हरिवंश
‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन आज नहीं रहे. स्मृति उभरी. उनसे पहली मुलाकात की. दिसंबर का महीना. वर्ष, 1987. कोलकाता में ‘रविवार’ (आनंद बाजार पत्रिका समूह) में काम करता था. कोलकाता से उनसे बातचीत करने ही झारखंड (तब, अविभाजित बिहार का हिस्सा) आया था. शिबू सोरेन झारखंड आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे. गांव-गांव में गुरुजी के नाम से लोकप्रिय.सिर्फ राजनीतिक नहीं, सामाजिक बदलाव की लड़ाई भी लड़ रहे थे. आदिवासियों ,झारखंडियों को शराब छोड़ने और शिक्षा से जुड़ने की प्रेरणा दे रहे थे. उनसे एक गांव में मुलाकात हुई. लंबी बातचीत हुई. तब शिबू सोरेन के आंदोलन का ही हवाला देकर ‘दिकू’ शब्द को लेकर भी भ्रम फैला था. उन्होंने बातचीत में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में सब बताया था. आज, उनके न रहने पर, उनकी स्मृतियों को समर्पित करते हुए फिर से उस इंटरव्यू (‘रविवार’, 05 दिसंबर 1987) का एक अंश साझा कर रहा हूं. यह इंटरव्यू हाल ही में प्रकाशन संस्थान (नई दिल्ली) से प्रकाशित ‘समय के सवाल’ सीरीज के दूसरे खंड की किताब ‘झारखंड: सम्पन्न धरती-उदास बसंत’ में संकलित-प्रकाशित है.
शिबू सोरेन आदिवासियों के दूसरे ‘मरांग गोमके’ हैं। आज भी आदिवासियों के बीच वह मसीहा की तरह लोकप्रिय हैं। अपने लड़ाकू तेवर के कारण वह मशहूर रहे हैं। श्री सोरेन ने राजनीति पढ़-लिखकर नहीं सीखी, उनका जीवन ही कठिनाइयों के बीच आरम्भ हुआ। उनके अध्यापक पिता स्वतंत्रता की लड़ाई में काफी सक्रिय रहे थे। 1957 में महाजनों ने उनकी हत्या कर दी। तब वह छठी कक्षा में थे। सोरेन सात भाई-बहन थे। पिता के न रहने पर परिवार की पूरी जिम्मेदारी उन पर आ गयी। 1967-69 में बनियों के खिलाफ उनका धान काटो आन्दोलन गिरीडीह, हजारीबाग और धनबाद अंचल में काफी सफल रहा। उस वक्त उन्होंने जन-अदालतों का गठन किया और नारा दिया, ‘जमीन का फैसला जमीन में होगा, कोर्ट-कचहरी में नहीं।’ उन दिनों शिबू सोरेन के नेतृत्व में चलनेवाले आन्दोलन का यह आलम था कि रात के डेढ़-दो बजे भी नगाड़े की आवाज पर हजारों आदिवासी पलक झपकते एकजुट हो जाते थे। फिर ए.के. राय, विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन के सामूहिक नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोरचा की जड़ें काफी फैलीं और मजबूत हुईं। अब एक बार फिर शिबू सोरेन पुराने तेवर के साथ झारखंड की लड़ाई में कूदने के लिए तैयार हैं और इसके लिए वह गाँव-गाँव घूम भी रहे हैं। एक आदिवासी गाँव में उनसे हुई बातचीत का ब्योरा।
सवाल : आपके ऊपर आरोप है कि झामुमो के अंदर आप कांग्रेस की राजनीति करते हैं?
जवाब: यह आरोप उन लोगों ने लगाया है, जो मेरा चरित्र हनन करना चाहते हैं। वस्तुतः यह कुछ भ्रष्ट कांग्रेसियों, दूसरे दलों के ओछे नेताओं और नौकरशाहों की साजिश का परिणाम है। छोटानागपुर में जयपाल सिंह के बाद सबसे सशक्त आन्दोलन मेरे नेतृत्व में चला और चल रहा है। इस आन्दोलन से जिस स्वार्थी तबके को खतरा है, वह मुझे बदनाम करने पर तुला है और यह उसी द्वारा किया गया कुप्रचार है।
सवाल : झामुमो और आजसू के बीच क्या संबंध हैं?
जवाब : आजसू का गठन हम लोगों ने ही किया था। हमारा उद्देश्य था कि विद्यार्थियों का राजनीतिक प्रशिक्षण हो, ताकि भविष्य में ये लोग सक्षम नेतृत्व दे सकें। महिला, मजदूर, बुद्धिजीवी आदि हर वर्ग में हमने अपना संगठन बनाया है।
सवाल : क्या आजसू आपकी कल्पनानुसार चल रहा है?
जवाब : इसके अंदर बाद में कुछ अवांछित तत्त्व घुस आये, ऐसे लोगों का क्रियाकलाप संदिग्ध था। ये लोग हमारे संगठन, केंद्रीय समिति से बगैर परामर्श किये काम करने लगे थे।
सवाल : झारखंड की लड़ाई आप कैसे लड़ना चाहते हैं? ‘दिकू’ आप किसे मानते हैं?
जवाब : झारखंड की लड़ाई संविधान के तहत, प्रजातांत्रिक तरीके से ही हम लड़ना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे लिए अलग राज्य बने, जहाँ हमारी बात पर गौर हो, समस्याएँ सुनी जायें। पिछले वर्ष के अनुभवों को देखते हुए हमारी आशा खत्म हो गयी है। अब बिना अलग राज्य का गठन हुए हमारा शोषण खत्म नहीं हो सकता। प्रजातांत्रिक संस्थाओं में जब लोगों की आस्था खत्म होती है, तो हिंसा पनपती है। झारखंड इलाके से केंद्र और राज्य सरकार को सर्वाधिक आय होती है। हमारी संपत्ति को लेकर उलटे हमारे ऊपर ही तरह-तरह के आरोप लग रहे हैं। झारखंड की माँग के कारण हमारे ऊपर हमले हो रहे हैं।
हमारी माँग ’50 के दशक में आरम्भ हुई। इसके बाद भाषा, संस्कृति और जातीयता के नाम पर अनेक नये राज्यों का गठन हुआ है। मसलन पंजाब, हरियाणा, गोवा, मिजोरम आदि। लेकिन हमारी माँग पूरी नहीं हुई। उलटे हमारे जंगल और भाई-बंधु शोषण के केंद्र बन गये। लकड़ी ढोने के लिए जंगलों तक सड़क बनी, लकड़ी ढोने और जंगल को तहस-नहस करने के बाद सड़क खत्म हो गयी। अब सरकार को ऐसी सड़कों से कोई लेना-देना नहीं है। जंगल का फॉरेस्ट गार्ड कहता है कि जंगल हमारा है। आदिवासी कहते हैं, इस पर हमारा हजारों वर्षों से आधिपत्य है। पुलिस, ठेकेदारों और जंगल अधिकारियों से मिली हुई है। इसलिए संघर्ष स्वाभाविक है।
‘दिकू’ हम उसे कहते हैं जिसके अंदर दिक्-दिक् (तंग करने) करने की प्रवृत्ति हो। दिक् करनेवाला हमारा आदमी भी हो सकता है। दिकू-गैर आदिवासी नहीं है। हजारों गैर आदिवासियों का झारखंड के प्रति समर्पण है। जब शोषकों के खिलाफ हमला होता है, तो कुछ लोग कुप्रचार करते हैं कि दिकुओं को भगाया जा रहा है, ताकि आन्दोलन के चरित्र उद्देश्य के बारे में लोगों का ध्यान मोड़ा जा सके।
सवाल : आजसू के छात्रों ने आदिवासी विधायकों-सांसदों से त्यागपत्र देने की माँग की है? आप लोग क्या कर रहे हैं? क्या आपकी लड़ाई हिंसक भी हो सकती है?
जवाब: हमने पार्टी में पुनर्विचार किया था कि आखिर विधायक या सांसद बन जाने से क्या फायदे होते हैं? मेरे मन में यह बात आती थी कि जब कोई कारगर काम नहीं हो रहा है, तो हमें त्यागपत्र देना चाहिए। अफसर भ्रष्ट हैं। कोई बात सुनने को तैयार नहीं। लेकिन ऐसी बातों का निर्णय पार्टी की केंद्रीय समिति ही करेगी। आजसू के लोगों ने इस संबंध में अपने ढंग से अपना सिक्का जमाने के लिए यह ‘काल’ दिया है। कुछ ऐसे विधायक हैं, जो आजसू के द्वारा इस माँग को बढ़ावा दे रहे हैं, लेकिन वे खुद त्यागपत्र नहीं दे रहे हैं। आजसू के पीछे सही लोग नहीं हैं।
सांस्कृतिक रूप से, पैदा होते ही हम तीर-धनुष उठा लेते हैं। तीर-धनुष के बल जंगलों की सफाई कर हमने जमीन हासिल की। जंगली जानवरों ने तब हम पर हमला किया। आज जंगल पर दूसरे लोग काबिज हो गये हैं। ठेकेदार और सरकारी अफसर हम पर जो अमानुषिक अत्याचार करते हैं, उसका विरोध हम तीर-धनुष से करते हैं। बम, पिस्तौल या सेना हमारे पास नहीं है। हम झारखंड में हिंसात्मक माहौल नहीं बनने देना चाहते, लेकिन इस बात को सरकार नहीं समझ पा रही है।
विभिन्न परियोजनाओं के ठेकेदार, स्वर्णरखा के ठेकेदार और टाटा के ठेकेदार ये सभी हमें लूट रहे हैं। विभिन्न परियोजनाओं में या पूँजीपति के यहाँ ईंट-पत्थर आदि ढोने का काम हम करते हैं, लेकिन पैसा ठेकेदार लूटते हैं। ये ठेकेदार गुंडे पालते हैं। हमारी महिलाओं के साथ छेड़खानी करते हैं। न्यूनतम मजदूरी नहीं देते। न्यूनतम मजदूरी माँगने के सवाल पर हमारे दो कार्यकर्ता राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में 2 वर्षों से बंद हैं। रामाश्रय सिंह (बिहार सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री) पिछले 7 साल से सिंहभूम में 20 सूत्री कार्यक्रम के प्रभारी बने हुए थे। उन्होंने अपने अफसरों को महत्त्वपूर्ण जगहों पर तैनात करा रखा था। ठेकेदार उनके अपने थे। झारखंड में लोग ऐसी स्थिति से उबल रहे हैं, ऊपर से पुलिस भी हमें परेशान करती है। राँची, जमशेदपुर और हजारीबाग में पिछले 10-10 सालों से एक ही थाने में एक ही थानेदार जमे हुए हैं। वस्तुतः ऐसे थानेदार आतंक और शोषण के केंद्र हैं। जबरन धमाका कर पैसे वसूलते हैं। आदिवासियों को प्रताड़ित करते हैं और आश्चर्य तो यह है कि ये पुलिस सुपरिंटेंडेंट से भी ज्यादा ताकतवर-पहुँच वाले हैं। पटना में पदासीन इनके आका इन्हें खुलेआम मदद करते हैं। छोटानागपुर से पचास लाख लोग बाहर गये हैं, रोजी-रोटी की तलाश में। सोचिए, बाहर के लोग यहाँ आ कर शोषण करें और हम रोजी-रोटी की तलाश में दर-दर भटकें और आबरू बेचें। वस्तुतः थाना, कोर्ट और बाजार में हर तरफ हमारा शोषण हो रहा है।
(प्रकाशित सामग्री हरिवंशजी के सोशल मीडिया पेज से ली गई है )