स्वदेशी सोशलिज्म के 90 साल: टूटन की दास्तान

photo2.jpg.webp

पुणे में हाल ही में आयोजित “समाजवादी एकजुटता सम्मेलन” ने हमें उस सदी-भर पुराने आंदोलन की याद दिला दी, जिसने भारतीय लोकतंत्र को दिशा और ताक़त दी थी। यह सम्मेलन मानो एक आईना था—जिसमें अतीत की चमक, वर्तमान की मायूसी और भविष्य की उम्मीद—तीनों एक साथ दिखाई दिए।
जेपी से लोहिया तक की वह धारा, जिसने भारतीय राजनीति को गहराई से बदला, आज युवाओं की याददाश्त से तक़रीबन गायब हो चुकी है। दर्जनों दूरदर्शी नेताओं को जन्म देने वाला यह आंदोलन अब गुमनामी से जूझ रहा है। लेकिन इसकी मूल धारणाएं—बराबरी, इंसाफ़ और जनप्रतिबद्धता—आज भी उतनी ही रोशन हैं, जितनी 90 साल पहले थीं।

पुणे का जमावड़ा: यादें और सवाल
यह सम्मेलन 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) की स्थापना की 90वीं वर्षगांठ के अवसर पर बुलाया गया था। राजस्थान के सौ वर्षीय पंडित रामकिशन ने उद्घाटन किया और डॉ. जीजी पारीख ने तल्ख़ अंदाज़ में कहा—सत्ता के मोह ने हमें हमारे असूल भुला दिए। समतावादी नज़रिया ज़िंदगी में उतर नहीं पाया।

डॉ. सुनीलम, प्रो. आनंद कुमार, प्रो. राजकुमार जैन, प्रो. रामा शंकर सिंह, विजय प्रताप और योगेंद्र यादव जैसे वक्ताओं ने साफ़ कहा कि आंदोलन का सबसे बड़ा संकट है—युवा पीढ़ी की गैरहाज़िरी। एक विचारक ने चेतावनी दी, “अगर समाजवाद को डिजिटल दौर से नहीं जोड़ा गया, तो यह सिर्फ़ किताबों का हिस्सा बनकर रह जाएगा।”

सम्मेलन में एस.एम. जोशी और दूसरे पुरखों को याद किया गया। बुज़ुर्ग समाजवादियों की आँखों में चमक थी, मगर दर्द भी कि नई नस्ल समाजवादी सपनों से बेग़ाना हो चुकी है।

गौरवशाली अतीत: जब समाजवाद था जनता की आवाज़

प्रो. पारसनाथ चौधरी ने याद दिलाया—1934 में CSP का गठन महज़ एक संगठन नहीं था, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भीतर बराबरी और सामाजिक न्याय की अलख जगाने वाला बिगुल था। भारत छोड़ो आंदोलन इसका स्वर्णिम अध्याय था, जब जयप्रकाश नारायण, लोहिया और उषा मेहता जैसे नेता भूमिगत संघर्ष का प्रतीक बने।

आज़ादी के बाद समाजवादियों ने विपक्ष की मज़बूत धारा तैयार की। मजदूरों, किसानों, पिछड़ी जातियों और ग़रीब तबकों को आवाज़ दी। लोकतंत्र की शुरुआती बुनियाद में समाजवाद की गहरी छाप है।

लेकिन, यह दास्तान जितनी गौरवशाली है, उतनी ही टूटन और विघटन से भरी हुई। अनुशासनहीनता, अहंकार और बार-बार के बंटवारे ने आंदोलन की ताक़त खोखली कर दी। 1950 के दशक में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और समाजवादी पार्टी का विभाजन हो या जनता पार्टी का बिखरना—हर बार आंदोलन पिछड़ गया।

नेताओं की बारात, मगर संगठन खोखला
लोहिया और उनके साथी जनता से गहरे जुड़े, बड़े आंदोलनों को जन्म दिया, मगर मज़बूत संगठन कभी खड़ा नहीं कर सके। हाँ, इस आंदोलन ने असंख्य विजनरी नेता दिए—मधु लिमए, मधु दंडवते, सुरेंद्र मोहन, जॉर्ज फर्नांडिस, नाथ पाई, बहुत लंबी लिस्ट है। जॉर्ज की 1974 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल याद की जाती है, जिसने पूरे देश को हिला दिया। वह पल दिखाता था कि समाजवादी विचारधारा महज़ किताबों का नारा नहीं, बल्कि जन-शक्ति का विस्फोट है।

दो धाराओं की कहानी
समाजवादी आंदोलन broadly दो धाराओं में बंटा रहा—1. लोहियावादी SSP – जाति प्रश्न, मंडल राजनीति और हिंदी को केंद्र में रखकर। 2. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (PSP) – पश्चिमी लोकतांत्रिक समाजवाद की ओर झुकी। दोनों धाराओं ने युवाओं को जोड़ने की कोशिश की—राष्ट्र सेवा दल, समाजवादी युवक सभा, रेलवे यूनियनें। लेकिन अंततः निरंतर टूटन ने इस ताक़त को कमज़ोर कर दिया।

भारतीय रंग में ढला समाजवाद
भारतीय समाजवाद यूरोपीय मॉडल की नकल नहीं था। लोहिया और उनके साथियों ने इसे भारतीय हालात के मुताबिक ढाला। इसकी चार बुनियादी धारणाएं आज भी उतनी ही अहम हैं:

विस्तारित समानता: सिर्फ़ आर्थिक नहीं, जाति, लिंग और भाषा की बराबरी।

सतत विकास: पर्यावरण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित मॉडल।

सत्याग्रह की रणनीति: गांधीवादी तरीक़े से संघर्ष।

सांस्कृतिक राजनीति: भारतीय भाषाओं और लोक संस्कृति से जुड़ाव।

आज जब जलवायु संकट, बेरोज़गारी और असमानता चरम पर हैं, ये धारणाएं और भी प्रासंगिक हो उठती हैं।
नई पीढ़ी से दूरी: सबसे बड़ा संकट

आज “समाजवाद” शब्द ही सार्वजनिक विमर्श से ग़ायब हो चुका है। युवा इसे “वामपंथी अवशेष” मानते हैं। वैश्वीकरण और नवउदारवाद के दौर में समाजवाद को पुरातन कहकर किनारे किया जा रहा है। जबकि सच यही है कि यह असमानता और अन्याय के खिलाफ़ सबसे बड़ा औज़ार है।
इतने नेता, जितने सोशलिस्ट मूवमेंट ने दिए, कोई और धारा नहीं दे सकी—आचार्य नरेंद्र देव, कृपलानी, संपूर्णानंद, चंद्रशेखर, कर्पूरी ठाकुर, मुलायम सिंह, लालू यादव, नीतीश कुमार… और अनगिनत कार्यकर्ता जो गाँव-गाँव जनता के बीच लड़े। कर्पूरी ठाकुर की आरक्षण नीति ने सामाजिक न्याय को नई दिशा दी। पत्रकारिता और साहित्य में भी समाजवादी असर रहा। कई संपादक और लेखक जन-आंदोलनों की आवाज़ बने।

आज की हकीकत और उम्मीद
पुणे में जुटे बुज़ुर्ग समाजवादी—जिनमें से कई आपातकाल के दौरान जेल में रहे थे—आज भी लोकतंत्र की गिरती हालत पर बेचैन नज़र आते हैं। सवाल यही है कि क्या उनकी मशाल नई पीढ़ी तक पहुँचेगी? सम्मेलन में कुछ कोशिशें हुईं—युवाओं के लिए कार्यशालाएं, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, ऑनलाइन कैंपेन। लेकिन चुनौतियाँ बड़ी हैं—संगठनात्मक कमज़ोरी, फंडिंग की तंगी, मीडिया की बेरुख़ी।

विरासत या भविष्य का रास्ता?

समाजवाद की विरासत महज़ अतीत की याद नहीं, बल्कि भविष्य की कुंजी है। बराबरी, इंसाफ़, सांस्कृतिक जुड़ाव और अहिंसक प्रतिरोध—ये चार स्तंभ आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने 90 साल पहले थे।
आज जब लोकतंत्र की बुनियाद पर सत्तावाद का साया है, जब अमीरी-ग़रीबी की खाई बढ़ रही है, तब समाजवाद की लौ को फिर से भड़काना ज़रूरी है। पुणे सम्मेलन ने यही संदेश दिया—“लौ बुझी नहीं है, उसे बस नए ईंधन की दरकार है।”

Share this post

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top