नई दिल्ली: इन दिनों भारतीय राजनीति में एक नया नाटक उभर रहा है, जहां कुछ राजनीतिक समूह संविधान की किताब हाथ में लेकर खुद को इसका रक्षक बताने में जुटे हैं। लेकिन उनके व्यवहार और बयानों से सवाल उठता है कि क्या यह संविधान प्रेम वास्तविक है या महज एक राजनीतिक दिखावा? हाल ही में समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आईएएस अधिकारी अवस्थी और युवा नेता कौशिक को निशाना बनाते हुए सार्वजनिक रूप से धमकी दी। यह धमकी एक कथित मीडिया ट्रायल के आधार पर दी गई, जिसने संविधान के प्रति उनके दावों पर सवालिया निशान लगा दिया।

अखिलेश यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में बिना ठोस सबूतों के इन व्यक्तियों पर गंभीर आरोप लगाए। सवाल यह है कि यदि कोई अपराध हुआ है, तो क्या उसकी सजा अदालत देगी या राजनीतिक नेता? संविधान में कानून का शासन सर्वोपरि है, जो निष्पक्ष जांच और न्यायिक प्रक्रिया की मांग करता है। लेकिन ऐसे बयानों से लगता है कि कुछ नेता स्वयं को कानून से ऊपर मानते हैं। तेजस्वी प्रसाद और राहुल गांधी जैसे अन्य नेताओं के बयान भी इस तरह के मीडिया ट्रायल को बढ़ावा देते दिखते हैं, जो संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है।
संविधान को लोकतंत्र का आधार बताने वाले ये नेता जब सार्वजनिक मंचों पर व्यक्तिगत हमले और धमकियां देते हैं, तो यह न केवल संवैधानिक प्रक्रियाओं का मखौल उड़ाता है, बल्कि जनता के बीच भ्रम भी पैदा करता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह की हरकतें संवैधानिक संस्थाओं पर विश्वास को कमजोर करती हैं।
लोकतंत्र में असहमति और आलोचना का स्थान है, लेकिन यह संवैधानिक ढांचे के भीतर होना चाहिए। क्या यह महज वोट बैंक की राजनीति है या संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा? यह सवाल हर नागरिक के मन में है। जनता को अब ऐसे नेताओं से जवाब की उम्मीद है, जो संविधान की दुहाई तो देते हैं, लेकिन व्यवहार में उसका पालन करने में चूक जाते हैं।
लोकतंत्र में असहमति और आलोचना का स्थान है, लेकिन यह संवैधानिक ढांचे के भीतर होना चाहिए। क्या यह महज वोट बैंक की राजनीति है या संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा? यह सवाल हर नागरिक के मन में है। जनता को अब ऐसे नेताओं से जवाब की उम्मीद है, जो संविधान की दुहाई तो देते हैं, लेकिन व्यवहार में उसका पालन करने में चूक जाते हैं।