सुरेन्द्र चतुर्वेदी
भारत की नारियों को किस बात की प्रतीक्षा है ? इतनी घटनाएं होने के बाद भी क्या उन्हें लगता है कि कोई दैवीय शक्ति उनकी रक्षा के लिए अवतरित होगी ? जब तक वे स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए सतर्क और सन्नद्ध नहीं होंगी, बलात्कार जैसी घटनाएं होती ही रहेंगी। यह रक्तबीज के कलयुगी संस्करण हैं, इनको जितना मारो वे उतने ही पैदा होते रहेंगें।
भारत में बलात्कार इतना आम हो चुका है कि हमारी चेतना जागृत ही नहीं होती! सरकारी आंकड़ों की मानी जाए तो 2022 में देशभर में 31000 से ज्यादा बलात्कार की घटनाएं दर्ज की गई हैं, यह तो वह संख्या है जिसके लिए पीड़िता ने पुलिस के पास अपनी शिकायत दर्ज कराई है। इसके अलावा ऐसे कितने ही मामले होंगें जिनमें पीड़िता ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया होगा और उन मामलों की शिकायत दर्ज नहीं हो पाई होगी। ऐसा माना जाता है कि 60 से 70 प्रतिशत मामलों में शिकायत नहीं की जाती है।
बंगाल में हुए अत्याचारी बलात्कार पर पूरे देश में गुस्सा है। ऐसा ही गुस्सा दिल्ली में हुए निर्भया के अत्याचारी बलात्कार के मामले में भी था। पर उससे हुआ क्या ? क्या परिणाम निकला ? *पीड़िता को निर्भया कहें या अभया ! किसी भी नाम से घटना तो जनमानस के पटल पर स्थायी हो जाती है, लेकिन बदलाव क्या होता है यह महत्वपूर्ण है। प्रश्न यह है कि क्या समाज में स्त्रियों के प्रति मानसिकता में बदलाव आ रहा है?* समाज सरकारों के भरोसे बैठा है, सरकारे सिर्फ दंड संहिता बना सकती हैं, अपराधियों को दोषी सिद्ध होने पर सजाएं दिला सकती हैं लेकिन क्या वे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोक सकती हैं ? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है।
महिला सशक्तिकरण के दावे वाले इस दौर में बलात्कार जैसा अत्याचार और उसपर होने वाला प्रतीकात्मक विरोध सरकार, व्यवस्था, समाज और माता-पिताओं की लाचारी और हताशा को स्पष्ट रूप से प्रमाणित करता है। *प्रश्न यह है कि भारत जैसे देश में जहां नारी को नारायणी माना और कहा जाता है वहां स्त्री के प्रति दुर्भावना और हीनता के पोषक तत्व कहां से उपज रहे हैं? आखिर वो कौनसे कारण हैं जो इन बलात्कारी रक्तबीजों को वो संजीवनी प्रदान करते हैं कि कठोर कानूनी दंड के प्रावधानों के होने के बाद भी वे इस अत्याचार को करने से पहले हिचकते-डरते तक नहीं हैं।*
*क्या भारत की लचर न्यायिक व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है? या राजनीतिक दल, जो अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी भी घटना के अपराध को राजनीतिक और सामाजिक बना देते हैं, जिससे उनके हितों की पूर्ति होती रहे। वे किसी भी स्त्री की गरिमा को खंड़ित कर देने में बिल्कुल भी नहीं हिचकते? या फिर हमारा समाज, जो इन घटनाओं का इतना आदी हो चुका है कि वह स्वयं के स्वार्थ से उपर आ ही नहीं पा रहा है ? वह यह नहीं सोचता कि जो आज बंगाल में हुआ है या दिल्ली में हुआ था वह कल उनके घर में भी हो सकता है ? या सड़क पर एकत्रित होकर सरकार के खिलाफ जनमत पैदा करने की कोशिश करते मोमबत्तीवाले आंदोलनजीवी जिन्हें सिर्फ एक मौके की तलाश रहती है जिससे वो अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें।* इन सबमें वह पीड़िता कहीं खो जाती है, और फिर से एक नई कहानी के साथ अखबारों में बलात्कार की घटनाएं अपना स्थान बना लेती हैं।
बुद्धिजीवी माने जाने वाले एक बड़े वर्ग का कहना और मानना है कि 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में बलात्कार किसी परिचित ने ही किया होता है, इसलिए इसे *व्यक्ति के विरूद्ध अपराध’ की श्रेणी में माना जाना चाहिए, जिसमें सरकार की भूमिका अपराध के हो जाने के बाद ही आती है। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के अनुसार यह बात सही भी है। इसलिए अपराध की पूर्व में रोकथाम संभव नहीं है। लेकिन यह तो संभव है कि *हर बलात्कार की जांच और न्यायपालिका में सुनवाई फास्ट टेक अदालतों में हो, जिससे जल्दी से जल्दी पीड़िता को न्याय मिले और अपराधियों के बचने की संभावना न्यूनतम रहे। यह तो संभव है कि सभी राजनीतिक दल किसी भी ऐसे अपराधी का राजनीतिक संरक्षण बंद करें, जो बलात्कार का दोषी हो !*
तो जरूरत इस बात की है कि स्त्रियों को अपनी गरिमा और सुरक्षा के लिए स्वयं ही जागृत होना पड़ेगा। वे आत्मरक्षा के लिए आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त करें और यह जरूर सुनिश्चित करें कि किसी निर्दोष को छोटे से लाभ या लालच के लिए बलात्कार का दोषी ना बना दें!
(लेखक सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डेवलपमेंट, जयपुर से संबद्ध हैं)