दिल्ली । भारत के गाँव और शहर आज एक अनोखे विरोधाभास के दौर से गुजर रहे हैं। एक ओर शहरों में अवसरों की तलाश में भीड़ बढ़ रही है, तो दूसरी ओर गाँव वीरान हो रहे हैं। यह केवल आर्थिक या सामाजिक बदलाव की कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसी जनसांख्यिकीय चुनौती है, जो देश के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। नौकरी की तलाश में युवा शहरों की ओर भाग रहे हैं, लेकिन इस दौड़ में न तो उन्हें मनचाही माया मिल रही है, न ही आशा। और सबसे चिंताजनक बात? शादियों का संकट, जो अब सामाजिक ढांचे को कमजोर कर रहा है।
_______________________________
एक दूल्हे की तलाश
हाल ही में, मैं एक ओल्ड एज होम में आयोजित एक शादी समारोह में शामिल हुआ। यह शादी जितनी खुशी का अवसर थी, उतनी ही चौंकाने वाली भी। दूल्हा 38 वर्ष का था, और उसे उपयुक्त दुल्हन खोजने में पूरे पाँच साल लग गए! यह कोई अपवाद नहीं है। तटीय कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान जैसे क्षेत्रों में 30 वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों को विवाह के लिए जोड़ीदार ढूंढना मुश्किल हो रहा है। एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने मुझे बताया, “आज के युवा बेहतर जिंदगी की खोज में शहरों की ओर भाग रहे हैं, लेकिन गाँवों में बचे लोग न तो शादी कर पा रहे हैं, न ही सामाजिक स्थिरता बनाए रख पा रहे हैं।”
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-21) के आंकड़े इस स्थिति को और स्पष्ट करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में 20-49 वर्ष की 5.2% महिलाएँ अविवाहित हैं, जो 2005-06 में 3.8% थी। 40-50 आयु वर्ग में 15% से अधिक लोग अब भी अविवाहित हैं, जो कुछ दशक पहले अकल्पनीय था। शादी, जो कभी भारतीय समाज का आधार थी, अब कई क्षेत्रों में विलुप्त होती परंपरा बनती जा रही है।
पलायन का प्रवाह: शहरों की ओर जनसैलाब
भारत की 1.44 अरब आबादी में से 40% लोग अब शहरी क्षेत्रों में रहते हैं, जो 2011 में 31.2% था। सामाजिक विचारक प्रो. पारसनाथ चौधरी के अनुसार, “2030 तक यह संख्या 60 करोड़ को पार कर जाएगी। सरकारी योजनाएँ जैसे डिजिटल इंडिया, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, और स्मार्ट सिटी परियोजनाओं ने बुनियादी ढांचे को तो बेहतर किया है, लेकिन आर्थिक असमानता की खाई और गहरी हो गई है।”
शहरों की ओर पलायन के कई कारण हैं: आर्थिक असमानता: शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आय ग्रामीण क्षेत्रों से दोगुनी है। 2024 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, शहरी बेरोजगारी दर 5.8% है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 7.2% है।
बेहतर सुविधाएँ: शहरों में शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के अवसर ग्रामीण क्षेत्रों से कहीं बेहतर हैं। आजादी का आकर्षण: युवा, खासकर महिलाएँ, अब स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के लिए शहरों को प्राथमिकता दे रहे हैं।
लेकिन इस पलायन की कीमत भारी है। शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या बढ़ रही है। 2023 के एक अध्ययन के अनुसार, भारत के शहरी क्षेत्रों में 10.4 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं। वायु प्रदूषण, आवास संकट, और बुनियादी सुविधाओं पर दबाव बढ़ रहा है। दिल्ली, मुंबई, और बेंगलुरु जैसे महानगरों में PM2.5 का स्तर WHO के मानकों से 8-10 गुना अधिक है।
गाँवों में बढ़ रहा है सन्नाटा
दूसरी ओर, गाँवों में सन्नाटा पसर रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 1,600 से अधिक गाँव पूरी तरह वीरान हो चुके थे, और यह संख्या 2025 तक बढ़कर 2,000 के पार होने का अनुमान है। सामाजिक कार्यकर्ता टी.पी. श्रीवास्तव कहते हैं, “खेती, जो कभी भारत की रीढ़ थी, अब घाटे का सौदा बन चुकी है।” 2000 में 60% आबादी कृषि पर निर्भर थी, जो अब घटकर 42% रह गई है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अनुसार, 2023 में 68% किसान परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपये से कम थी।
शादी क्यों नहीं हो रही?
शादी के संकट के कई कारण हैं:
आर्थिक तंगी: कृषि की जीडीपी में हिस्सेदारी 2000 में 23% थी, जो 2024 में घटकर 14.6% रह गई। दहेज और गृहस्थी का खर्च उठाना युवाओं के लिए मुश्किल हो गया है। लिंग असंतुलन: हरियाणा, पंजाब, और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में लिंगानुपात असंतुलित है। हरियाणा में प्रति 1,000 पुरुषों पर केवल 870 महिलाएँ हैं। महिला सशक्तिकरण: ग्रामीण क्षेत्रों में भी महिलाएँ अब उच्च शिक्षा और करियर को प्राथमिकता दे रही हैं। 2023 में, ग्रामीण क्षेत्रों में 18-25 वर्ष की 28% महिलाएँ स्नातक या उससे ऊपर की पढ़ाई कर रही थीं।
शहरों में पलायन करने वाले पुरुषों की संख्या बढ़ने से ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य दुल्हनों की कमी हो गई है। यह प्रवृत्ति भारत को एक अनदेखी त्रासदी की ओर ले जा रही है: कम शादियाँ और गिरती जन्म दर से ग्रामीण जनसंख्या में कमी आ रही है। 2024 में भारत की जन्म दर 1.9 थी, जो प्रतिस्थापन दर (2.1) से कम है। महानगर पहले ही भीड़, प्रदूषण, और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। 2030 तक भारत के शहरी क्षेत्रों में 50% आबादी रहने की उम्मीद है, जिससे स्थिति और बदतर होगी। सामाजिक ताने-बाने का टूटना भी चिंता का कारण है। संयुक्त परिवार खत्म हो रहे हैं। 2023 के एक सर्वे के अनुसार, 65% बुजुर्ग ग्रामीण परिवारों में अकेले रह रहे हैं।
शहरों की चकाचौंध और गाँवों की वीरानी के बीच अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो एक ओर दमघोंटू शहर होंगे और दूसरी ओर भूतिया गाँव, जहाँ खेतों में सन्नाटा और घरों में ताले होंगे। गाँवों को जीवंत बनाने, शादियों को व्यावहारिक बनाने, और पलायन को संतुलित करने के लिए सामूहिक प्रयासों की जरूरत है।