सांस्कृतिक मार्क्सवाद का प्रतिकार: बौद्धिक योद्धाओं की तैयारी और नई पीढ़ी का बोध

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कैलाश चंद्र

दिल्ली । आज का युग केवल आर्थिक या राजनीतिक संघर्षों का नहीं है, बल्कि यह विचारों का युद्ध है— “Mind Colonization” का युग, जहाँ व्यक्ति का मस्तिष्क, उसकी सोच, और उसकी सांस्कृतिक चेतना पर आक्रमण किया जा रहा है।

यह युद्ध बंदूक या बारूद से नहीं, बल्कि विचार, मीडिया, शिक्षा और मनोरंजन के माध्यमों से लड़ा जा रहा है। इस युद्ध का नाम है— कल्चरल मार्क्सवाद (#Cultural_Marxism)।

भारत जैसे विविधता और परंपरा-प्रधान देश के लिए यह चुनौती और भी गंभीर है। क्योंकि यहाँ संस्कृति केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका है। जिसमें परिवार, समाज, भाषा, उत्सव, कला और आस्था सभी जुड़े हैं। वह इन सभी से अभिव्यक्त होती है। अतः इसका संरक्षण केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि बौद्धिक और वैचारिक जिम्मेदारी भी है।

वर्तमान समय विचारों का युद्धक्षेत्र है। यहाँ न शस्त्र चल रहे हैं, न सेनाएँ— परंतु एक सतत युद्ध चल रहा है मनुष्य की चेतना पर। इस युद्ध का सामना केवल वही कर सकता है जो जागरूक, तर्कशील और सांस्कृतिक रूप से आत्मविश्वासी है।

इसलिए, आज आवश्यकता है बौद्धिक योद्धाओं की। जो विचार, तर्क और सृजन के माध्यम से समाज की रक्षा करें।

हमें युवाओं में यह भावना जगानी होगी कि वे गर्व करना सीखें, स्वयं पर, परिवार, पूर्वजों पर, इससे आगे केवल अपने अतीत पर गर्व न करें, बल्कि भविष्य के निर्माता भी बनें। जब नई पीढ़ी अपने अस्तित्व का बोध पाएगी, जब शिक्षा में भारतीयता का समावेश होगा, जब संवाद संस्कृति के केंद्र में सत्य और विवेक आएगा, तब भारत अपनी वैचारिक स्वतंत्रता पुनः प्राप्त करेगा।
यह केवल प्रतिकार नहीं, बल्कि पुनर्जागरण का मार्ग है।
और इस पुनर्जागरण का नेतृत्व वही करेगा
जो विचार को अस्त्र और सत्य को शस्त्र बनाकर युग के युद्ध में उतरेगा।

सांस्कृतिक मार्क्सवाद: संकल्पना और चुनौती
मार्क्सवाद मूलतः आर्थिक वर्ग-संघर्ष पर आधारित विचारधारा थी। लेकिन बीसवीं शताब्दी में एंटोनियो ग्राम्स्की और फ्रैंकफर्ट स्कूल के विचारकों ने इसे नया रूप दिया। जहाँ संघर्ष अब “आर्थिक वर्गों” के बजाय “संस्कृति और विचार” के स्तर पर लड़ा जाना था।
ग्राम्स्की ने कहा— “किसी भी समाज की आर्थिक संरचना को बदलने से पहले उसकी सांस्कृतिक संस्थाओं पर अधिकार जमाना आवश्यक है।”

इसी से उत्पन्न हुआ कल्चरल मार्क्सवाद— एक ऐसी विचारधारा जो पारंपरिक धर्म, संस्कृति, परिवार, भाषा और नैतिकता को “दमनकारी संस्थाएँ” बताकर उनकी आलोचना और विखंडन करती है।
यह विचारधारा कहती है कि समाज को “मुक्त” करने के लिए पहले उसके “मूल्यों” को नष्ट करना होगा।
भारत के संदर्भ में यह चुनौती और भी व्यापक है, क्योंकि यहाँ समाज की शक्ति संस्कृति और परंपरा में निहित है। जब यहाँ के मूल प्रतीक, देवी-देवता, परिवार प्रणाली, और मातृभूमि की अवधारणा पर लगातार प्रश्न उठाए जाते हैं— तब यह केवल विचार नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा पर आघात होता है।
‘Reject – Resist – Rebel’: सांस्कृतिक विखंडन की रणनीति
सांस्कृतिक मार्क्सवाद तीन चरणों में काम करता है—
सर्वप्रथम हमें उसके चरण, उद्देश्य और भारतीय समाज में उसके प्रभाव को
Reject (अस्वीकार)- पारंपरिक संस्कृति और धर्म की निरंतर आलोचना करना, हिंदू ग्रंथों, देवी-देवताओं और परंपराओं को लगातार पिछड़ा बताना ही कार्य है।
Resist (प्रतिरोध)- सांस्कृतिक प्रतीकों और संस्थाओं का विरोध करना, जाति के नाम पर वाद विवाद, पितृसत्तात्मक आरोपण, ब्राह्मणवाद के नाम पर अनेक प्रकार के जैसे विमर्शों से समाज में द्वंद्व उत्पन्न कर लड़ाना
Rebel (विद्रोह) – सामाजिक संघर्ष और विभाजन को बढ़ावा देना, धर्मांतरण, अलगाववाद, नक्सलवाद जैसे रूपों में अभिव्यक्ति करना
यह रणनीति धीरे-धीरे व्यक्ति को उसकी जड़ों से काट देती है। उसका विश्वास, गर्व, और सांस्कृतिक आत्मबोध खो जाता है।

बौद्धिक योद्धाओं की आवश्यकता
इस विचारधारा का प्रतिकार केवल नारों या भावनाओं से संभव नहीं है।
इसका उत्तर विचार से ही दिया जा सकता है— विचार के स्तर पर, ज्ञान के माध्यम से।
यही कारण है कि आज समाज को बौद्धिक योद्धाओं (Intellectual Warriors) की आवश्यकता है— वे व्यक्ति जो अध्ययन, लेखन, तर्क, और संवाद के माध्यम से समाज की वैचारिक रक्षा करें।
बौद्धिक योद्धा वह है जो:
• अपने समाज की जड़ों को समझता है,
• पश्चिमी विमर्शों को तर्क से चुनौती देता है,
• और नवयुवकों में आत्मगौरव और विवेक दोनों का विकास करता है।
ऐसे लोग केवल ‘रक्षक’ नहीं, बल्कि ‘पथ-प्रदर्शक’ भी होते हैं। वे धर्म को अंधविश्वास नहीं, बल्कि जीवनदर्शन के रूप में प्रस्तुत करते हैं; संस्कृति को स्थिरता नहीं, बल्कि जीवंतता का प्रतीक मानते हैं।

शिक्षा और संवाद की भूमिका
सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने सबसे अधिक प्रभाव शिक्षा और मीडिया पर डाला है।
पाठ्यपुस्तकों, फिल्मों, विश्वविद्यालयों और सोशल मीडिया के माध्यम से यह विचार धीरे-धीरे यह स्थापित करता है कि पारंपरिक मूल्य “पुराने” और “दमनकारी” हैं।
अतः आवश्यक है कि शिक्षा का भारतीयकरण केवल नारे तक सीमित न रहे, बल्कि उसमें भारतीय ज्ञान परंपरा, संस्कृत साहित्य, दार्शनिक विविधता और इतिहास का स्वदेशी दृष्टिकोण पुनः स्थापित हो।
इसी तरह संवाद के क्षेत्र में हमें ऐसे मंच विकसित करने होंगे जहाँ स्वतंत्र चिंतन, बहस और तर्क के माध्यम से हमारी सांस्कृतिक दृष्टि पुनः सशक्त हो।

नई पीढ़ी का बोध और जिम्मेदारी
कहा गया है— “हमें अपनी पीढ़ी को केवल यह नहीं बताना है कि हम क्या हैं, बल्कि यह भी समझाना है कि वह क्या है।”
यह वाक्य आज के युग में अत्यंत प्रासंगिक है। आधुनिक युवा सूचना और तकनीक के युग में जी रहा है, लेकिन आत्मबोध से दूर जा रहा है। वह जानता है कि उसके पास क्या है, पर यह नहीं जानता कि वह स्वयं क्या है।

इसलिए, युवाओं को यह समझाना आवश्यक है कि आधुनिकता का अर्थ परंपरा से विमुख होना नहीं, बल्कि परंपरा को नए युग के अनुसार पुनः परिभाषित करना है।
यदि युवा अपने मूल्यों, भाषा, और संस्कृति पर गर्व करेगा, तभी वह सच्चे अर्थों में “वैश्विक नागरिक” भी बन सकेगा।

विवेकानंद ने कहा था— “राष्ट्र की उन्नति उसके युवाओं की विचार शक्ति पर निर्भर करती है।”
आज वही समय है जब यह विचार पुनः प्रासंगिक हुआ है।

आधुनिकता और आत्मबोध का समन्वय
विकास का अर्थ केवल तकनीकी उन्नति नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक प्रगति भी है।
जब हम आधुनिकता और परंपरा को परस्पर विरोधी मान लेते हैं, तब हम स्वयं को विभाजित कर लेते हैं।
भारत की आत्मा यही सिखाती है — “नवीनता परंपरा के भीतर से ही जन्म लेती है।”
इसलिए, आधुनिक युवा को यह सीखना होगा कि वह पश्चिम की उपयोगिता को स्वीकार करे, पर भारत की आत्मा को न भूले।
वह विज्ञान का विद्यार्थी हो सकता है, पर उसे वेदों के ज्ञान, भगवद्गीता के दर्शन, और उपनिषदों की आत्मा से भी परिचित होना चाहिए।
इसी संतुलन में भविष्य का भारत सुरक्षित और सशक्त रहेगा।

प्रतिकार की दिशा: विचार से कार्य तक
सांस्कृतिक मार्क्सवाद का प्रतिकार तीन स्तरों पर किया जा सकता है—
• बौद्धिक प्रतिकार:- अध्ययन, लेखन, विमर्श और अकादमिक तर्क के माध्यम से सांस्कृतिक सत्य को पुनः स्थापित करना।
• संस्थागत प्रतिकार:- शिक्षा, मीडिया, साहित्य, और कला के माध्यम से वैकल्पिक विचार मंच तैयार करना।
• सांस्कृतिक पुनर्जागरण:- लोक परंपराओं, भाषा, त्योहारों और परिवार प्रणाली के प्रति गौरव का पुनरुद्धार करना।
जब ये तीनों स्तर एक साथ सक्रिय होंगे, तभी यह वैचारिक युद्ध जीता जा सकेगा।

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