संवेदनाएं या सरहदें: आधुनिक राष्ट्र का संघर्ष

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अनुराग पुनेठा

लॉस एंजेलेस की सड़कों पर फिर हलचल है। ट्रंप ने ICE (Immigration and Customs Enforcement) पर कार्रवाई शुरू कर दी है। अवैध आप्रवासियों की गिरफ़्तारी ने शहरों को बाँट दिया है — ट्रंप को अमानवीय कहने वालों की भीड़ है, पर तालियाँ बजाने वालों की भी। पूरी दुनियां में फिर मूल बनाम बाहरी का मुद्दा गरमायेगा,भारत में भी लोग इसके बहाने वर्तमान सरकार को धेरेंगे, रोहिंग्यायो को लेकर फिर लेख आयेगें.

CAA और NRC को लेकर दो आवाज़ें भारत में भी गूँजती हैं:

इंसानियत कहाँ है?” और “राष्ट्र बचेगा कैसे?

लेकिन सवाल वही है: क्या हर घुसपैठिया शरणार्थी होता है? और क्या हर निर्वासन, क्रूरता?
जब समाज से सवाल उठता है —हम किसे अपना कहें?, तो वह नस्लीय नहीं, संवेदनात्मक संघर्ष होता है।

अमेरिका की बात करें या भारत की —एक वर्ग मानता है कि हर डिपोर्टेशन अर्थव्यवस्था को तोड़ देगा, समाज को बाँट देगा, और नैतिकता को गिरा देगा।

लेकिन दूसरा वर्ग पूछता है —तो क्या हम अपनी सभ्यता को गिरवी रख दें, बस GDP बचाने के लिए?

आज अगर अमेरिका “America First” की चर्चा है तो यह सिर्फ़ नारा नहीं —सभ्यता की आत्मरक्षा का तरीका है। हर सीमा बंदी, अमानवीय नहीं होती। और हर खुला दरवाज़ा, मानवीय नहीं। कभी-कभी राष्ट्र को बचाने के लिए , संवेदना से ज़्यादा विवेक की ज़रूरत होती है।

हर डिपोर्टेशन अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचा सकता है — यह बात आँकड़ों के आधार पर सही है। हर निकाले गए हाथ में कोई काम अधूरा रह सकता है, हर छिनी हुई वीज़ा में किसी स्टार्टअप का सपना टूट सकता है। लेकिन क्या सभ्यता केवल उत्पादकता के गणित से संचालित होती है?

विश्व के अनेक विचारक — अमर्त्य सेन से लेकर मार्था नुसबाम और नोआम चॉम्स्की तक — हमेशा मानव अधिकारों और समावेशन की बात करते आए हैं। वे कहते हैं: यदि हम दूसरों को अपनाएंगे नहीं, तो हम इंसान नहीं रहेंगे।
यह बात एक स्तर तक सच है। हर आप्रवासी, हर शरणार्थी एक मानवीय त्रासदी की कथा लेकर आता है। लेकिन सवाल ये है — क्या मानवीय मूल्य और राष्ट्र की आत्मा एक ही दिशा में चलते हैं? या कभी-कभी वे टकराते भी हैं?

इतिहास सिखाता है — जब-जब कोई सभ्यता केवल उदारता के आदर्श पर टिकी रही, और अपनी संरचनात्मक चेतना को भूल गई — वह या तो मिट गई, या दूसरों की छाया बन गई।

मिस्र की सभ्यता ने विदेशियों को जगह दी, उन्होंने राज ही पलट दिया। यूनान ने विचारों की स्वतंत्रता दी, पर अपनी विचारधारा ही खो बैठा। भारत ने सबको अपनाया, पर 1947 में खुद को दो भागों में बँटा पाया।

इसलिए, जब लोग कहते हैं — “America First”, हो सकता है कि आगे चलकर India First भी कहें, तो यह महज़ राष्ट्रवाद नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत आत्मरक्षा की पुकार है। America First का विरोध करना इतना फैशनेबल हो गया है, क्योंकि आधुनिक विमर्श में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही सर्वोच्च मूल्य मान लिया गया है, और संस्कृति की रक्षा को exclusion कहकर खारिज किया जा रहा है। लेकिन अगर अमेरिका या भारत अपने मूल स्वभाव, मूल्य और सामाजिक संरचना की रक्षा नहीं करेंगे, तो वे केवल जियो-पॉलिटिकल इकाई रह जाएँगे — संवेदनात्मक राष्ट्र नहीं। जिन्हें निकाला जा रहा है, वे सब गलत नहीं। पर जो उन्हें निकाल रहे हैं, वे भी सिर्फ गलत नहीं हैं।

क्योंकि उनका डर यह नहीं कि कोई विदेशी नौकरी ले जाएगा —बल्कि यह है कि उनकी संस्कृति, उनके सामाजिक मूल्य और उनकी जीवनशैली ही हाशिए पर चली जाए।

मूल्य और बाजार – दोनों चाहिए, पर संतुलन ज़रूरी है, कोई भी समाज केवल अर्थ से नहीं चलता, और केवल आदर्शवाद से भी नहीं टिकता। यदि हाथ रोटी कमाने में व्यस्त हैं, तो हृदय यह भी देख रहा है कि मेरी रसोई में किसका स्वाद घुल रहा है।

अमेरिका हो या भारत — उनकी चेतना को दोष देना सतही होगी, अगर वे यह पूछते हैं: हम किसे अपना कहें? तो यह सवाल नस्लवाद का नहीं, नस्ल के अस्तित्व का है।

*सभ्यता को बचाने के लिए, कभी-कभी दरवाज़े बंद नहीं, बस चौकसी से खोले जाते हैं।*

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