सांस्कृतिक गौरव के लिये समर्पित जीवन : आरक्षण का लाभ जनजातियों को ही मिले : धर्मान्तरित को नहीं : अभियान चलाया

images-4.jpeg

रांची । स्वतंत्रता के साथ विदेशी सत्ता से मुक्ति का संघर्ष तो समाप्त हो गया था लेकिन भारत के सांस्कृतिक गौरव और परंपराओं की स्थापना का संघर्ष अभी चल रहा है। स्वतंत्रता के पहले और बाद में कितने ही महापुरूषों ने स्वत्व केलिये अपना जीवन समर्पित किया। वनवासी नायक कार्तिक उरांव ऐसी ही विभूति थे। उन्होंने एक ओर आदिवासी समाज में साँस्कृतिक जागरण का अभियान चलाया तो दूसरी ओर धर्मान्तरण करने वालों को आरक्षण का लाभ न देने का राजनैतिक अभियान भी चलाया। लेकिन पता नहीं भारतीय समाज में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की उतनी चर्चा नहीं होती जितना उनका चिंतन रहा है।
भारत के वनक्षेत्र में दोनों प्रकार के संघर्ष हुये। एक राष्ट्ररक्षा के लिये युद्ध के मैदान, और दूसरा संस्कृति रक्षा केलिये गांव गांव में। युद्ध के मैदान में भी वनवासी नायकों के असंख्य बलिदान हुये हैं और आदिवासी संस्कृति की रक्षा केलिये भी असंख्य विभूतियों ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। वनक्षेत्र में आदिवासी संस्कृति रूपान्तरण का कुचक्र स्वतंत्रता के बाद भी कम न हुआ। इसका कारण अंग्रेजों का वह कुचक्र था जो उन्होंने अपनी सत्ता स्थापना के बाद भारत के वनक्षेत्र की संपदा हथियाने और वनवासियों को अपना स्थाई सेवक बनाने केलिये रचा था। वनक्षेत्र में यह काम ईसाई मिशनरीज ने आरंभ किया था। वनवासी क्षेत्रों में मिशनरीज की यह सक्रियता 1773 के आसपास आरंभ हुई और केवल पचास वर्षों में पूरे भारत के वनक्षेत्र में पहुँच गये। मिशनरीज के प्रभाव में आदिवासी समाज अपनी परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं से दूर होकर ईसाई धर्म अपनाने लगे। ऐसी विषम परिस्थिति में जन्म हुआ था सुप्रसिद्ध विचारक शिक्षाविद् और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कार्तिक उरांव का। उनका पूरा इसी संघर्ष में बीता। वे अपने छात्र जीवन में ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गये थे। पटना में पढ़ते हुये भारत छोड़ो आँदोलन और इसके बाद प्रभात फेरियों में सतत सक्रिय रहे। महाविद्यालय में भी भारत राष्ट्र के अखंड गौरव पर युवाओं की संगोष्ठियाँ आयोजित कीं। और फिर आगे पढ़ने केलिये अमेरिका चले गये।

ऐसी विलक्षण प्रतिभा के धनी कार्तिक उरांव का जन्म 29 अक्टूबर 1924 को झारखंड राज्य के गुमला जिला अंतर्गत करौंदा लिटाटोली गाँव में हुआ था। उनका परिवार इसक्षेत्र में आदिवासियों के “कुरुख” जनजाति शाखा से संबंधित थे। पिता जयरा उरांव का आदिवासी समाज में एक प्रमुख स्थान था और माता बिरसी उरांव अपनी परंपराओं और संस्कृति केलिये बहुत समर्पित थीं। कार्तिक उरांव चार भाइयों में सबसे छोटे थे। उनका जन्म भारतीय पंचांग के अनुसार कार्तिक माह में हुआ था। इसलिए परिवार के बड़े बुजुर्गों ने उनका नाम कार्तिक रखा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई और 1942 में हाई स्कूल परीक्षा जिला मुख्यालय गुमला से उत्तीर्ण की। 1942 में ही आगे की पढ़ाई केलिये पटना आ गये। पटना में गाँधीजी के आव्हान भारत छोड़ो आँदोलन का बहुत जोर था। सभाएँ और प्रभात फेरियाँ निकल रहीं थीं। वे इन प्रभात फेरियों में स्वयं भी शामिल होते और अपने साथी युवाओं को भी प्रोत्साहित करते। उन्होंने पटना के साइंस कॉलेज से इंटरमीडिएट और बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इंजिनियरिंग की स्नातक डिग्री लेकर भी उन्होंने इंजीनियरिंग में अपनी पढ़ाई जारी रखी। वे इंजीनियरिंग का संपूर्ण स्वरूप समझना चाहते थे। इसलिये उन्होंने इंजीनियरिंग के विभिन्न विषयों में ही अपनी पढ़ाई की और नौ डिग्रियाँ प्राप्त कीं। इनमें से कुछ डिग्रियाँ भारत में और कुछ अमेरिका जाकर भी पढ़े। इंजीनियरिंग की इतनी डिग्रियाँ लेने के बाद वे लंदन चले गये। लंदन जाकर वकालत डिग्री प्राप्त की। इंजिनियरिंग की नौ डिग्रियों के साथ वकालत पास करने वाले वे आदिवासी समाज में ही नहीं पूरे भारत में भी पहले व्यक्ति थे। पढ़ाई पूरी करके भारत लौटे और बिहार के सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता बन गये। विदेश में रहकर इतनी डिग्रियाँ लेने के बाद भी वे अपने निजी जीवन में अपनी मातृभाषा उरांव सादरी और कुरुख का ही उपयोग करते थे। वे अक्सर अपने गाँव जाते और समाज का पिछड़ापन, मिशनरीज द्वारा आदिवासी संस्कृति समाप्त करने का अभियान उन्हें विचलित करता था। उनका मन न गाँव में लगता था न नौकरी में। वे वापस लंदन चले गये। वहाँ उन्होंने कई संस्थानों में काम किया। ब्रिटिश रेलवे और ब्रिटिश ट्रांसपोर्ट कमीशन से जुड़कर विश्व के सबसे बड़े हिंकले प्वाइंट एटॉमिक पावर स्टेशन का डिजाइन उन्होंने ही तैयार किया था। इसकी चर्चा पूरे विश्व में हुई। प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह वे भारत लौट आए। यहाँ आकर हेवी इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन में डिप्टी चीफ इंजीनियर एवं चीफ स्ट्रक्चरल डिजाइन ऑफिस एंड स्ट्रक्चरल फैब्रिकेशन वर्कशॉप बने।

अपनी इस उच्च स्तरीय नौकरी के साथ उन्होंने समाज जागरण अभियान आरंभ किया। इसके लिये अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद नामक संगठन की स्थापना की थी। यह संगठन गैर राजनीतिक था और इसका उद्देश्य केवल सामाजिक एवं सांस्कृतिक जागरण था। नेहरुजी के आग्रह पर ही वे राजनीति में आये। 1962 में काँग्रेस प्रत्याशी के रूप में बिहार के लोहरदगा क्षेत्र से पहला लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन इस चुनाव में जीत न सके। लेकिन 1967 में इसी क्षेत्र से लोकसभा में पहुँचे।

पूरे देश में तीन सूत्रीय अभियान चलाया

उन्होंने देशभर की यात्रा की और आदिवासी समाज को जागरूक करने का अभियान चलाया। उनके अभियान के तीन प्रमुख विन्दु थे। एक तो सभी आदिवासी समाज अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करे, दूसरा यह कि सभी आधिवासी समाज हिन्दू हैं और तीसरा कि जिन आदिवासियों ने मतान्तरण कर लिया है उन्हें आदिवासियों के लिये निर्धारित आरक्षण एवं अन्य सुविधाओं से दूर रखा जाये।
कार्तिक उरांव जी ने अपनी सभाओं और लेखन जनजातीय समाज को यह समझाया कि ईसा से हजारों वर्ष पहले भी आदिवासी समाज रहा है। इसी समुदाय में निषादराज गुह, माता शबरी, कण्णप्पा आदि हो चुके हैं, इसलिए आदिवासी सदैव हिंदू थे और हिंदू रहेंगे। अपनी बात को प्रमाणित करने केलिये उन्होंने देश के विभिन्न भागों में आदिवासियों का पहनावा, मान्यताएँ, लोक जीवन की कथाएँ, भी आदिवासियों को हिन्दु प्रमाणित करते हैं। वे आराधना के प्रतीकों का उदाहरण देकर समझाया करते कि आदिवासी अपने समुदायों में जन्म तथा विवाह जैसे अवसरों पर गाए जाने वाले मंगल गीतों में जसोदा मैया द्वारा श्रीकृष्ण को झूला झुलाना, सीता मैया का पुष्प वाटिका में रामजी को निहारना जैसे प्रसंग आते हैं जो आदिवासियों को हिन्दू होना ही प्रमाणित करते हैं। उन्हें ‘पंखराज साहेब’ की संज्ञा दी गई। और आदिवासी समाज का “काला हीरा” कहा गया। वे तीन बार सांसद और भारत सरकार में मंत्री भी रहे। एक विधायक भी रहे।

मतान्तरण करने वालों को आरक्षण का लाभ देने का अभियान चलाया

वे अधिकारी रहे हों अथवा राजनीति में। उनका मिशनरीज के साथ वैचारिक संघर्ष सदैव रहा। उन्हें लगता था कि मिशनरीज जनजातीय समाज को भ्रमित करके आदिवासी संस्कृति मिटा रहीं हैं। कार्तिक उरांवजी का प्रत्येक पल जनजातीय संस्कृति और परंपराओं की पुनर्प्रतिष्ठा केलिये समर्पित रहा है। वे मतान्तरण कर लेने के बाद भी आरक्षण का लाभ लेने के विरुद्ध थे। उरांव जी का मानना था कि मिशनरीज सरकारी तंत्र से मिलकर आरक्षण और शासकीय योजनाओं का पूरा लाभ इन्हीं मतांतरित लोगों को दिला देतीं हैं जिससे जनजातीय समाज के समान्यजन वंचित ही रह जाते हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि आरक्षण और सरकारी योजनाओं का लाभ समाज के उन्ही वंचित बंधुओं को मिलना चाहिए जो आदिवासी परंपरा और संस्कृति से जुड़े हैं। जिन्होंने दूसरा धर्म अपना लिया है उन्हे इन सुविधाओं से दूर रखा जाना चाहिए। उन्होंने धर्मान्तरित व्यक्तियों द्वारा आरक्षण का लाभ लेने को जनजातीय समाज के साथ धोखा बताया। उन्होंने सरकार से भी अपेक्षा की कि कानून में संशोधन करके धर्मान्तरण करने वालों को आरक्षण एवं अन्य लाभ से दूर किया जाय। उन्होंने अपनी यह बात सभाओं में कही, आलेख भी लिखे और संसद में भी उठाई।
इसके लिये उन्होंने 1967 में अनुसूचित जाति/जनजाति आदेश संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। इस पर विचार केलिये संसद की एक संयुक्त समिति बनी और इस समिति ने 17 नवंबर 1969 को अपनी सिफारिशें भी प्रस्तुत कर दीं। उनमें प्रमुख सिफारिश यही थी कि यदि कोई व्यक्ति जनजातीय मत तथा विश्वासों का परित्याग करके ईसाई अथवा इस्लाम धर्म अपना लेता है तो वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा। इस समिति ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम में ऐसा संशोधन करने की सिफारिश कर दी। लेकिन फिर भी इस संशोधन विधेयक पर संसद में चर्चा टलती रही। एक लंबी प्रतीक्षा के बाद कार्तिक उरांव जी ने इन सिफारिशों पर लोकसभा में चर्चा केलिये हस्ताक्षर अभियान चलाया। उन्हें अनेक सांसदों का समर्थन मिला। उरांव जी ने 10 नवंबर 1970 को 322 लोकसभा सदस्य और 26 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को सौंपा और आग्रह किया कि समिति की सिफारिशों के अनुरूप संशोधन विधेयक पर चर्चा हो। 16 नवंबर 1970 को इस संशोधन विधेयक पर लोकसभा में चर्चा आरंभ हुई। लेकिन अगले ही दिन 17 नवंबर को सरकार की ओर से संयुक्त समिति की सिफारिशें विधेयक से हटाने केलिये एक संशोधन प्रस्तुत किया। 24 नवंबर 1970 को कार्तिक उरांव जी ने इस संशोधन विधेयक पर अपना पक्ष रखा। उनके तर्कों और तथ्यों से पूरा सदन प्रभावित हुआ।
किन्तु प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस संशोधन विधेयक पर सत्र के अंतिम चर्चा करने को कहा और चर्चा टल गई। लेकिन संसद के अंतिम दिन चर्चा न हो सकी और लोकसभा भंग हो गई। इसके साथ वह संशोधन विधेयक इतिहास का अंग बन गया।

जीवन की अंतिम श्वाँस तक सांस्कृतिक जागरण अभियान

उरांव जी ने यह कभी परवाह नहीं की कि उनके अभियान से कौन नाराज हो रहा है। काँग्रेस सांसद रहते हुये उन्होंने अधिनियम संशोधित करने का अभियान चलाया। यह माना जाता है कि मिशनरीज के दबाव में ही इंदिराजी ने वह चर्चा टाली थी। संसद में संशोधन न करा पाने की पीड़ा उन्हें जीवन भर रही। इसे कार्तिक जी ने एक पुस्तक लिखकर व्यक्त की। “बीस वर्ष की काली रात” नामक इस पुस्तक में मिशनरीज द्वारा आदिवासियों का धर्मांतरण करने का तरीका और आदिवासियों द्वारा अपने भोलेपन के कारण प्रभावित होने को उजागर किया ताकि आदिवासी समाज सावधान रहे। उन्होंने यह भी लिखा कि अंग्रेजी शासनकाल के 150 वर्षों में आदिवासियों का इतना धर्म परिवर्तन नहीं हुआ, जितना आजादी के बाद हुआ। वे सच्चे समाज सेवी, संस्कृति रक्षक उद्भट विद्वान और प्रखर प्रवक्ता थे। संसद में जब भी बोलते थे तो सब उनकी बाते ध्यान से सुनते थे। ‘द हिंदू’ जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने उन्हें ‘बाघ’ की संज्ञा दी थी, लिखा था- ‘एक आदिवासी, जो संसद में बाघ की तरह दहाड़ता है”।
उनका पूरा जीवन राष्ट्रगौरव और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा के पुनर्जागरण में बीता। सतत सक्रियता के बीच 8 दिसंबर 1981 को उन्हें संसद भवन में ही दिल का दौरा पड़ा और उन्होंने संसार से विदा ले ली। तब वे भारत सरकार में उड्डयन और संचार मंत्री थे।
उनके बाद उनकी पत्नी श्रीमती सुमति उरांव भी सांसद बनीं और फिर बेटी गीताश्री उरांव भी विधायक और झारखंड की शिक्षा मंत्री भी बनीं लेकिन कार्तिक उरांव जी के साँस्कृतिक जागरण अभियान उतनी गति न ले सके जो उनके समय रहे।

Share this post

रमेश शर्मा

रमेश शर्मा

श्री शर्मा का पत्रकारिता अनुभव लगभग 52 वर्षों का है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों में उन्होंने काम किया है। दैनिक जागरण भोपाल, राष्ट्रीय सहारा दिल्ली सहारा न्यूज चैनल एवं वाँच न्यूज मध्यप्रदेश छत्तीसगढ प्रभारी रहे। वर्तमान में समाचार पत्रों में नियमित लेखन कर रहे हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top