सोशल मीडिया का धर्मयुद्ध: एलन मस्क के विरुद्ध महामंच

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अनुराग पुनेठा

जब भी इतिहास नई करवट लेता है, वह अक्सर शोर से नहीं, एक असहज ख़ामोशी से शुरू होता है। ठीक वैसे ही जैसे आज की दुनिया में सबसे बड़ा युद्ध—न हथियारों से, न सरहदों पर—बल्कि विचारों और विज्ञापन बजटों के ज़रिए लड़ा जा रहा है। यह वो युद्ध है जहाँ नायक और खलनायक की पहचान करना उतना आसान नहीं जितना पहले कभी था। इस युद्ध के केंद्र में है एलन मस्क—टेस्ला, स्पेसएक्स और अब X के मालिक—और उसके सामने खड़ी हैं 18 वैश्विक कंपनियाँ, जिनके पास लगभग 900 अरब डॉलर का संयुक्त वार्षिक विज्ञापन बजट है। Nestlé, Lego, Shell, Unilever, Pepsi, Colgate, Procter & Gamble—यह कोई साधारण नाम नहीं, बल्कि वो ताकतें हैं जो तय करती हैं कि एक आम इंसान इंटरनेट पर क्या देखेगा और क्या नहीं।

2022 में इन कंपनियों ने GARM नामक संगठन के ज़रिए X से सामूहिक रूप से विज्ञापन हटा लिए। कारण बताया गया: “ब्रांड सेफ्टी।” लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह सचमुच सिर्फ सुरक्षा का मामला था, या एक सोची-समझी रणनीति जिससे एक मंच को अपने हिसाब से मोड़ा जाए? उन्होंने X से कहा—कुछ शब्द हटाओ, कुछ विचारों को सीमित करो, कुछ चेहरों को मंच से बाहर करो। जब मस्क ने मंच को स्वतंत्र रखने की ज़िद की, तो पैसे का बहिष्कार शुरू हो गया। यह आज के दौर की ‘अभिव्यक्ति की कीमत’ है—और चुप्पी का मूल्य उससे भी ज़्यादा।

एलन मस्क ने चुप नहीं बैठने का फैसला किया। उसने मुकदमा ठोका—सिर्फ बदले की भावना से नहीं, बल्कि एक वैचारिक सवाल के साथ: क्या कॉरपोरेट जगत को यह अधिकार है कि वह इंटरनेट पर विचारों की सीमा तय करे? क्या एक समूह, अपने धनबल के ज़रिए, तय कर सकता है कि किसकी बात सुनी जाएगी और किसे खामोश किया जाएगा? और जब अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट में यह सामने आया कि ये कंपनियाँ एकजुट होकर X की नीतियों को प्रभावित कर रही थीं, तो यह मुकदमा सिर्फ एक कानूनी मामला नहीं रह गया, यह बन गया स्वतंत्रता बनाम नियंत्रण की लड़ाई।

इस कहानी की सबसे दिलचस्प बात यह है कि यहाँ कोई नायक पूरी तरह से मासूम नहीं है, और कोई खलनायक पूरी तरह से दानवी नहीं। मस्क की अराजकता, उसका अहंकार, कभी-कभी सीमाओं से खेलने की उसकी आदत, उसे संदेह के घेरे में लाती है। लेकिन फिर भी, क्या कोई दूसरा इतना बड़ा जोखिम उठाने को तैयार होता? यह लड़ाई उसके लिए सिर्फ पैसे की नहीं, मंच की आत्मा की है। वह पूछ रहा है: क्या किसी विचार को उसकी असहजता के कारण दबा देना सही है? क्या अभिव्यक्ति का मंच एक कॉरपोरेट हैंडबुक से चलना चाहिए?

इस पूरे संघर्ष को कोई एक नाम देना मुश्किल है। कुछ इसे कॉरपोरेट सेंसरशिप कहेंगे, कुछ इसे डिजिटल युग की नई युद्ध नीति। लेकिन इसकी गूंज बहुत दूर तक जाएगी—यह मामला अदालत में भले ही कुछ हफ़्तों या महीनों में सुलझ जाए, पर इसका असर आने वाले दशकों तक महसूस किया जाएगा। क्योंकि यह सिर्फ एक मुकदमा नहीं, बल्कि वह सवाल है जो हर व्यक्ति को छूता है जो इंटरनेट पर बोलता, सोचता और जीता है।

क्या हम एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जहाँ विज्ञापनदाता तय करें कि कौन बोले? क्या हम उस लोकतंत्र में यक़ीन रखते हैं जहाँ विचार स्वतंत्र हों, लेकिन अगर वो विचार किसी ब्रांड की “छवि” के खिलाफ हों, तो उन्हें दबा दिया जाए? या फिर हम एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जहाँ असहमति, असुविधा और ईमानदारी—सभी को मंच मिले?

शायद इस लड़ाई का नतीजा ये बताएगा कि डिजिटल युग में लोकतंत्र का मूल्य क्या है। क्योंकि यहाँ बात केवल एलन मस्क या 18 कंपनियों की नहीं है—यह हमारी उस मौलिक स्वतंत्रता की है जिसे हम अक्सर अपनी स्क्रीन पर स्क्रॉल करते हुए हल्के में ले लेते हैं। यह वही क्षण है जहाँ ‘कैंसल कल्चर’ और ‘कॉरपोरेट सेंसरशिप’ का अंतर धुंधला हो जाता है। और यही वह धुंध है जिससे आगे की दिशा तय होगी।

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