सियासी कब्र: दिल्ली की सबसे महंगी जमीन पर समाधियों का कब्जा

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दिल्ली । राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, जहां जमीन की कीमतें आसमान छूती हैं, वहां यमुना नदी के किनारे राजघाट और उसके आसपास का क्षेत्र न केवल ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व रखता है, बल्कि यह देश की सबसे महंगी जमीनों में से एक है। इस क्षेत्र में 250 एकड़ से अधिक जमीन पर 17 प्रमुख राजनीतिक हस्तियों की समाधियां बनी हैं, जिनमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नाम शामिल हैं। लेकिन, सवाल यह उठता है कि क्या इन स्मारकों को ‘समाधि’ कहना उचित है, विशेष रूप से तब जब ये राजनीतिक नेताओं के लिए बनाए गए हैं, न कि संतों या धर्मगुरुओं के लिए, जिनके साथ परंपरागत रूप से समाधि शब्द जुड़ा है। इस मुद्दे ने हाल के वर्षों में, खासकर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निधन और उनके स्मारक स्थल को लेकर हुए विवाद के बाद, एक नई बहस को जन्म दिया है।

समाधि की परिभाषा और इसका सियासीकरण

हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख परंपराओं में समाधि का अर्थ किसी संत, गुरु या आध्यात्मिक व्यक्ति के देहांत के बाद उनके अंतिम विश्राम स्थल से है, जो आध्यात्मिक शांति और मोक्ष का प्रतीक होता है। यह स्थान ध्यान और श्रद्धा का केंद्र होता है, जहां लोग आध्यात्मिक प्रेरणा लेने जाते हैं। लेकिन, दिल्ली में राजघाट और आसपास के क्षेत्र में बनी समाधियां मुख्य रूप से राजनीतिक नेताओं के लिए हैं, जिनमें से कई का अंतिम संस्कार यहीं हुआ और उनके स्मारक बनाए गए। इनमें से कुछ, जैसे राजघाट (महात्मा गांधी, 44.35 एकड़), शांति वन (जवाहरलाल नेहरू, 52.6 एकड़), और शक्ति स्थल (इंदिरा गांधी, 45 एकड़), विशाल क्षेत्र में फैली हैं। इन स्मारकों को समाधि कहना, परंपरागत अर्थों में, सवालों के घेरे में है, क्योंकि ये कब्र या स्मारक के रूप में अधिक प्रतीत होते हैं।

जमीन का कब्जा: एक गंभीर सवाल

दिल्ली में जमीन की कीमत हजारों करोड़ रुपये प्रति एकड़ तक पहुंचती है, और राजघाट क्षेत्र की 250 एकड़ से अधिक जमीन पर बने इन स्मारकों का रखरखाव और प्रशासन सालाना करोड़ों रुपये खर्च करता है। एक सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के अनुसार, केवल 10 नेताओं की समाधियां 221.5 एकड़ में फैली हैं, और बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि ‘सदैव अटल’ के लिए 7 एकड़ और जोड़ा गया। विशेष रूप से, गांधी परिवार से जुड़े नेताओं की समाधियां (राजघाट, शांति वन, शक्ति स्थल, वीर भूमि) 150 एकड़ से अधिक जमीन पर हैं। ऐसे में, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इतनी विशाल और महंगी जमीन का उपयोग केवल कुछ नेताओं के स्मारकों के लिए उचित है, जबकि देश में लाखों लोग भूमिहीन हैं और दिल्ली में ही आम लोग छोटे से मकान के लिए अपनी जिंदगी की कमाई खर्च करते हैं।

सियासी विवाद और नीतिगत कमियां

हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के बाद उनके स्मारक के लिए राजघाट क्षेत्र में जगह न मिलने पर सियासी विवाद छिड़ गया। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि सरकार ने निगमबोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार करवाकर उनका अपमान किया, जबकि सरकार का कहना है कि स्मारक के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढने की प्रक्रिया चल रही है। यह विवाद इस बात को रेखांकित करता है कि समाधि स्थलों के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है। 2013 में नियम बदले गए थे, जिसमें कहा गया कि केवल अत्यंत विशिष्ट योगदान देने वाले नेताओं के लिए ही समाधि बनाई जाएगी, ताकि जमीन का संतुलित उपयोग हो। फिर भी, यह सवाल बना हुआ है कि क्या सभी नेताओं के लिए इतनी बड़ी जमीन आवंटित करना उचित है, खासकर जब ये स्मारक साल के अधिकांश समय वीरान रहते हैं।

वैकल्पिक सुझाव और भविष्य की दिशा

कई विशेषज्ञों और लेखकों ने सुझाव दिया है कि समाधि स्थलों के लिए जमीन की सीलिंग तय की जानी चाहिए, जैसे कि अधिकतम 5 एकड़ या 1 एकड़। साथ ही, स्मारकों को एकीकृत कर सामूहिक सुविधाएं जैसे बगीचे, संग्रहालय, और सभाकक्ष बनाए जा सकते हैं, ताकि जमीन का अपव्यय रोका जाए। इसके अलावा, यह भी मांग उठ रही है कि केवल राजनीतिक नेताओं ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, और अन्य क्षेत्रों के योगदानकर्ताओं के लिए भी स्मारक बनाए जाएं, ताकि राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान को भी सम्मान मिले।

दिल्ली की सबसे महंगी जमीन पर बने इन स्मारकों को समाधि कहना न केवल परंपरागत अर्थों में गलत है, बल्कि यह देश के संसाधनों के दुरुपयोग का प्रतीक भी बन गया है। यह समय है कि सरकार एक स्पष्ट नीति बनाए, जिसमें जमीन का उपयोग, स्मारकों का रखरखाव, और योगदान की व्यापक परिभाषा को शामिल किया जाए। इससे न केवल संसाधनों का बेहतर उपयोग होगा, बल्कि उन सभी लोगों को सम्मान मिलेगा, जिन्होंने देश के लिए असाधारण योगदान दिया है।

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