शोभा अक्षर का लेख “ब्रालेस आंदोलन जारी रखो”, जो पाखी के अगस्त 2025 अंक में प्रकाशित हुआ, ब्रालेस मूवमेंट को पितृसत्तात्मक नियंत्रण के खिलाफ एक नारीवादी विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करता है। यह लेख पश्चिमी नारीवादी आंदोलनों, विशेष रूप से #FreeTheNipple अभियान, से प्रेरणा लेता है और इसे भारतीय संदर्भ में लागू करने का प्रयास करता है। नीचे लेख में यह भी बताया गया है कि यह आंदोलन मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों पर क्यों चुप्पी साध लेता है।
1. ब्रालेस मूवमेंट: पितृसत्तात्मक मानदंडों के खिलाफ चुनौती
लेख का दावा: लेख में तर्क दिया गया है कि ब्रा पितृसत्तात्मक नियंत्रण का प्रतीक है, जो महिलाओं को “शालीनता” और “स्त्रीत्व” के सामाजिक मानदंडों का पालन करने के लिए मजबूर करती है। ब्रालेस मूवमेंट इन मानदंडों को चुनौती देता है और शारीरिक स्वायत्तता को बढ़ावा देता है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य: भारत में ब्रा निश्चित रूप से सांस्कृतिक और सामाजिक अपेक्षाओं से जुड़ी है, खासकर शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में। पारंपरिक परिधान जैसे साड़ी या सलवार-कमीज, जो मूल रूप से ब्रा के लिए डिज़ाइन नहीं किए गए थे, अब “लज्जा” (शर्म) और “शालीनता” के प्रतीक के रूप में ब्रा के साथ जोड़े जाते हैं। यह महिलाओं के शरीर पर सामाजिक नियंत्रण का हिस्सा है, जहां कपड़ों की पसंद को परिवार और समुदाय की इज्जत से जोड़ा जाता है। इस संदर्भ में, ब्रालेस मूवमेंट शारीरिक स्वायत्तता की मांग को उजागर करता है। नारीवादी विद्वान उर्वशी बुटालिया अपनी पुस्तक द अदर साइड ऑफ साइलेंस (1998) में बताती हैं कि सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए महिलाओं के शरीर को कैसे नियंत्रित किया जाता है।
हालांकि, भारत में इस आंदोलन की प्रासंगिकता वर्ग, जाति और क्षेत्रीय भेदों से सीमित है। शहरी, उच्च वर्ग की महिलाएं इस तरह के विद्रोह को अपनाने की स्थिति में हो सकती हैं, लेकिन ग्रामीण या निम्न वर्ग की महिलाएं, जो आर्थिक मजबूरियों के कारण ब्रा नहीं पहनतीं, इस आंदोलन के सैद्धांतिक दावों से अलग-थलग रहती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2019 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में महिलाओं के खिलाफ 4 लाख से अधिक अपराध दर्ज हुए, जिनमें कई “शालीनता” के उल्लंघन से जुड़े थे। ऐसे में, ब्रालेस होना कई महिलाओं के लिए सशक्तिकरण से ज्यादा जोखिम भरा हो सकता है।
ब्रा को दमन का प्रतीक मानना पितृसत्ता, जाति और आर्थिक असमानताओं जैसे जटिल मुद्दों को सरलीकृत करता है। ब्रा न पहनना एक तरह का प्रतिरोध हो सकता है, लेकिन यह दहेज, बाल विवाह या कार्यस्थल भेदभाव जैसे गहरे संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित नहीं करता।
2. स्वास्थ्य और आराम: आंदोलन का आधार
लेख का दावा: लेख में उल्लेख है कि टाइट-फिटिंग ब्रा लंबे समय तक पहनने से शारीरिक असुविधा, त्वचा में जलन और रक्त संचार में रुकावट हो सकती है। भारत के गर्म और उमस भरे मौसम में ब्रालेस होना आरामदायक विकल्प है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य: स्वास्थ्य से जुड़ा यह तर्क कुछ हद तक सही है। द जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन (2013) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, लंबे समय तक ब्रा पहनने से मांसपेशियों में दर्द और असुविधा हो सकती है, खासकर बड़ी छाती वाली महिलाओं में। भारत के उष्णकटिबंधीय मौसम में, जहां गर्मी और उमस आम है, कई महिलाएं ब्रा न पहनने से राहत महसूस करती हैं, खासकर घरेलू या निजी गतिविधियों के दौरान। इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर शहरी भारतीय महिलाओं की टिप्पणियां इस बात की पुष्टि करती हैं कि वे आरामदायक कपड़ों, जैसे ब्रालेट या बिना ब्रा के परिधानों को प्राथमिकता दे रही हैं।
हालांकि, लेख में स्वास्थ्य और शिक्षा तक सीमित पहुंच जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को नजरअंदाज किया गया है, जो महिलाओं की सूचित पसंद को प्रभावित करते हैं। ग्रामीण महिलाएं अक्सर आर्थिक कारणों से ब्रा नहीं पहनतीं, न कि स्वास्थ्य या वैचारिक विकल्प के कारण। इस आंदोलन का “आराम” पर जोर उन महिलाओं को अलग-थलग करता है जिनके लिए ब्रा एक विलासिता है, न कि पसंद। साथ ही, सार्वजनिक स्थानों में “शालीनता” की सांस्कृतिक अपेक्षाएं व्यक्तिगत आराम को अक्सर दबा देती हैं।
स्वास्थ्य से जुड़ा तर्क वैध है, लेकिन यह बिना आर्थिक और सामाजिक बाधाओं को संबोधित किए अधूरा है। लेख में उल्लिखित “ब्रालेस-फ्रेंडली” परिधान डिज़ाइनर मुख्य रूप से समृद्ध शहरी बाजारों के लिए हैं, जो अधिकांश भारतीय महिलाओं की पहुंच से बाहर हैं।
3. दोहरा मापदंड और लैंगिक असमानता
लेख का दावा: आंदोलन इस दोहरे मापदंड को उजागर करता है कि पुरुषों का शर्टलेस होना सामान्य है, लेकिन महिलाओं का ब्रालेस होना अस्वीकार्य माना जाता है, जो लैंगिक असमानता को दर्शाता है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य: यह बिंदु भारत में गहराई से प्रासंगिक है, जहां सार्वजनिक स्थान अत्यधिक लैंगिक हैं। गर्मियों में पुरुषों का ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों में शर्टलेस घूमना सामान्य है, जबकि महिलाओं के शरीर को अत्यधिक जांच के दायरे में रखा जाता है। यह दोहरा मापदंड कमला भसीन की टिप्पणी को सही ठहराता है, जिन्होंने व्हाट इज पैट्रिआर्की (1993) में लिखा कि पितृसत्ता महिलाओं के शरीर को नियंत्रित करके सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखती है।
हालांकि, भारत में ब्रालेस मूवमेंट को अपनाने वाली महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर घूरने, टिप्पणियों या उत्पीड़न का सामना करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, 2018 में केरल में एक महिला को साड़ी के साथ ब्रा न पहनने के लिए सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया था। यह दिखाता है कि भारतीय समाज में “शालीनता” की अवधारणा गहरी जड़ें जमाए हुए है, और ब्रालेस मूवमेंट को व्यापक स्वीकृति के लिए लंबा रास्ता तय करना है।
दोहरा मापदंड लैंगिक असमानता को उजागर करता है, लेकिन लेख इस बात पर चुप है कि सामाजिक प्रतिरोध का सामना करने वाली महिलाएं अक्सर विशेषाधिकार प्राप्त समूहों से होती हैं। निम्न वर्ग या ग्रामीण महिलाओं के लिए, जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक हाशिए पर हैं, यह आंदोलन जोखिम भरा और अप्रासंगिक हो सकता है।
4. चुनौतियां: सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिरोध
लेख का दावा: भारत जैसे रूढ़िवादी समाज में ब्रालेस मूवमेंट को “अश्लील” या “अनुचित” माना जाता है, और इसे अपनाने वाली महिलाओं को सामाजिक उत्पीड़न या हिंसा का डर रहता है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य: यह दावा सटीक है। भारत में महिलाओं के कपड़ों को लेकर सख्त सामाजिक अपेक्षाएं हैं, और ब्रालेस होना अक्सर “असंस्कारी” या “पश्चिमी प्रभाव” के रूप में देखा जाता है। 2020 में, दिल्ली मेट्रो में एक महिला को ब्रा न पहनने के लिए सार्वजनिक रूप से शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा, जिसने सोशल मीडिया पर बहस छेड़ दी। यह घटना दर्शाती है कि ब्रालेस मूवमेंट को भारत में सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करना कठिन है।
साथ ही, भारत में महिलाओं की सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा है। NCRB के 2022 के आंकड़ों के अनुसार, यौन उत्पीड़न के 31,000 से अधिक मामले दर्ज हुए, जिनमें कई मामलों में महिलाओं के कपड़ों को “उकसावे” का कारण बताया गया। इस संदर्भ में, ब्रालेस मूवमेंट को अपनाने वाली महिलाएं सामाजिक और शारीरिक जोखिम उठाती हैं। लेख में उल्लिखित विज्ञापनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, जो ब्रा को “आकर्षक” और “आवश्यक” बनाकर महिलाओं पर दबाव डालते हैं।
लेख इन चुनौतियों को सही ढंग से रेखांकित करता है, लेकिन यह इस बात पर चुप है कि सामाजिक प्रतिरोध का प्रभाव विभिन्न समुदायों पर अलग-अलग पड़ता है। उदाहरण के लिए, मुस्लिम महिलाओं के लिए, जो पहले से ही हिजाब या बुर्के जैसे परिधानों के कारण सामाजिक जांच के दायरे में हैं, ब्रालेस मूवमेंट अप्रासंगिक या जोखिम भरा हो सकता है।
5. मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों पर आंदोलन की चुप्पी
लेख की कमी: लेख ब्रालेस मूवमेंट को एक सार्वभौमिक नारीवादी आंदोलन के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन यह मुस्लिम महिलाओं के संदर्भ में पूरी तरह चुप है। भारत में मुस्लिम महिलाएं अपने परिधानों, जैसे हिजाब या बुर्का, को लेकर पहले से ही तीव्र सामाजिक और राजनीतिक बहस का सामना करती हैं। फिर भी, ब्रालेस मूवमेंट जैसे नारीवादी आंदोलन इन मुद्दों को नजरअंदाज करते हैं, जो उनके दावों को सीमित करता है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य: भारत में मुस्लिम महिलाओं के लिए शारीरिक स्वायत्तता का सवाल केवल ब्रा तक सीमित नहीं है, बल्कि हिजाब, बुर्का या अन्य परिधानों के इर्द-गिर्द घूमता है। उदाहरण के लिए, 2022 में कर्नाटक में हिजाब विवाद ने देशव्यापी बहस छेड़ दी, जहां स्कूलों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाया गया। इस मुद्दे पर नारीवादी आंदोलनों, जिसमें ब्रालेस मूवमेंट शामिल है, की चुप्पी उल्लेखनीय है। शबाना आज़मी ने अपनी पुस्तक मुस्लिम वीमेन इन इंडिया (1994) में तर्क दिया है कि मुख्यधारा के नारीवादी आंदोलन अक्सर मुस्लिम महिलाओं की विशिष्ट चुनौतियों को नजरअंदाज करते हैं, क्योंकि वे “पश्चिमी” या “धर्मनिरपेक्ष” नारीवाद के ढांचे में फिट नहीं बैठतीं।
ब्रालेस मूवमेंट, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और शारीरिक स्वायत्तता की बात करता है, मुस्लिम महिलाओं के लिए प्रासंगिक नहीं दिखता, क्योंकि उनकी लड़ाई हिजाब पहनने या न पहनने की स्वतंत्रता से जुड़ी है। यह आंदोलन इस बात पर विचार करने में विफल रहता है कि पितृसत्ता विभिन्न समुदायों में अलग-अलग रूप लेती है। उदाहरण के लिए, जहां हिंदू महिलाओं के लिए ब्रा “शालीनता” का प्रतीक हो सकता है, वहीं मुस्लिम महिलाओं के लिए हिजाब को सामाजिक और धार्मिक दबाव के रूप में देखा जाता है। फिर भी, दोनों ही मामलों में, पसंद की स्वतंत्रता ही असल मुद्दा है। ब्रालेस मूवमेंट की यह चुप्पी, जैसा कि लेख में परिलक्षित होता है, इसे एक विशेषाधिकार प्राप्त, शहरी और धर्मनिरपेक्ष नारीवादी आंदोलन बनाती है, जो भारत की सामाजिक विविधता को पूरी तरह समेट नहीं पाता।
अगर ब्रालेस मूवमेंट वास्तव में शारीरिक स्वायत्तता की वकालत करता है, तो इसे सभी महिलाओं की पसंद की स्वतंत्रता को समर्थन देना चाहिए, चाहे वह ब्रा न पहनने की हो या हिजाब पहनने की। इस चुप्पी से आंदोलन की विश्वसनीयता कमजोर होती है, क्योंकि यह भारत के बहु-सांस्कृतिक समाज में नारीवाद की जटिलताओं को संबोधित करने में विफल रहता है।
6. सकारात्मक बदलाव और भविष्य की संभावनाएं
लेख का दावा: ब्रालेस मूवमेंट ने महिलाओं को अपने शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया है और डिज़ाइनरों को ब्रालेस-फ्रेंडली कपड़े बनाने के लिए प्रेरित किया है। यह एक नई शुरुआत है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य: यह सच है कि यह आंदोलन शहरी भारत में कुछ सकारात्मक बदलाव ला रहा है। सोशल मीडिया, विशेष रूप से इंस्टाग्राम और X, ने युवा महिलाओं को शारीरिक स्वायत्तता और आत्म-स्वीकृति की वकालत करने का मंच प्रदान किया है। कुछ भारतीय डिज़ाइनर, जैसे सब्यसाची और अनीता डोंगरे, ने ऐसे परिधान डिज़ाइन किए हैं जो ब्रा के बिना भी स्टाइलिश और आरामदायक हैं।
साथ ही, स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ने से महिलाएं ब्रा के दीर्घकालिक प्रभावों पर सवाल उठा रही हैं।
हालांकि, यह बदलाव मुख्य रूप से शहरी, उच्च-मध्यम वर्ग तक सीमित है। ग्रामीण भारत में, जहां कपड़ों की पसंद सामुदायिक मानदंडों और आर्थिक बाधाओं से तय होती है, इस आंदोलन का प्रभाव नगण्य है। लेख में इस बात को नजरअंदाज किया गया है कि सामाजिक बदलाव की गति भारत में धीमी है।
सकारात्मक बदलाव स्वागत योग्य हैं, लेकिन इनका प्रभाव सीमित है। आंदोलन को ग्रामीण और हाशिए पर रहने वाली महिलाओं तक पहुंचने के लिए अधिक समावेशी दृष्टिकोण अपनाना होगा। साथ ही, इसे धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को ध्यान में रखना होगा।
7. वैश्विक संदर्भ और भारतीय अनुभव
लेख का दावा: लेख में पश्चिमी नारीवादी आंदोलनों, जैसे #FreeTheNipple और मिस अमेरिका विरोध (1968), का हवाला दिया गया है, और इसे भारतीय संदर्भ में जोड़ा गया है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य: पश्चिमी नारीवादी आंदोलनों ने निश्चित रूप से वैश्विक स्तर पर शारीरिक स्वायत्तता की बहस को प्रेरित किया है। #FreeTheNipple जैसे अभियानों ने सोशल मीडिया के माध्यम से भारत में भी कुछ प्रभाव डाला है, खासकर शहरी युवा महिलाओं के बीच। हालांकि, भारत में इन आंदोलनों को “पश्चिमी प्रभाव” के रूप में देखा जाता है, जिसके कारण इन्हें रूढ़िवादी समाज में प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, 2019 में मुंबई में एक छोटा-सा ब्रालेस मूवमेंट प्रदर्शन आयोजित किया गया था, जिसे स्थानीय मीडिया ने “पश्चिमी नकल” करार दिया।
पश्चिमी और भारतीय संदर्भों में एक बड़ा अंतर सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक मूल्यों का है। जहां पश्चिम में ब्रालेस मूवमेंट व्यक्तिगत स्वतंत्रता और यौनिकरण के खिलाफ केंद्रित है, वहीं भारत में यह सामुदायिक सम्मान, परिवार की इज्जत और धार्मिक मानदंडों से टकराता है। लेख इस अंतर को पूरी तरह संबोधित नहीं करता, जिससे इसका भारतीय संदर्भ में विश्लेषण अधूरा रहता है।
पश्चिमी नारीवादी आंदोलनों से प्रेरणा लेना उपयोगी हो सकता है, लेकिन भारत में ब्रालेस मूवमेंट को स्थानीय संदर्भों के अनुरूप ढालने की जरूरत है। बिना सांस्कृतिक संवेदनशीलता के, यह आंदोलन “पश्चिमी” और “अभिजात्य” करार दिया जाएगा, जिससे इसकी व्यापक स्वीकृति मुश्किल होगी।
शोभा अक्षर का लेख ब्रालेस मूवमेंट को एक सशक्त नारीवादी बयान के रूप में प्रस्तुत करता है, जो पितृसत्तात्मक नियंत्रण को चुनौती देता है और शारीरिक स्वायत्तता की वकालत करता है। भारतीय संदर्भ में, यह आंदोलन स्वास्थ्य, आराम और लैंगिक समानता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाता है। हालांकि, यह आंदोलन अपनी सीमाओं से ग्रस्त है। यह मुख्य रूप से शहरी, उच्च-मध्यम वर्ग की महिलाओं तक सीमित है और ग्रामीण, निम्न वर्ग या मुस्लिम महिलाओं की विशिष्ट चुनौतियों को संबोधित करने में विफल रहता है।
मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों पर इस आंदोलन की चुप्पी विशेष रूप से चिंताजनक है। भारत में, जहां हिजाब और बुर्के जैसे परिधान सामाजिक और राजनीतिक बहस का केंद्र हैं, ब्रालेस मूवमेंट जैसे नारीवादी आंदोलन सभी महिलाओं की पसंद की स्वतंत्रता को समर्थन देने में नाकाम रहे हैं। नारीवाद का असली मकसद सभी महिलाओं को उनकी पसंद की आजादी देना है, चाहे वह ब्रा न पहनने की हो या हिजाब पहनने की। इस चुप्पी से आंदोलन की समावेशिता और विश्वसनीयता पर सवाल उठता है।
आंदोलन को भारत में प्रभावी बनाने के लिए इसे अधिक समावेशी, सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील और सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखने वाला होना होगा। तभी यह नारीवाद की सच्ची भावना को प्रतिबिंबित करेगा।
संदर्भ:
बुटालिया, उर्वशी. द अदर साइड ऑफ साइलेंस: वॉयसेज फ्रॉम द पार्टिशन ऑफ इंडिया. 1998.
भसीन, कमला. व्हाट इज पैट्रिआर्की. 1993.
आज़मी, शबाना. मुस्लिम वीमेन इन इंडिया. 1994.
द जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन, “Effects of Bra Use on Musculoskeletal Health,” 2013.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB), 2019 और 2022
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तुम ‘ब्रालेस आंदोलन’ जारी रखो
(फ्री द निप्पल)
शोभा अक्षर का लेख पवन करण की सोशल मीडिया दीवार पर मिली। पवन की सोशल मीडिया दीवार से पाखी का यह लेख साभार लिया गया है। इसे भी पढ़िए:
स्त्रियां कितनी भी आजाद क्यों न हों, उन्हें कोई मुक्ति नहीं मिल सकती जब तक उन्हें अपने स्तनों को ब्रा में ठूंसना पड़ता रहेगा। दो सिले हुए कप जो स्त्री के इस हिस्से यानी स्तन से बिल्कुल बेमेल हैं, तथाकथित स्त्रीत्व के ये घिनौने प्रतीक हैं।
स्त्रियों से अक्सर उम्मीद की जाती है कि वे अपने शरीर को एक खास तरीके से प्रस्तुत करें, ताकि वह ‘सभ्य’ दिखें। ‘ब्रालेस मूवमेंट’ इस धारणा को चुनौती देता है।
हाल के वर्षों में, विश्वभर में स्त्रियों के बीच ब्रालेस आंदोलन तेजी से उभर रहा है। यह आंदोलन केवल एक फैशन प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि स्त्रियों की स्वतंत्रता, आत्म-स्वीकृति और सामाजिक मानदंडों के खिलाफ एक शक्तिशाली बयान है। भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंडों का गहरा प्रभाव है, ब्रालेस मूवमेंट ने न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात को उजागर किया है, बल्कि लैंगिक समानता और शारीरिक स्वायत्तता जैसे गंभीर मुद्दों को उभारा है।
इस मूवमेंट की जड़ें 1960 के दशक के पश्चिमी स्त्रीवादी आंदोलनों में मिलती हैं, जब दूसरी लहर के स्त्रीवाद ने स्त्रियों के शारीरिक और सामाजिक मुक्ति के लिए आवाज उठाई। उस समय, ब्रा को सामाजिक अपेक्षाओं और पितृसत्तात्मक संरचनाओं के प्रतीक के रूप में देखा गया, जो महिलाओं के शरीर को नियंत्रित करने का एक साधन था। 1968 में मिस अमेरिका पेजेंट के दौरान हुए विरोध प्रदर्शन, जिसमें महिलाओं ने ब्रा और अन्य ‘दमनकारी’ वस्त्रों को प्रतीकात्मक रूप से जलाने की बात कही, ने इस आंदोलन को वैश्विक ध्यान दिलाया। हालांकि, यह धारणा कि ब्रा जलाना इस आंदोलन का केंद्रीय हिस्सा था, काफी हद तक अतिशयोक्ति थी।
आधुनिक ब्रालेस मूवमेंट 2010 के दशक में सोशल मीडिया के उदय के साथ फिर से उभरा। हैशटैग्स ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लाखों स्त्रियों को एकजुट किया, जिन्होंने अपने शरीर को लेकर सामाजिक नियमों को चुनौती दी। यह आंदोलन केवल ब्रा न पहनने की बात के लिए नहीं था, बल्कि यह स्त्रियों के शरीर को यौनिकरण से मुक्त करने और उन्हें अपनी शारीरिक स्वायत्तता पर नियंत्रण देने का प्रयास था।
भारत में, जहां परंपराएं और सामाजिक मानदंड गहरी जड़ें जमाए हुए हैं, ‘ब्रालेस मूवमेंट’ का स्वरूप कुछ हद तक अलग है। भारतीय समाज में स्त्रियों के शरीर को लेकर कई तरह की अपेक्षाएं और प्रतिबंध हैं। पारंपरिक परिधानों जैसे साड़ी और सलवार-कमीज में भी ब्रा को अनिवार्य माना जाता है, भले ही वह स्वास्थ्य या आराम के दृष्टिकोण से जरूरी न हो। इस मूवमेंट ने भारत में महिलाओं को यह सवाल उठाने का मौका दिया है कि क्या ये अपेक्षाएं वास्तव में उनकी जरूरतों को पूरी करती हैं या केवल सामाजिक दबाव का हिस्सा हैं।
हाल के वर्षों में, भारतीय शहरों में युवा महिलाओं ने इस मूवमेंट को अपनाना शुरू किया है। सोशल मीडिया, खासकर इंस्टाग्राम और ट्विटर (अब x ) ने इसको बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई भारतीय प्रभावशाली हस्तियों ने अपने बयानों और कार्यों के माध्यम से शारीरिक स्वायत्तता और आत्म-स्वीकृति की वकालत की है। हालांकि, यह आंदोलन अभी भी मुख्यधारा में पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया है, और इसे लेकर कई तरह की बहसें चल रही हैं।
इस मूवमेंट के पीछे कई कारण हैं, जो इसे केवल एक फैशन ट्रेंड से कहीं अधिक बनाते हैं।
कई अध्ययनों ने यह संकेत दिया है कि लंबे समय तक टाइट-फिटिंग ब्रा पहनने से शारीरिक असुविधा, त्वचा में जलन, और यहां तक कि रक्त संचार में बाधा हो सकती है।इस मूवमेंट ने महिलाओं को यह सोचने के लिए प्रेरित किया है कि क्या ब्रा वास्तव में उनके लिए आरामदायक है या नहीं। भारत में, जहां गर्म और उमस भरा मौसम आम है, ब्रालेस हो जाना कई महिलाओं के लिए अधिक आरामदायक विकल्प बन गया है।
ब्रा को अक्सर महिलाओं के शरीर को ‘आकर्षक’ बनाने के लिए जरूरी माना जाता है। यह मूवमेंट इस विचार को खारिज करता है और प्राकृतिक शरीर को स्वीकार करने की वकालत करता है। यह आंदोलन कहता है कि सुंदरता का कोई एक मानक नहीं हो सकता और हर महिला का शरीर अपने आप में सुंदर है।
पुरुषों के लिए जहां शर्टलेस होना सामान्य माना जाता है, वहीं महिलाओं के लिए ब्रालेस होना अस्वीकार्य माना जाता है। यह दोहरा मापदंड लैंगिक असमानता को दर्शाता है।
भारत जैसे रूढ़िवादी समाज में ब्रालेस मूवमेंट को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यहां इसे अक्सर ‘अश्लील’ या ‘अनुचित’ माना जाता है। सार्वजनिक स्थानों पर ब्रालेस स्त्रियों को घूरने, टिप्पणी करने या यहां तक कि उत्पीड़न का सामना करना पड़ सकता है।
यहां की अधिकतर जगहों में ब्रा को ‘शालीनता’ का प्रतीक माना जाता है, और इसे न पहनना यानी आप संस्कृति के खिलाफ हैं।
भारत में महिलाओं की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है। ब्रालेस मूवमेंट को अपनाने वाली महिलाओं को यह डर रहता है कि वे सामाजिक उत्पीड़न या हिंसा का शिकार हो सकती हैं।
विज्ञापनों में अक्सर यह दिखाया जाता है कि ब्रा के बिना महिलाएं ‘अपूर्ण’ हैं। यह प्रचार भी स्त्रीवादियों के लिए एक बड़ी चुनौती है।
तमाम चुनौतियों के बावजूद, ब्रालेस मूवमेंट ने कई सकारात्मक बदलाव लाए हैं।
इसने स्त्रियों को अपने शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया है। कई महिलाएं अब ब्रा के स्वास्थ्य प्रभावों पर सवाल उठा रही हैं और अधिक आरामदायक विकल्पों की तलाश कर रही हैं। कई डिजाइनर अब ऐसे कपड़े डिजाइन कर रहे हैं जो ब्रा के बिना भी आरामदायक और स्टाइलिश हों।
इस आंदोलन को पूरी तरह स्वीकार किए जाने में अभी समय लगेगा, लेकिन यह निश्चित रूप से एक नई शुरुआत है।
अमेरिकी राजनीतिक सिद्धांतकार एवं स्त्रीवादी लेखिका आइरिस मैरियन यंग कहती हैं कि, ‘ब्रा स्पर्श में बाधा उत्पन्न करती है और बिना ब्रा वाली स्त्री वस्तुविहीन हो जाती है, जिससे वह कठोर, नुकीला रूप समाप्त हो जाता है जिसे लिंग संबंधी संस्कृति आदर्श मानती है।
ब्रा के बिना स्त्रियों के स्तन एकसमान आकार की वस्तु नहीं होते, बल्कि महिला के हिलने-डुलने के साथ बदलते हैं, जो प्राकृतिक शरीर को दर्शाता है। ब्रा का उपयोग लड़कियों को उनके स्तनों को यौन वस्तु के रूप में सोचने के लिए प्रेरित करने और उनकी कामुकता को उभारने के लिए किया जाता है। अमेरिकी संस्कृति में, स्तन पूंजीवादी, पितृसत्तात्मक अमेरिकी मीडिया-प्रभुत्व वाली संस्कृति के अधीन हैं, जो स्तनों को कुछ और से पहले एक वस्तु बनाती है और उन्हें नियंत्रित कर लेती है।’
पितृसत्तात्मक समाज में जाहिर है ब्रा पहनने का निर्णय पुरुष दृष्टि द्वारा नियंत्रित होता है। मातृसत्ता इससे निजात दिलाएगी, कम से कम मुझे इस बात का मुगालता नहीं है।
स्त्रीवाद व्यावहारिकता में लाना ही आपको स्त्रीवादी कहलाता है, यह मूल है।
यह प्रसंग इसी बात की तस्दीक करता है। मार्च 2017 में, अभिनेत्री एम्मा वॉटसन वैनिटी फेयर के एक फोटोशूट में बिना ब्रा के दिखीं। कुछ लोगों ने उनकी आलोचना की। उन्होंने जवाब दिया, ‘स्त्रीवाद स्त्रियों को विकल्प देने के बारे में है, स्त्रीवाद कोई छड़ी नहीं है जिससे दूसरी स्त्रियों को पीटा जाए। यह आजादी के बारे में है, यह मुक्ति के बारे में है, यह समानता के बारे में है। मुझे सच में नहीं पता कि मेरे स्तनों का इससे क्या लेना-देना है।’
मुझे बहुत छोटी उम्र में, किशोरावस्था में ही यह एहसास हो गया था कि ब्रा पहनना असहज होता है, कम से कम मेरे लिए तो। मुझे इससे जरा भी फर्क नहीं पड़ता कि आप मेरे निप्पल या मेरे स्तनों का आकार देख पा रहे हैं या नहीं। हम सबके पास ये होते हैं। मुझे नहीं लगता कि यह आपत्तिजनक है। मैंने अधिकतर बिना ब्रा के रहने की कोशिश की और मुझे यह ज्यादा पसंद आया। यह फैसला कि एक स्त्री अपने शरीर के साथ जो कुछ भी करती है, वह किसी और को तय करने की इजाजत नहीं देता। पर पितृसत्ता इसे राजनीतिक फैसला मानती है, मानेगी ही।
अमेरिकी-ब्रिटिश कवि सवाना ब्राउन ने एक यूट्यूब वीडियो, ‘सैव्स गाइड टू गोइंग ब्रालेस’ प्रकाशित किया, जिसे खूब सराहा और पसंद किया गया। अमेरिकी निर्देशक लीना एस्को के निर्देशन में वर्ष 2014 में ‘फ्री द निप्पल’ नाम की एक फिल्म बनी। इसके बाद तो स्त्रियों ने ‘फ्री द निप्पल’ अभियान में और जोर-शोर से हिस्सा लिया। उन्होंने उन जगहों पर स्तनों को दिखाने से जुड़े कानूनी प्रतिबंधों और सांस्कृतिक वर्जनाओं का विरोध किया जहां पुरुषों के लिए टॉपलेस होना कानूनी है। ‘फ्री द निप्पल’ अभियान की शुरुआत आंशिक रूप से दोहरे मानदंडों और सोशल मीडिया पर स्त्रियों के शरीर की सेंसरशिप के कारण हुई थी। इसके समर्थकों का मानना है कि स्त्रियों के निप्पल कानूनी और सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य होने चाहिए।
कई पश्चिमी देशों में, स्त्रियों ने सोशल मीडिया के जरिए टॉपलेस या बिना ब्रा के रहने के अधिकार का समर्थन किया। आइसलैंड में 2015 में ‘फ्री द निप्पल’ दिवस के दौरान, कुछ विश्वविद्यालय की छात्रओं ने जानबूझकर ऐसे कपड़े पहने जिनसे पता चलता था कि उन्होंने ब्रा नहीं पहनी है, और कुछ अन्य ने उस दिन टॉपलेस रहने का विकल्प चुना। यह समाज की बीमारी है जिसके सामने स्त्रियां अपने बाहरी कपड़ों के नीचे निप्पल को आजाद करने की कोशिश कर रही हैं। ब्रा के प्रतिरोध का एक परिणाम 2013 में ‘नो ब्रा डे’ का गठन था। 2017 में लगभग 30 देशों में स्त्रियों द्वारा अनौपचारिक रूप से यह दिन मनाया गया था, जिसमें न्यूजीलैंड, रोमानिया, मलेशिया, स्कॉटलैंड, भारत और घाना शामिल हैं। 82,000 से अधिक स्त्रियों ने हैशटैग #nobraday का उपयोग करके ट्विटर (अब X) और इंस्टाग्राम पर तस्वीरें पोस्ट कीं।
फ्रांसिसी पत्रकार सबीना सोकोल ने टिप्पणी की, ‘मुझे ब्रा पहनना कभी पसंद नहीं था, मुझे हमेशा उसमें घुटन महसूस होती थी।’ वह ऐसे घर में पली-बढ़ी थीं जहां बिना ब्रा के रहना यौन या वर्जित नहीं माना जाता था।
‘स्तनों वाली एक महिला होने के बावजूद, मैं अपने शरीर के साथ वही करती हूं जो मैं चाहती हूं। हर इंसान के निप्पल होते हैं। उन्हें दिखाने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए, लेकिन अगर आप उन्हें छिपाना चाहती हैं, तो भी ठीक है, बशर्ते चुनाव आपका हो।’
ब्रालेस होने के लिए जेल की सजा के मामले सीधे तौर पर असामान्य हैं, कुछ उल्लेखनीय घटनाएं विश्व भर में सामने आई हैं। उदाहरण के लिए, 2025 में नाइजीरिया की ओलाबिसी ओनाबांजो यूनिवर्सिटी में एक विवादास्पद नियम लागू किया गया, जिसमें महिला छात्राओं को परीक्षा में बैठने के लिए ब्रा पहनना अनिवार्य किया गया। इस नियम के तहत, जिन्होंने ब्रा नहीं पहनी थी, उन्हें परीक्षा हॉल में प्रवेश से वंचित कर दिया गया, और कुछ मामलों में कथित तौर पर दंडात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ा। इस घटना ने नाइजीरिया में व्यापक आक्रोश पैदा किया और सामाजिक मीडिया पर तीखी बहस छिड़ गई।
भारत में इस तरह के स्पष्ट मामले कम दर्ज किए गए हैं, लेकिन सार्वजनिक स्थानों पर ब्रालेस होने वाली महिलाओं को अक्सर ‘अश्लीलता’ के आरोपों का सामना करना पड़ता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 294, जो अश्लील कृत्यों को दंडनीय बनाती है, का उपयोग कभी-कभी ऐसी महिलाओं के खिलाफ किया जाता है, जिनके कपड़े सामाजिक मानदंडों से अलग होते हैं। हालांकि, ये मामले अक्सर साहित्य में प्रलेखित नहीं होते क्योंकि वे स्थानीय स्तर पर दबा दिए जाते हैं।
लेखिका मिशेल रॉबर्ट्स ने अपनी पुस्तक ‘द वॉलवर्थ ब्यूटी’ में लिखा है कि महिलाओं के शरीर को नियंत्रित करने की प्रक्रिया, जैसे कि ब्रा पहनने की अनिवार्यता, समाज की पितृसत्तात्मक संरचना का हिस्सा है।
पुस्तक ‘इनसाइड दिस प्लेस नॉट ऑफ इट: नैरेटिव्स फ्रॉम वूमनस प्रिजन्स’ में कैद की गई महिलाओं की कहानियां बताती हैं कि कैसे उनके शरीर को नियंत्रित करने के लिए कानूनी और सामाजिक तंत्र का उपयोग किया जाता है। ब्रालेस होने के लिए सजा पाने वाली महिलाएं इस दमन का एक स्पष्ट उदाहरण हैं, जो समाज की असहिष्णुता को दर्शाता है।
भारतीय स्त्रीवादी साहित्य में, ब्रालेस मूवमेंट को अभी तक व्यापक रूप से प्रलेखित नहीं किया गया है, लेकिन कुछ लेखिकाओं ने इस मुद्दे को छुआ है। उदाहरण के लिएलेखिका उर्वशी बुटालिया ने अपनी पुस्तकों में भारतीय समाज में महिलाओं के शरीर पर नियंत्रण के विभिन्न रूपों पर चर्चा की है।
ब्रालेस मूवमेंट को भारतीय संदर्भ में ‘पश्चिमी प्रभाव’ के रूप में देखा जाता है, जिसके कारण इसे रूढ़िवादी समाज में और अधिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है।
ब्रालेसनेस वह स्थिति है जिसमें स्त्रियां असुविधा, स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं या अन्य कारणों से ब्रा नहीं पहनना चुनती हैं। ब्रालेस के अन्य शब्दों में ब्रेस्ट फ्रीडम, टॉप फ्रीडम और ब्रा फ्रीडम शामिल हैं।
मुझे अपनी ब्रा उतारना एक बेहद सुखद एहसास देता है, इसका मैं पूरे दिन इंतजार करती हैं। मैं जानती हूं अनगिनत स्त्रियों के उस अनुभव को जो उन्हें ब्रा उतार कर महसूस होता है। और मुझे यह भी मालूम है कि इस ब्रा नामक बीमारी का शिकार हम स्त्रियां क्यों हैं।
-शोभा अक्षर
‘पाखी’ अगस्त 2025 अंक में प्रकाशित
स्तंभ : द पर्पल पॉइंट
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