सरकारी जमीनों पर बने हैं चर्च, तो क्यों नहीं हो रही कार्रवाई?

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रवि पाराशर

दिल्ली । भारत में ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के बुनियादी ढांचे का सर्वाधिक निर्माण ब्रिटिश शासन काल में हुआ। ईसाई धर्म को तत्कालीन सरकार का सीधा संरक्षण प्राप्त था, इसलिए कन्वर्जन को धार्मिक कर्तव्य मानने वाली मिशनरी की राह में कोई बड़ा रोड़ा नहीं था। हालांकि स्वतंत्रता के बाद भी मिशनरी की कन्वर्जन मुहिम में कमी नहीं आई और अब तो इसके लिए नए-नए हथकंडे भी अपनाए जा रहे हैं।

ब्रिटिश काल में अंग्रेज शासन चर्चों के लिए बड़े-बड़े भूखंड आसानी से मिशनरी को लीज पर दे देता था। लेकिन स्वतंत्र भारत में भी चर्च अथॉरिटी सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे जारी रखे हुए है। पिछले दिनों दिल्ली, अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु से इस तरह के कई समाचार मिले कि सरकारी जमीन पर या तो चर्च बना लिए गए हैं या फिर ईसाई धर्म से जुड़े प्रतीकों का निर्माण कर लिया गया है और इस तरह स्थानीय शुभचिंतकों के सहयोग से कन्वर्जन का काम धड़ल्ले से जारी है।

ब्रिटिश शासन में चर्चों और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार से जुड़े दूसरे भवनों के निर्माण और दूसरे कार्यों के लिए खाली जमीनें निश्चित समयावधि के लिए लीज पर दी गई थीं। बहुत से मामलों में समय बीत जाने के बाद न तो लीज का नवीनीकरण कराया गया, न ही सरकार को कब्जा वापस सौंपा गया। बेसुध सरकारी अधिकारियों ने भी कोई सुध नहीं ली या फिर भ्रष्टाचरण के कारण मामले दबा दिए गए। जानकारी नहीं होने के कारण कोई सामाजिक आंदोलन भी इसके विरोध में नहीं हुआ। इस तरह स्वतंत्रता के बाद से अभी तक चर्च भारत में सबसे बड़ा भूमि घोटाला कर चुका है और इसकी कहीं चर्चा भी नहीं है। ब्रिटिश काल से ही जमीनें आवंटित होते आने के कारण भारत में चर्च सर्वाधिक भूमि स्वामित्व रखने वाली सबसे बड़ी गैर-सरकारी संस्था है।
चर्च ने सिर्फ सरकारी जमीनें ही नहीं हड़पीं, बल्कि मंदिरों की भूमि पर भी अवैध कब्जे किए। दूसरे कामों के लिए आवंटित जमीनों पर भी चर्च की दृष्टि रही है। तमिलनाडु के तिरुनेलवेली पहाड़ी क्षेत्र में सातवीं शताब्दी के तिरुमलापुरम शिव मंदिर के क्षेत्र में एक ऊंची चट्टान पर चर्च बना दिया गया। इस प्राचीन मंदिर की देख-रेख आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पास है, लेकिन ईसाई मिशनरी ने चट्टानी इलाके पर अतिक्रमण कर लिया है।

आंध्र प्रदेश में मिशनरी माफिया ने गुंटूर जिले के ऐडिलापुडु गांव में एक ऊंची पहाड़ी पर नियम विरुद्ध विशाल क्रॉस का निर्माण कर लिया है। जानकारों के अनुसार जहां क्रॉस बना है, उस क्षेत्र को सीता पादुका कहा जाता है और वहां बहुत से आस्तिक हिंदू परिवार विवाह की रीति संपन्न करते हैं।

कहीं-कहीं सनातन समाज ने मिशनरी के अतिक्रमण पर सामूहिक प्रतिरोध भी किया है। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के मदनपुर गांव में करीब दो दशक पहले बने कंक्रीट के विशाल क्रॉस को अक्टूबर, 2021 में ढहा दिया गया। उससे करीब 200 मीटर दूर मंदिर का निर्माण कर दिया गया। छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम इस बात की पुष्टि करता है, लेकिन क्रॉस ढहाने का काम किसने किया, यह उसे नहीं पता। क्रिश्चियन फोरम ने माना कि जहां क्रॉस बनाया गया था, वह जमीन आधिकारिक रूप से चर्च के स्वामित्व में नहीं है। फिर भी 20 साल पहले वहां ईसाई धार्मिक चिन्ह बनाकर कर्मकांड शुरू कर दिया गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जमीन घोटाले की चर्च की प्रवृत्ति पुरानी है और सुनियोजित तरीके से यह काम किया जा रहा है।

तिरुवनंतपुरम स्थित पेप्पारा वन्यजीव अभयारण्य के एक हिस्से में ईसाई संप्रदाय ने क्रॉस लगा कर तीर्थस्थल बनाने की कोशिश की थी। इसे ले कर ईसाईयों, वन अधिकारियों और आदिवासी समुदायों के बीच विवाद खड़ा हो गया था। केरल हाईकोर्ट के जस्टिस एन. नागरेश की सदस्यता वाली पीठ ने व्यवस्था दी कि किसी भी धार्मिक समुदाय को आरक्षित वन भूमि के अंदर किसी भी स्थान पर तीर्थाटन करने की अनुमति नहीं है। हाईकोर्ट ने कहा कि अगर लोगों का कोई समूह जबरदस्ती आरक्षित वन क्षेत्र में घुसता है और गैर-कानूनी रूप से कोई संरचना तैयार करता है, तो वन अधिकारियों को कानून के अनुसार ऐसी संरचना को हटाना चाहिए चाहिए और इस संबंध में कार्रवाई करनी चाहिए। ये मामला करीब चार साल पुराना है।

ऐसे और बहुत से मामलों की जानकारी देश भर से मिलती रहती है। खास तौर पर इस तरह की घटनाएं जनजातीय क्षेत्रों में ज्यादा घट रही हैं। हालांकि अब सनातन समाज में जागरूकता बढ़ने की वजह से ऐसे बहुत से मामलों में कानूनी कार्रवाई का दायरा बढ़ता जा रहा है। फिर भी केंद्र और राज्य सरकारों को देश भर में सर्वे करा कर यह पता लगाना चाहिए कि चर्चों के पुराने भवन और उनके कब्जे वाले भू-भाग पर लीज की अवधि खत्म तो नहीं हो गई है और अगर उसका नवीनीकरण नहीं हुआ है, तो कानूनन उस पर कब्जा वापस लिया जाना चाहिए।

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