) में श्याम सुन्दर चक्रवर्ती और मौलवी लियाकत हुसैन से डॉक्टर जी की घनिष्ठ मित्रता रही। उनके स्वाधीनता-संग्राम साथी मौलवी लियाकत हुसैन अपने जीवन-कर्म में सच्चे भारतीय थे। उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन में सक्रिय रहते हुए तुर्की टोपी पहनना सदा के लिए छोड़ दिया। उन्हीं दिनों कलकत्ता में क्रांतिकारियों के बीच रत्नागिरी का आठले नाम का एक बम निर्माता क्रांतिकारी युवक आया, जिसने कलकत्ता के पास एक ग्राम में क्रांतिकारियों को बम बनाना सिखाया। डॉ. हेडगेवार ने भी उससे बम बनाना सीखा परन्तु उसी बीच आठले की मृत्यु हो गई, जिसका अंतिम संस्कार डॉ. हेडगेवार तथा श्याम सुन्दर चक्रवर्ती ने गुप्त रूप से किया। क्रांतिकारी रहकर ही डॉक्टर जी ने कभी विवाह न करने का संकल्प किया था।
संघ के वरिष्ठ अधिकारी बाबा साहब आप्टे बताते थे, “ जब सन 1939 का वर्ष समाप्ति की ओर था और यूरोप में महायुद्ध जारी था उन दिनों डॉ. हेडगेवार को रात-दिन एक ही चिंता रहती थी कि महायुद्ध की इस स्थिति में अंग्रेजों को भारत से जड़-मूल सहित उखाड़ फेंकने के लिए उतना प्रभावी और शक्तिशाली संगठन भी जल्दी ही खड़ा कर लेना है -अतः उन दिनों जब कभी कोई स्वयंसेवक उनसे जोर देकर कहता कि, ‘डॉक्टर साहब! अपने संगठन कार्य के लिए एक बड़े कार्यालय की जरुरत है। संघ का वैसा कार्यालय नहीं है, आप उसे बनवाने का विचार करिए।‘ तो डॉक्टर जी कह दिया करते थे कि, ‘अरे, इस समय जरुरत है संघ का कार्य बढाने की- उसी में सब शक्ति लगाओ, वर्ना तुम जो विशाल कार्यालय बनाओगे और अंग्रेज उसी में ठाठ से अपनी कचहरी लगाकर बैठेंगे।‘ स्पष्ट ही ब्रिटिश दासता डॉक्टर जी की नजरों से कभी ओझल नहीं हो पाई।
संघ के सरकार्यवाह रह चुके भैयाजी दाणी भी लिखते हैं, “अंग्रेज सरकार के रोष तथा निषेध की परवाह न करते हुए अपने विद्यालय में डॉक्टर जी ने ‘वंदेमातरम्’ का उद्घोष गुंजाया, भले इसके लिए उन्हें वह विद्यालय छोड़ देना पड़ा”।
अपने क्रांतिकारी जीवन में डॉक्टर हेडगेवार ने स्वयं शस्त्रों का प्रयोग किया, वह भी इतनी सावधानी से कि तत्कालीन अंग्रेज सरकार संदेह होते हुए भी उन्हें पकड़ न सकी। उनके इस सशस्त्र आन्दोलन ने अंग्रेज शासकों में आतंक उत्पन्न किया और जनता में अंग्रेज सरकार के प्रति असंतोष पैदा किया। डॉक्टर जी को मातृभूमि का स्वातंत्र्य सौभाग्य चाहिए था और अपने जीवन में ही देश का स्वातंत्र्य देखना उनका अभीष्ट था। उसी दिशा में उन्हें निश्चित कदम उठाने थे। प्रखर क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर, उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर और छोटे भाई डॉ. नारायण दामोदर सावरकर, वामनराव जोशी, बैरिस्टर अभ्यंकर तथा सुभाष चन्द्र बोस उनके स्नेही थे। सन 1922-23 में पुलगांव में वर्धा तालुका परिषद् आयोजित हुई। परिषद् के सामने जब स्वराज्य का प्रस्ताव रखा गया तो उसमे अहमदाबाद-कांगेस द्वारा स्वीकृत ‘स्वराज्य’ शब्द का अर्थ कुछ लोग ‘ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज’ करते थे, परन्तु डॉक्टर जी को यह कादापी मान्य न था। वह तो ब्रिटिश राज्य विहरित स्वराज्य को ही वास्तविक स्वराज्य मानते थे, क्योंकि वह प्रखर स्वातंत्र्यवादी थे। अतः डॉक्टर जी ने परिषद् में जब स्वराज्य का प्रस्ताव रखा तो उसमें ‘ब्रिटिश राज्य विरहित’ स्वराज्य, यह संशोधन सुझाया।
डॉ. हेडगेवार और संघ एक-दूसरे के पर्याय थे। जब कभी भी किसी प्रभावशाली व्यक्ति का निधन होता है तो उससे जुडी संस्था को अपूरणीय क्षति का सामना करना पड़ता है। संघ के बारे में भी इसके मित्र और ईष्यालु भाव से पीड़ित दोनों प्रकार के लोग ऐसा ही सोचते थे। परन्तु सार्थक उद्देश्य के लिए समर्पित इस सारथी ने संघ को कालजयी बना दिया। तभी तो लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित अंग्रेजी समाचार पत्र ‘मराठा’ ने 23 अगस्त, 1940 को अपने प्रथम पृष्ठ पर जो पहला बड़ा समाचार प्रकाशित किया उसका शीर्षक था ‘डॉ. हेडगेवार्स संघ स्टील गोइंग स्ट्रांग’।
कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियाँ
जिस काल काल खंड में डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की वह मुस्लिम तुष्टिकरण का काल था। 1920 में देश में खिलाफत आन्दोलन शुरू हुआ। मुसलमानों का नेतृत्व मुल्ला-मौलवियों के हाथों में था।
इस काल खंड में मुसलमानों ने देश में अनेक दंगे किये। केरल में मोपला मुसलमानों ने विद्रोह किया। उसमें हजारों हिन्दू मारे गये। मुस्लिम आक्रान्ताओं के आक्रमण के कारण हिन्दुओं में अत्यंत असुरक्षितता की भावना फैली थी। हम संगठित हुए बिना मुस्लिम आक्रान्ताओं के सामने टिक नहीं सकेंगे, यह विचार अनेक लोगों ने प्रस्तुत किया। मुसलमानों का प्रतिकार करने के लिए हिंदुओं का संगठन करना चाहिए यह अर्थ लोगों के ध्यान में तुरंत आता था।
उस समय के नेता मुसलमान समाज को धर्मांध समाझते थे और यही सारे झगड़े की जड़ होने के कारण, उस समाज में शिक्षा का प्रसार करना, एक प्रमुख भाग मानते थे।
डॉक्टर जी इस बात से सहमत न थे। वे उस समाज की धर्मान्धता तथा अपढ़ता को तो स्वीकार करते थे किंतु उसे संघर्ष का कारण नहीं मानते थे। वे तो उसका कारण उनके शिक्षित नेताओं में ढूंढते थे जिनके मन में अपने गत राज्य और वैभव को प्राप्त करने की इच्छाएँ प्रस्फुटित थी और जिसको कि अंग्रेजों ने ‘ऐतिहासिक अल्पसंख्यक’ कहकर बढ़ावा दिया था।
कांग्रेस द्वारा चलाया जा रहा खिलाफत आन्दोलन डॉ. साहब को पसंद न था। वे उसे सदा ‘अखिल आफत’ ही कहा करते थे। इसी समय से कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को अपनाया और भारतवर्ष की राजनीति में जमातवाद घुस आया जो कि डॉक्टर जी को कतई पसंद नहीं था।
आखिर उस समय के बड़े-बड़े नेताओं ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति क्यों अपनाई? इसका पहला और प्रमुख कारण यह दिखता है कि अंग्रेज शासक मुसलमान जमातवाद को बढ़ावा देकर उनको हिस्टोरिकल मायनांरिटी अर्थात ऐतिहासिक अल्पसंख्यक कहते हुए राजकीय जीवन में अधिक सहूलियतें देकर सामान्य जन-जीवन से भी पृथक कर रहे थे।
डॉक्टर साहब को अपने समाज की धीर वृति पर पूरा भरोसा था। वे उसे भीरु मानने के लिए कदापि तैयार नहीं थे। उन्हें अपनी प्राचीन परंपरा तथा जीवन-ध्येय पर भी पूर्ण निष्ठां थी। हाँ! वे इस बात को मानते थे कि हिन्दू समाज अपनी परंपरा भूल गया है। अंग्रेजों ने जाति व्यवस्था के स्थान पर जातिभेद शब्द का उपयोग कर जाति-जाति में भेद डालकर, जाति-जाति में ही संघर्ष का निर्माण किया था। इस कारण यहाँ का समाज छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गया था और आपस में संघर्षरत भी था। यही कारण था कि जिससे विशाल समाज अपने को दुर्बल पाता था और इसी कारण से वह अन्य समाजों के आक्रमणों का शिकार बनता जा रहा था।
परन्तु कुछ नेताओं को यह तुष्टिकरण पसंद नहीं था। इसलिए वे हिन्दू समाज को बलशाली करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने हिन्दू समाज के लिए हिन्दू सभा निकाली। डॉक्टर साहब उसमें भी रहे परन्तु वे उससे संतुष्ट नहीं हुए। अतः यह कहा जा सकता है कि इस देश में चलने वाले करीब-करीब सभी आन्दोलनों में न केवल उनका सक्रिय सहयोग ही रहा अपितु उनमें वे अग्रसर भी रहे।
हिन्दू पुनर्जागरण
10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दुओं को अपने गौरवशाली अतीत की महानता का बोध होना शुरू हुआ और विस्मृत राष्ट्रभाव का पुनर्जागरण प्रारम्भ हुआ। स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त के आधार पर सार्वभौम हिन्दुत्व का प्रचार किया। आधुनिक भारत के अन्तर्राष्ट्रीय शंकराचार्य के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उनके प्रयासों से हिन्दू धर्म का न केवल उद्धार हुआ, अपितु हिन्दू समाज को उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठित भी किया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राजनारायण बोस, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, योगी अरविन्द, डा. केशव बलिराम हेडगेवार जैसे हिन्दू-हित चिंतकों ने विश्व के समक्ष यह संदेश दिया कि हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय एकता का आधार हिन्दू धर्म है और स्वयं हिन्दू एक धर्म प्रधान एवं प्रकृति के सार्वभौमिक सिद्धान्तों पर आधार जीवन पद्धति है।
आधुनिक सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हिन्दू-हित चिंतक कौन है? अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर कौन-कौन हिन्दू हित चिंतक हुए हैं और उनके प्रयासों की प्राथमिकताएं क्या रही हैं? 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में घटित घटनाक्रमों से इन प्रश्नों का यदि उत्तर प्राप्त करने का प्रयास किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि पश्चिमी देशों में जीवन के लक्ष्य का सदैव अभाव रहा है। भौतिक सुख-समृद्धि ही जीवन का मानक बन गया था। इसलिए पश्चिमी देश संवेदनहीन हो गए थे। साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद जैसी वैचारिकी इस भौतिकवादी पृष्ठभूमि की उपज रही है। स्वामी विवेकानन्द जैसे हिन्दू चिंतकों का पश्चिमी देशों में हिन्दुत्व के आदशों को प्रस्थापित कर उन्हें अंधकार से अलग करने का प्रयास भी किया गया था। लेकिन भौतिकता की अंधी दौड ने अततः नाजीवादी, फांसीवाद एवं साम्यवाद जैसे विचारों को जन्म देकर पश्चिमी देशों को महायुद्धों की विनाशलीला में झोंक दिया था। इस संदर्भ में हिन्दू आदर्शो का यदि अनुपालन किया जाता तो सम्भवतः मानवीय विनाश के उन दृश्यों को रोका जा सकता था जो विश्व – मानव की छाती पर एक भीषण घटित दुर्घटना के चोट के चिह्न रूप में विद्यमान है। स्वामी विवेकानन्द ने जीवन जीने का लक्ष्य एव मानन संस्कृति के मूल रहस्यों को पश्चिमी समाज के समक्ष उद्घाटित किया था।
‘हिन्दू संगठन अर्थात हिन्दू समाज की स्वाभाविक शक्ति का जागरण’। स्वामी विवेकानन्द के प्रयासों से पश्चिमी समाज में हिंदुत्व के प्रति एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ था और लोग हिन्दू संस्कृति के मूल रहस्यों को जानने के लिए आकर्षित हुए। स्वामी विवेकानंद को हिन्दू राष्ट्रीयता का विश्व में प्रथम उद्घोषक कहा जा सकता है। उन्होंने विश्व के समक्ष भारत की मूल्यवान आध्यात्मिक धरोहर को प्रतिष्ठित किया तथा हिन्दू धर्म के मूल रहस्यों से विश्व को अवगत कराया।
राष्ट्रीय संदर्भ में स्वामी रामतीर्थ, महर्षि दयानन्द, डा. केशव बलिराम हेडगेवार, महात्मा गांधी, डा. अम्बेडकर, एम.एस. गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, दत्तोपंत ढेगडी जैसे चिंतकों ने हिन्दुओं को चिन्तन की एक नयी शैली एवं विधा से सुसज्जित कर हिन्दुत्व के पुनरुत्थान का सार्थक प्रयास किया। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अन्तरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय परिदृश्य में कई ऐसे संगठन प्रभाव में आये जिन्होंने हिन्दू धर्म की सनातन मर्यादा को प्रस्थापित करने का प्रयास किया। अमेरिका जैसे विकसित भौतिकवादी देश में हिन्दुत्व के प्रति आकर्षण सन् 1960 के दशक में तथा उसके बाद निरन्तर बना हुआ है। स्वामी प्रभुपाद, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश आदि ने हिन्दू दर्शन के कुछ रहस्यों को विश्व के समक्ष प्रकट कर भौतिक जगत को आश्चर्य में डाल दिया है।
हिन्दू चिंतकों के विचारों का यदि मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने विश्व समुदाय में हिन्दुत्व के प्रति फैले भ्रम को न केवल दूर करने का प्रयास किया, अपितु हिन्दुस्तान में सनातन संस्कृति के प्रति जो वैषम्यतापूर्ण विचारधाराएं बलवती हो रही थीं उन्हें भी प्रतिबन्धित करने का प्रयास किया। इन विचारकों ने सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए उन समस्त कुरीतियों को दूर करने का आवाहन किया। इस परिप्रेक्ष्य में आधुनिक भारत के वर्तमान हिन्दू-हित चिंतकों का यह दायित्व होना चाहिए कि वे हिन्दुत्व के मानवीय एवं कल्याणकारी मूल्यों को स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयास कर और इस दिशा में आने वाली बाधाओं को निर्मूल करते रहें।
पूर्व वैदिक लोक जीवन के सम्बन्ध में प्राप्त तथ्य यह इंगित करते हैं कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनैतिक संरचना में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार समान थे। राजसत्ता के प्रारम्भ होने के पूर्व भूमि पर कुटुम्ब का स्वामित्व ही प्रभावी था। ग्राम नदियों के किनारे, विरल जंगलों से घिरे हुए तथा कृषि भूमि की उर्वरता के आधार पर बसे हुए थे। ग्रामों की संरचना कुल अथवा वंश द्वारा निर्धारित होती थी। सामान्यत: पितृवंशीय परिवार ही अस्तित्व में थें। उर्वरा भूमि की उपलब्धता एवं प्रकृतिपरक जीवनयापन करने वाला हिन्दू समाज शान्तिप्रिय एवं धर्मानुरागी प्रकृति का था।
वैदिक लोकजीवन का स्वरूप अपेक्षाकृत सरल था। समाजं में सम्पत्ति, स्त्री, सुख जैसी अवधारणाएं लोकजीवन का .अभिन्न अंग स्वीकार कर ली गई थीं। एक ही पिता के चार पुत्रों का चार वर्णों में होने का भी संकेत प्राप्त होता है। उत्तर वैदिक काल में सत्ता संघर्ष की स्थितियां धीरे-धीरे जटिल हो रही थीं। नगर अस्तित्व. में आने लगे थे। पत्थरों के साथ-साथ लोहे के सुदृढ़ किले भी अस्तित्व में थे। काम्पिल (पांचालों की राजधानी), आसन्दीवन्त (कुरु राजधानी), तथा कौशाम्बी नगरों का उल्लेख प्रधानता से मिलता है जो तत्कालीन प्रमुख राज्यों की राजधानी थे। ग्रामीण एवं नगरीय जीवन सुख-समृद्धि से परिपूर्ण था।
वैदिक कालीन हिन्दू समाज सुव्यवस्थित तथा सुसंगठित था। कृषि तथा पशुपालन आजीविका का प्रमुख आधार थां। पृथु ही प्रथम राजा थे जिन्होंने पथरीली भूमि को जोतकर कृषि योग्य समतल बनाया था और इसलिए उनका पृथ्वी नामकरण हुआ। खेत के लिए उर्वर या क्षेत्र शब्द प्रयोग में आया है जिसका स्वामी व्यक्ति अथवा उसका कुटुम्ब होता था। बढ़ई, कुम्हार, रथकार, बुनकर, निषाद आदि का उल्लेख यह इंगित करता है कि कृषि के अतिरिक्त अन्य आवश्यक व्यवसाय भी प्रचलन में थे। बाजार, स्थल एवं समुद्री व्यापार का भी उल्लेख प्राप्त होता है। व्यापार हेतु गाय के अतिरिक्त स्वर्ण एवं चांदी की मुद्राएं प्रचलन में थीं। प्रत्येक व्यक्ति समान अधिकारों से युक्त था। व्यावसायिक विविधता से समाज में उसके वैयक्तित्व अधिकार निष्प्रभावी थे।
बौद्ध धर्म के माध्यम से हिन्दू धर्म के आध्यात्मिक रहस्य अन्य देशों के निवासियों द्वारा व्यवहृत किए जाने लगे। गुप्त एवं मौर्य वंश में भी सद्भावना का चित्रण प्राप्त होता है। मुगलकाल एवं ब्रिटिश शासन के अंतर्गत हिन्दू लोक जीवन विखंडित हो गया। हिन्दू धर्म के मूल रहस्यों से अनभिज्ञ आक्रांताओं ने न केवल वैयक्तिक अधिकारों का हनन किया अपितु हिन्दू धर्म के मूल ग्रंथों को भी नष्ट कर दिया। 1000 वर्षो तक सनातन संस्कृति विधर्मियों के प्रहार को झेलती हुई लगभग मृतप्राय बना दी गई थी। अब आवश्यकता है कि मूल्य परक हिन्दू जीवन पद्धति जिससे न केवल मानव अपितु प्रकृति एवं जीव-जन्तु जगत का भी उत्थान सम्भव है, उसे पुनः प्रतिष्ठित किया जाए।
हिन्दुत्त्व एक जीवन पद्धति है, जो अपनी प्रकृति में सनातन है। ‘सनातन’ शब्द उन जीवन मूल्यों और सिद्धांतों का द्योतक है, जो शाश्वत हैं। यह उस ज्ञान की अभिवृद्धि करने वाला है, जिसने समय के आघातों और ऐतिहासिक उठा-पटक को पीछे छोड़ दिया है। जीवन का यह दर्शन व्यापक, अपने आप में परिपूर्ण और मानवीय है। यह सबकी भलाई और सबके कल्याण का वाहक है।
वस्तुतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य हिन्दुओं को जाति, क्षेत्र और भाषा के कृत्रिम विभाजन के चलते उत्पन्न सामाजिक-सांस्कृतिक विरोधाभासों से उबारना है। इसकी आकांक्षा है कि भारत को विश्व गुरु का स्थान अपने कर्तृत्व, दर्शन और सांस्कृतिक प्रभाव से पुनः मिले।
सन्दर्भ
• सुनील आंबेकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र, प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली
• केशव : संघनिर्माता : चंद्रशेखर परमानन्द भिशीकर, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, नयी दिल्ली
• रमेश पतंगे, डॉ. हेडगेवार: एक अनोखा नेतृत्व, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, नयी दिल्ली
• भूतपूर्व सरकार्यवाह, स्व. प्रभाकर बलवंत दाणी(भैयाजी दाणी), संघ दर्शन, राष्ट्रधर्म पुस्तक प्रकाशन, लखनऊ
• राकेश सिन्हा, आधुनिक भारत के निर्माता: डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, प्रकाशन विभाग
• डॉ. विजय सोनकर शास्त्री, हिन्दू वैचारिक : एक अनुमोदन, विश्व हिन्दू परिषद्, द्वितीय संस्करण, 2006,
• हिन्दुत्व के स्वर : डा. कैलाशचन्द्र, सांस्कृतिक गौरव संस्थान
• बालासाहब देवरस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : सामाजिक परिवर्तन की दिशा, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, नयी दिल्ली
• प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे, संघमंत्र के उद्गाता: डॉ. हेडगेवार, भारत भारती बाल पुस्तकमाला प्रकाशन, नागपुर
• राकेश सिन्हा, संघ और राजनीति, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
• लोकनायक जयप्रकाश नारायण की दृष्टि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, नयी दिल्ली
• देवेन्द्र स्वरूप, संघ बीज से वृक्ष, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
• रतन शारदा, आरएसएस 360० राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- परत दर परत, ब्लूम्स बुरी