भुवन भास्कर
दिल्ली। हमें 150 वर्षों से पढ़ाया जा रहा है सनातन तो सिर्फ ब्राह्मणों की ठेकेदारी है और शेष जातियां दरअसल बाई डिफॉल्ट हिंदू है, अन्यथा उनकी सनातन में कोई विशेष आस्था है नहीं। जाति भेद और ब्राह्मणों के अत्याचार के कारण हिंदू बंटे और कमजोर हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि आज से 1500 साल पहले भी जब विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों से लड़ने की बात आती है, तो कश्मीर, राजस्थान, उज्जैन, कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु के शासक एक साथ आकर लड़ते थे, भले ही उनमें आपसी प्रतिस्पर्धा और रंजिश हो। यानी हिंदुओं में फूट की वर्तमान राजीनितक परिस्थिति हमेशा से हिंदू समाज की अंतर्निहित (inherent) कमजोरी नहीं रही है।
मोहम्मद की मृत्यु के बाद 60-70 वर्षों में पूरे मध्य एशिया और अटलांटिक के छोर से लेकर भारत की सीमाओं तक खलीफा की सेनाओं ने मूल समाज की आस्थाओं और संस्कृति को ध्वस्त कर इस्लामिक आधिपत्य कायम कर लिया। लेकिन वहां से भारत में अपना आधिपत्य जमाने में उनको 500 साल लगे। मोहम्मद बिन कासिम ने 712 में सिंध पर पहली जीत हासिल की। इसके बाद भारत में पहला इस्लामिक शासन 1526 में बाबर ने स्थापित किया। यानी सिंध से दिल्ली पहुंचने में मुसलमानों को 514 साल लग गए। इस दौरान भारत के दर्जनों हिंदू शासकों ने मुस्लिम आक्रांताओं को जमकर टक्कर दी। इतना ही नहीं मुहम्मद-बिन-कासिम को भी सिंध जीतने में 60 साल लगे। सिंध के आखिरी हिंदू राजा दाहिर और उनके पिता छाछा (जिनके नाम पर छाछनामा भी लिखा गया है) लगातार 6 दशकों तक अरबों को धूल चटाते रहे।
और कांग्रेसी-वामपंथी इतिहास के बूते जो लोग यह बताते हैं कि दक्षिण भारत में हिंदू भाव तो कभी था ही नहीं या कि भारत को एक देश तो अंग्रेजों ने बनाया, उनके लिए यह तथ्य खास महत्वपूर्ण है कि मुसलमानों को 500 साल तक भारत की पश्चिमी सीमा पर रोकने वाले राजाओं में सिर्फ गुजरात के चालुक्य वंश के विक्रमादित्य ही नहीं, उत्तर में कश्मीर के कार्कोट राजवंश के सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड, राजस्थान में मेवाड़ के बप्पा रावल, सुदूर दक्षिण भारतीय राष्ट्रकूट के दंतिदुर्ग, और मध्य भारत में कन्नौज के यशोवर्मन भी शामिल थे।
यह समझने के लिए एक उदाहरण सोमनाथ मंदिर के ध्वंस की कहानी भी है। जब महमूद गजनी ने सोमनाथ के मंदिर पर हमला किया, तब वहां का राजा चालुक्य वंश का भीमदेव डर कर भाग गया। जाहिर है कि तब मंदिर को बचाने के लिए कोई सेना भी नहीं थी, ऐसे में वहां की 50,000 हिंदू जनता ने मंदिर का घेरा डाला। इनमें सभी सामाजिक-आर्थिक वर्गों के हिंदू शामिल थे।
अवश्यंभावी मृत्यु के बावजूद पूरा हिंदू समाज 3 दिनों तक महमूद को मंदिर पर प्रवेश से रोकता रहा और आखिर में सभी 50,000 हिंदुओं की हत्या कर गजनी मंदिर के भीतर गया। गजनी के समकालीन इतिहासकारों अल-बरूनी, फरिश्ता, मिनहाज-ए-सिराज इत्यादि के लेखन में उस दृश्य के बारे में बताया गया है कि जब गजनी सबकी हत्या कर अंदर जाता है तब वहां के पुजारी शिवलिंग को बचाने की एक आखिरी कोशिश करते हैं।
वे गजनी को भगवान का विग्रह छोड़ देने के बदले मंदिर का पूरा धन, स्वर्ण इत्यादि सौंपने की पेशकश करते हैं। लेकिन महमूद हंसते हुए कहता है कि यदि उसने ऐसा किया तो मुसलमान उसे बुतों का तिजारत करने वाला मानेंगे, जबकि वह तो बुतशिकन के तौर पर अपनी पहचान बनाना चाहता है। फिर महमूद ने सोमनाथ का शिवलिंग उखाड़ दिया, उसे खंडित करवाया और उसे पीस कर पाउडर बनवाया। उस पाउडर को उसने गजनी ले जाकर वहां के मस्जिदों की सीढ़ियों में चुनवा दिया ताकि हर बार जब उस पर से गुजर कर मुसलमान मस्जिद में जाएं, तो क़ाफ़िरों के धर्म का अपमान हो।
लेकिन कांग्रेसी-वामपंथी इतिहासकार आपको बताएंगे कि गजनी तो सिर्फ एक लुटेरा था और उसने सोमनाथ के मंदिर पर हमला सिर्फ लूटने के मकसद से किया था।
जब गजनी ने सोमनाथ को ध्वस्त कर वहां की सारी संपदा लूट ली और वापस जाने लगा, तो भी ऐसा नहीं है कि उसके भीषण नरसंहार के डर से हिंदू दुबक गए। लौटते समय सिंध में उस पर जाटों ने हमले किए और अरावली की पहाड़ियों तथा कच्छ के रण में उस पर स्थानीय हिंदू सरदारों ने लगातार हमले किए। इतने किए कि परेशान होकर महमूद को कच्छ के रण का वह रास्ता लेना पड़ा जो दुरूह था, नमकीन पानी से भरा था।
इतिहासकार विक्रम संपत उसी समय की एक घटना बताते हैं कि जब महमूद हिंदू सरदारों के हमले से बचने की कोशिश कर रहा था, उसी समय उसे एक स्थानीय व्यक्ति मिला, जिसने उनको मदद की पेशकश की। वहां से गजनी की लुटेरी सेना उसके मार्गदर्शन में चलने लगी। काफी दूरी चलने के बाद जब महमूद को समझ आया, तो उस व्यक्ति से सख्ती से पूछताछ की गई। फिर उस हिंदू व्यक्ति ने कहा कि तूने मेरे महादेव का मंदिर तोड़ दिया, इसलिए मैंने तुझे रण में ऐसी जगह भटका दिया है जहां न तुझे पीने को पानी मिलेगा और न जहां से निकलने का रास्ता। महमूद ने उस हिंदू की हत्या की और फिर किसी तरह वहां से रास्ता खोज कर निकल पाया, लेकिन इस दौरान उसके कई सैनिक प्यास और बीमारी से मर गए।
यह था हिंदू प्रतिरोध, जिसमें सिर्फ राजा, सेना और सरदार ही शामिल नहीं थे, बल्कि हर एक आम हिंदू शामिल था। यह प्रतिरोध किसी साम्राज्य को बचाने का प्रयास नहीं था, बल्कि अपने धर्म, संस्कृति और समाज को बचाने का संघर्ष था। और यह संघर्ष 12-15% ब्राह्णों और क्षत्रियों का संघर्ष नहीं था, इसमें हर हिंदू शामिल था, चाहे वह आधुनिक शब्दावली में दलित हो या फिर आदिवासी।