संयुक्त राष्ट्र संघ: विश्व शांति का चौकन्ना सिपाही या खामोश असहाय दर्शक?

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क्या डोनाल्ड ट्रंप के उदय के बाद विश्व शांति खतरे में है? क्या न्यूक्लियर युद्ध का भय बढ़ रहा है, क्योंकि कई हॉटस्पॉट्स—यूक्रेन, ताइवान, मध्य पूर्व—तनावपूर्ण हैं? व्यापार युद्ध तेज हो रहे हैं, देश आर्थिक रूप से एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। “सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट” का माहौल बन रहा है, जहां शक्ति और संसाधनों की होड़ ने सहयोग को कमजोर कर दिया है। वैश्विक स्थिरता डगमगा रही है, और एक छोटी सी चिंगारी भी विनाशकारी परिणाम ला सकती है।

ये वक्त सीज फायर, सीज फायर खेलने का नहीं है?

ऐसे में क्या संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी मौजूदा संरचना और शक्ति संतुलन के साथ, 21वीं सदी की वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है?

संयुक्त राष्ट्र संघ: विश्व शांति का चौकन्ना सिपाही या खामोश असहाय दर्शक?

बृज खंडेलवाल

क्या डोनाल्ड ट्रंप के उदय के बाद विश्व शांति खतरे में है? क्या न्यूक्लियर युद्ध का भय बढ़ रहा है, क्योंकि कई हॉटस्पॉट्स—यूक्रेन, ताइवान, मध्य पूर्व—तनावपूर्ण हैं? व्यापार युद्ध तेज हो रहे हैं, देश आर्थिक रूप से एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। “सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट” का माहौल बन रहा है, जहां शक्ति और संसाधनों की होड़ ने सहयोग को कमजोर कर दिया है। वैश्विक स्थिरता डगमगा रही है, और एक छोटी सी चिंगारी भी विनाशकारी परिणाम ला सकती है।
ये वक्त सीज फायर, सीज फायर खेलने का नहीं है?
ऐसे में क्या संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी मौजूदा संरचना और शक्ति संतुलन के साथ, 21वीं सदी की वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है?
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रूस-यूक्रेन युद्ध तीसरे साल में, ग़ाज़ा पर इस्राइली बमबारी जारी, ईरान पर अमेरिका की एयर स्ट्राइक्स — दुनिया जल रही है और संयुक्त राष्ट्र एक बेबस तमाशबीन की तरह मूक बैठा है। क्या यह संस्था अब केवल दिखावटी समारोहों और खोखले प्रस्तावों तक सिमट गई है?

जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र (United Nations) का गठन हुआ था, तो यह उम्मीद की जा रही थी कि यह संस्था दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध से बचा पाएगी और वैश्विक न्याय व शांति की नींव रखेगी। लेकिन आज के हालात इस वायदे की विफलता की कहानी कह रहे हैं। ग़ाज़ा में बच्चों की लाशें बिछी हैं, यूक्रेन के शहर मलबों में तब्दील हो चुके हैं, और ईरान के ऊपर बम गिर रहे हैं — मगर संयुक्त राष्ट्र सिर्फ़ “कड़ी निंदा” करता है।

रूस-यूक्रेन युद्ध हो या इस्राइल-फिलस्तीन संघर्ष, यूएन की निष्क्रियता ने इसकी प्रासंगिकता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक विश्लेषक ने तीखा बयान दिया — “यूएन अब एक ऐसी संस्था है जो आख़िरी साँसें गिन रही है।” दरअसल, वैश्विक समुदाय की अपेक्षाओं पर यह संस्था लगातार असफल साबित हो रही है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC), जिसे विश्व शांति का मुख्य संरक्षक माना जाता है, पाँच स्थायी सदस्य देशों — अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन — की वीटो शक्ति के कारण पंगु बन चुकी है। यूक्रेन पर रूसी आक्रमण की निंदा करने वाले प्रस्तावों को रूस ने वीटो कर दिया, तो ग़ाज़ा में इस्राइल की कार्रवाइयों के विरोध में अमेरिका ने बार-बार अड़ंगा लगाया।

“जिसकी लाठी, उसकी भैंस” — यह कहावत अब यूएन की कार्यप्रणाली पर सटीक बैठती है। शक्तिशाली देश अपने हितों के अनुसार संस्था को मोड़ते हैं, जबकि बाकी देश दर्शक बने रह जाते हैं।
कठपुतली नृत्य
COVID-19 महामारी के दौरान, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), जो संयुक्त राष्ट्र की ही एक इकाई है, पर चीन के प्रति नरमी बरतने का आरोप लगा। महामारी की घोषणा में देरी और वायरस की उत्पत्ति पर पर्दा डालने की कोशिशों ने WHO की साख को झटका दिया। “न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी” — जब पारदर्शिता ही न हो, तो वैश्विक स्वास्थ्य संकट से लड़ना कैसे संभव होगा?

पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं “UN की मानवाधिकार परिषद में चीन की प्रमुख भूमिका और पाकिस्तान की आतंकवाद विरोधी समिति में उपस्थिति ने वैश्विक न्याय के सिद्धांतों की खिल्ली उड़ा दी है। हांगकांग और झिंजियांग में मानवाधिकार उल्लंघन के लिए कुख्यात चीन का मानवाधिकारों पर भाषण देना और कश्मीर में आतंकवाद फैलाने वाले पाकिस्तान का आतंकवाद विरोधी मंच की अगुवाई करना, “चिराग तले अंधेरा” जैसी विडंबना को चरितार्थ करता है।”

संयुक्त राष्ट्र की लाचारी का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अमेरिका, इस्राइल, रूस और कुछ अन्य देश बिना यूएन की अनुमति के ही एकतरफा सैन्य कार्रवाई करते हैं — ड्रोन हमले, लक्षित हत्याएं, और बमबारी अब सामान्य बन गई हैं। वैश्विक कानून व्यवस्था की संरचना जब अनदेखी हो, तो संस्था की प्रासंगिकता पर संदेह होना स्वाभाविक है।

आज का विश्व बहुध्रुवीय हो चुका है। भारत, ब्राज़ील, जर्मनी और जापान जैसे देश वर्षों से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग कर रहे हैं। मगर पुराने सदस्य अपनी सत्ता नहीं छोड़ना चाहते। नतीजा यह है कि संयुक्त राष्ट्र “ना खुदा ही मिला, ना विसाले सनम” की स्थिति में फंस चुका है — न असरदार बन पा रहा है, न निष्पक्ष।

सीनियर पत्रकार अजय झा को अभी उम्मीद है। ” तमाम असफलताओं के बावजूद संयुक्त राष्ट्र को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। जलवायु परिवर्तन, आपदा राहत, और शरणार्थी सहायता जैसे क्षेत्रों में इसकी भूमिका अब भी महत्वपूर्ण है। UNFCCC और UNHCR जैसी संस्थाएं पर्यावरणीय नीति और मानवीय संकटों के दौरान कुछ उम्मीद जगाती हैं।”

लेकिन अगर इस संस्था ने “जो समय के साथ नहीं बदले, उन्हें समय बदल देता है” की सीख नहीं ली, और वीटो जैसी विषैली शक्तियों पर नियंत्रण, जवाबदेही की प्रणाली और समावेशी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं किया, तो यह संस्था इतिहास के पन्नों में दफन हो जाएगी — एक ‘अवसर गंवाने वाली संस्था’ के रूप में।

संयुक्त राष्ट्र आज जिस चौराहे पर खड़ा है, वहां से या तो यह संस्थागत सुधारों के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है — या फिर एक ऐसे ‘भूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय मंच’ में तब्दील हो सकता है, जिसकी केवल सालगिरहें मनाई जाएंगी, काम नहीं याद किया जाएगा।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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