जीवन वह विचार है, जो बदलते हुए चुनौतियों और अवसर के बीच सूचनाओं का निरंतर प्रवाह करता है और यही विचार जीवन की गति को कभी धीमी, कभी तेज और कभी स्थिर भी कर देता है। इसी जीवन के क्रम में स्वयं के प्रकृति के करीब रहना, रिश्तों को वह महत्त्व देना जिसे हर कोई नहीं समझ सकता इसके मनोवैज्ञानिक थे डॉ. सूर्यकांत बाली इसीलिए उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अध्येता के रूप में देखा जाता है। डॉ. सूर्यकांत बाली का अनुभव सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के उन क्षेत्रों से बंधा एवं जुड़ा है, जहाँ जीवन के चक्र की ऋतुओं और सामुदायिक बंधनों को वो व्याख्यायित करते हैं। बाली जी जीवन की गति में संस्कृति और उसका महत्त्व, व्यक्ति समानता और उसकी ऊर्जा एवं महत्वाकांक्षा, प्रौढ़ावस्था की जिम्मेदारियां और स्थिरता की गति की चिंतनशील प्रक्रिया की बात उपनिषद और शास्त्रों के माध्यम से उठाते हैं। जीवन की आपाधापी में “भारत को समझने की शर्तें” को सामने रखते हैं। प्राथमिकताएँ और गति के बीच अर्थ और सांस्कृतिक सुंदरता की बात करते हैं। यही सांस्कृतिक सुंदरता उनके जीवन में भी देखी जा सकती है।
डॉ. सूर्यकांत बाली (09 नवंबर- 07 अप्रैल 2025)
सूर्यकान्त बाली राष्ट्रवादी विचारक के साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अध्येता के वह प्रखर वक्ता रहें जिन्होंने भारतीय संस्कृति को नया आयाम दिया। साहित्यिक विमर्श, भारतीय परंपरा, संस्कृति, राजनीति, धर्म और समाज को एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से उन्होंने देखा। पारंपरिक लेखन शैली में पौराणिक ग्रंथों के मंतव्यों को आधुनिक सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ से जोड़ा और उसे समाज के बीच एक संवाद के लिए खड़ा किया। वह सिर्फ ग्रंथों के जानकार नहीं थे बल्कि समकालीन संदर्भों के वह विशेषज्ञ थे जो लेखनी के माध्यम से भविष्य की चिंता और टिप्पणियाँ दोनों देते थे। यही कारण है कि वह पुनर्पाठ और पुनर्व्याख्या के विमर्श को लेकर आते हैं। ‘महाभारत – का पुनर्पाठ’ करते हैं और नैतिक संकटों, सामाजिक संरचनाओं और राजनैतिक चिंतन के संदर्भ में धर्म, सत्ता, नीति और मूल्य की बात करते हैं।
अविभाजित भारत के मुल्तान शहर में उनका जन्म 9 नवम्बर, 1943 को हुआ। जीवन के कुछेक साल बाद ही अपनी भूमि से बिछड़ने का दर्द इनकी लेखनी में देखा जा सकता है। आरम्भिक जीवन संघर्षपूर्ण, आर्थिक अभाव कुछ और कारण थे जिन्होंने विचार को मजबूत बना दिया और जब विचार मजबूत हुए तो शिक्षा ने नई दिशा ली और मात्र चौदह वर्ष की आयु में शास्त्री की डिग्री प्राप्त कर ली। हिन्दी माध्यम से होने के बावजूद उन्होंने बी.ए. ऑनर्स अंग्रेजी, फिर संस्कृत में एम.ए. और पीएच. डी. कर उन्होंने अपने ज्ञान के सामर्थ्य को बताया।
बहुत कम लोग जानते हैं कि श्री सूर्यकान्त बाली जी का चयन प्रथम प्रयास में ही आईपीएस में हो गया था किन्तु परिवार के विचारों को मानकर उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया।
पीएचडी के दौरान ही उनकी भेंट सुश्री सरस्वती सारस्वत से हुई जो दिल्ली विश्वविद्यालय से ही पीएचडी कर रही थीं। परिवारों की सहमति और विचारधारा में समानता ने दोनों
का मिलाप करवा दिया और 20 जुलाई, 1972 को वे दोनों परिणय सूत्र में बंध गए। यह साथ लगभग 53 वर्षों तक रहा और दोनों ने आदर्श जीवन व्यतीत किया। उनके परिवार में दो पुत्र-पुत्रवधू और 3 पोते-पोतियां हैं।
श्री सूर्यकान्त बाली के पिता उनकी छोटी उम्र से ही काम के कारण घर से बाहर रहते थे। इस कारण वे युवा होते ही घर के बड़े हो गए। जहां एक ओर उन्हें अपने मां और तीन बहनों का असीमित प्यार मिला, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सबका आग्रज को भान्ति ख्याल भी रखा।
कश्मीरी गेट स्थित अपने एक कमरे वाले किराये के मकान से पीतमपुरा के अपने खुद के घर का सफर उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर तय किया। इस यात्रा के दौरान उन्होंने अपनी बहनों का विवाह बड़े प्रेम और उल्लास से किया और आजीवन उनको पितातुल्य आत्मीयता और अपनापन प्रदान किया।
परिवार से बढ़कर यदि उनके लिए कुछ था तो वह था-अपने देश और धर्म के प्रति समर्पण।
भारतीय संस्कृति और हिन्दुत्ववादी विचार सदा उनके लेखन एवं भाषणों में प्रतिपादित होते थे। डॉ. बाली दो वर्ष अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के अध्यक्ष रहे, किन्तु उसके बाद उन्होंनें कोई भी संगठन का पद ग्रहण करने से मना कर दिया। वे राजनीति को मली-भान्ति समझते थे किन्तु उसे करने के इच्छुक नहीं थे।
पहले एक शिक्षक के रूप में और फिर एक पत्रकार के तौर पर उन्होंने सदा ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, हिन्दु एकता और भारतीय राजनीति विषयों पर अपने मौलिक विचार पुरजोर तरीके से व्यक्त किये। अपने शिक्षण कार्यकाल में ही डॉ. बाली ने अखबार में लिखना आरम्भ कर दिया था। उनके विचारों और शैली से प्रभावित होकर नवभारत टाइम्स के तत्कालीन सम्पादक श्री राजेन्द्र माथुर ने उन्हें सहायक सम्पादक बनने का न्यौता दिया। यह उनके जीवन की दिशा परिवर्तन करने वाला कदम बना। सन् 1987 से 1997 तक दस वर्षों में नवभारत टाइम्स के विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने न केवल अपने लेखन से बल्कि सम्पादकीय सूझबूझ से इस अखबार के पाठकों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि की।
उनका रविवारीय कॉलम भारत के मील पत्थर अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। पाठक उनके इस कॉलम का बड़ी बेसब्री से इन्तजार करते थे। 1995 से उन्हें नवभारत टाइम्स का प्रधान सम्पादक मनोनीत किया गया और अगले दो वर्षों में उन्होंने उस अखबार को अपनी सर्वाधिक सर्कुलेशन तक पहुंचा दिया।
1997 में डॉ. बाली ने टीवी पत्रकारिता में, जी न्यूज के माध्यम से कदम रखा। इस चैनल को उस समय 24 घंटे का चैनल बनाने का कार्य शुरू ही हुआ था और डॉ. बाली को इसका प्रभार सौंपा गया। अपने अथक परिश्रम और पत्रकारीय बुद्धि से उन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर जी न्यूज को 24 घंटे का चैनल बनाकर अपना लोहा मनवा लिया। किन्तु हृदय से कलम के धनी होने के कारण टीवी पत्रकारिता उन्हें रास नहीं आई और दो वर्ष बिताकर उन्होंने चैनल को अलविदा कह दिया। अगले कुछ वर्ष उन्होंने एक सलाहकार के रूप में विभिन्न प्रकाशनों के साथ व्यतीत करके पत्रकारिता को पूर्ण विराम दे दिया और पूर्णतः लेखन और वाचन को समर्पित हो गए।
डा. बाली को विश्वास था कि अपनी पुस्तकों और भाषणों के माध्यम से वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारतीय इतिहास और हिंदुत्व के विषयों को लोगों तक अधिक प्रभावी तरीके से पहुंचा सकते हैं। सन 2000 से 2019 तक उन्होंने 100 से अधिक भाषण और 10 पुस्तकें लिखीं। उनकी पुस्तक भारतगाया सर्वाधिक लोकप्रिय हुई, जिसके कई संस्करण छप
चुके हैं। सांस्कृतिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि पर लिखी पुस्तकों के अलावा उन्होंने दो वैदिक प्रेम कथाएं भी लिखीं, जिनमें वेदों के मंत्रकारों के प्रेम का कथानक है (वैदिक लव स्टोरी) जोकि अपने आप में बड़ा अनोखा विषय है।
उनके भाषणों में सदा देश प्रेम, हिंदुत्व और राजनीतिक समावेश का मिश्रण होता था, जो सुनने वालों में स्फूर्ति और प्रेरणा का संचार करते थे।
डा. बाली के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद विषय पर समग्र योगदान को आदर देते हुए भारत सरकार ने 2015 में उनको नेशनल प्रोफेसर का पद दिया और उनसे इस क्षेत्र में और अधिक रिसर्च करने का आग्रह किया। 2015 में अपनी एक पुस्तक विमोचन में ही उनको अचानक ब्रेनस्ट्रॉक आया और फिर 2017 में उन्हें हृदय रोग के उपचार के लिये वॉल्व रिप्लेसमेंट का आप्रेशन करवाना पड़ा। कोरोना के बाद उनका आवागमन काफी कम हो गया था। किंतु देश और धर्म पर उनका चिंतन और लेखन अविरल चलते रहे।
डॉ. बाली को भारतीय संस्कृति को जन सामान्य तक पहुंचाने के लिये अनेक सम्मान मिले हैं। 2021 फरवरी में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हाल ही में दीनदयाल साहित्य सम्मान प्रदान किया गया है। 7 अप्रैल 2025 को 15 दिन अस्पताल में बिता कर पुण्यकाल में उन्होंने अपनी परलोक यात्रा प्रारम्भ की। इसके साथ ही हमने एक राष्ट्र प्रेमी भारतीय संस्कृति के ज्ञाता और बाली परिवार के स्तंभ अपने पिता को सदा सदा के लिये खो दिया।
2. दलित विमर्श
उनकी पुस्तक “भारत का दलित-विमर्श” इस बात का संकेत है कि वे भारतीय समाज की बहुस्तरीय संरचना को समझने और उसके भीतर व्याप्त असमानताओं को उजागर करने में रुचि रखते हैं। वे इस विमर्श को केवल एक सामाजिक प्रश्न नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रश्न के रूप में उठाते हैं।
3. संस्कृति और राष्ट्रचिंतन
डॉ. बाली की रचनाएँ जैसे “भारतगाथा”, “भारत को समझने की शर्तें”, और “भारत की राजनीति का उत्तरायण” यह दिखाती हैं कि वे भारतीय राष्ट्र की आत्मा को ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक संदर्भों में पकड़ने का प्रयास करते हैं। उनके लिए राष्ट्र केवल भूगोल नहीं, बल्कि चेतना है।
(डॉ. रुद्रेश ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बिहार, मुजफ्फरपुर के गांव ‘कांटा’ से पूरी की। फिर दिल्ली के सरकारी स्कूल से बारहवीं एवं स्नातक दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज (प्रातः) से किया। एम. ए. हिंदी, एम. ए. ह्यूमन राइट्स, एम. ए., एम. फिल., पीएचडी. जनसंचार। संप्रति: जनसंचार के विशेषज्ञ एवं प्राध्यापक दिल्ली विश्वविद्यालय)