सावन की सरगम: झूलों की झंकार और घेवर की मिठास में भीगा प्रेम

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मथुरा । बूंदों की ठिठोली, कजरारे बादलों की अंगड़ाई और मिट्टी से उठती सौंधी ख़ुशबू… जैसे ही सावन के महीने का तीज त्यौहार आता है, ब्रज की फिज़ाओं में इश्क़, उमंग और उत्सव की सरगम गूंज उठती है।

ऐसा लगता है जैसे “बागों में बहार है, सावन की फुहार है” वाला कोई पुराना फिल्मी गीत हवा में घुल गया हो। बृज मंडल के मथुरा, वृंदावन, आगरा, अलीगढ़, फिरोजाबाद और हाथरस की गलियों में हर शै रंगीन हो उठती है—लड़कियाँ झूले डालती हैं, मंदिरों में ठाकुरजी के हिंडोले के दर्शन होते हैं, गीत गए गाते हैं, और हलवाइयों की दुकानों से आती घेवर की सुगंध मन को लुभाने लगती है।

बृज भाषा के कवियों ने सावन माह की तारीफ में चाशनी की कड़ाही ही उंडेल दी है। बॉलीवुड फिल्मों के सावन के गीत, माहौल के रोमांस को आग लगा देते हैं। यह सावन, यूं समझिए इश्क़ की रुत है, जब बादल दिलों की धड़कन के साथ ताल मिलाते हैं और मोर, मयूरा बन के नाच उठते हैं। इसी मौसम में ब्रज मंडल के हर कोने में मीठा जादू बिखेरता है घेवर—वो पारंपरिक मिठाई जो बरसात के साथ दिलों को भिगोती है, जैसे पुराने प्रेमपत्रों में भरी यादें।

“घेवर कोई मिठाई नहीं, साहब! ये तो इश्क़ है जो कड़ाही से निकलकर दिल में उतरता है,” कहते हैं मथुरा के हलवाई गिर्राज बाबू। उनके शब्दों में वही मिठास है जो उनके घेवर में होती है—देसी घी में तला, चाशनी में डूबा और ऊपर से रबड़ी का ताज पहने ये घेवर जैसे खुद सावन की प्रेमिका हो, जिसे हर किसी से मिलना है—बहनों से, बेटियों से, सखियों से।

हरियाली तीज आते ही ब्रज की गलियाँ हरी चुनरियों, काँच की चूड़ियों और हँसी-ठिठोली से गूंज उठती हैं। आम के बागों में लगे झूलों पर बैठी महिलाएँ जब सावन के गीत गाती हैं—”झूला गिरे अमरइया डाल, सावन आयो रे”, तो लगता है कि पूरा ब्रह्मांड प्रेम की रसधार में बह रहा है। हाथों में मेहंदी की बेलें हैं, मन में व्रत की भावना और थाल में घेवर।

रक्षाबंधन, जिसे ब्रज में सलूनौ कहते हैं, एक और मधुर अध्याय है सावन की प्रेम-कथा का। बहनें भाइयों की कलाई पर राखी बाँधती हैं, और बदले में जो घेवर और फेनी जाती है, वो केवल मिठाई नहीं—ससुराल में जाती एक बहन की आवाज़ है, एक मां का दुलार है, और घर की चौखट की यादों से बंधा प्यार है।

इन दिनों, घेवर भी जैसे फैशन की तरह बदलता है—मलाई घेवर, आम घेवर, चॉकलेट घेवर! सोशल मीडिया पर घेवर की सेल्फी लेने की होड़ मची है। पर असली रसिकों को पता है कि आगरा के भगत हलवाई, हीरालाल, गोपाल जी, ब्रज भोग की दुकान से आया देसी घी वाला घेवर ही असली राजा है—एक ऐसा स्वाद जो ज़बान से उतरकर सीधे आत्मा में मिठास भर देता है। मंटू भैया मुस्कराते हुए कहते हैं, “घी वाला घेवर तो शेरो-शायरी है मिठाइयों की! बाकी सब तो बस मिसरा हैं!”

ब्रज में सावन सिर्फ मौसम नहीं, एक अहसास है—स्त्रीत्व का उत्सव, प्रेम का नर्तन और परंपराओं का संगम। यह मौसम बताता है कि प्रेम किसी चाशनी में डूबे घेवर की तरह होता है, करारा, मीठा, महकता!!

तो आइए, इस सावन—जब झूले झूलते हैं, दिल धड़कते हैं, और आसमान भी बरस कर इश्क़ करता है—घेवर का एक टुकड़ा लें, और महसूस करें वो जादू जो केवल ब्रज की हवाओं में ही बहता है। “सावन का महीना, पवन करे शोर…” और मन कह उठे—चलो इश्क लड़ाएं, मिठास से भीगे हुए सावन के नाम!

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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