सीरिया पर HTS का कब्जा, और अमेरिकी खेल

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Caption: Bhaskar

अनुराग पुनेठा

अअल-कायदा की एक शाखा HTS ने जब सीरिया पर कब्जा किया, तब पश्चिमी मीडिया ने इनके लीडर अबू मोहम्मद अल-जुलानी की इमेज को चमकाने की कोशिश की।

BBC ने अपने पाठकों को बताया कि जुलानी, जिसे अब अहमद अल-शारा के नाम से जाना जाता है, ने खुद को बदल लिया है। टेलीग्राफ ने तो यहाँ तक कह दिया कि ISIS के लीडर बगदादी का ये पुराना साथी अब “डाइवर्सिटी फ्रेंडली” हो गया है।

6 दिसंबर को, जब दमिश्क में घुसने से कुछ ही दिन पहले, जुलानी ने CNN की पत्रकार जोमाना कराद्शेह को एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दिया और अपने अतीत को सफाई से समझाने की कोशिश की। CNN ने लिखा कि “जुलानी कहते हैं कि वो सालों के दौरान कई बदलाव के दौर से गुजरे हैं” और उन्होंने कराद्शेह को ये भरोसा दिलाया कि “किसी को भी सीरिया के अलावी, ईसाई और ड्रूज़ लोगों का सफाया करने का हक नहीं है।”

लेकिन जुलानी अमेरिकी जनता को ये भरोसा दिलाने के लिए इतने बेताब क्यों थे कि उनका सीरिया के धार्मिक अल्पसंख्यकों के सफाये का कोई इरादा नहीं है? ये सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब 4 अगस्त 2013 को लटाकिया में 190 अलावियों के नरसंहार को याद करें, और सैकड़ों अन्य को बंधक बना लिया गया था।

तब HTS (उस समय नुसरा फ्रंट), ISIS और फ्री सीरियन आर्मी (FSA) के लड़ाकों ने 10 गांवों पर हमला कर दिया था। ह्यूमन राइट्स वॉच के मुताबिक, उन हमलों में लोगों को गोलियों से भून दिया गया, चाकुओं से मारा गया, सर काटे गए और कई लाशों को जला दिया गया। “कुछ शव पूरी तरह से जले हुए मिले, जबकि कुछ के पैर बंधे हुए थे।”

अमेरिकी रणनीति के लिए ‘उपयोगी’ जुलानी

हाल के वर्षों में, जुलानी का ये “बदलाव” माफी मांगने से ज़्यादा उनके ‘उपयोगिता’ की ओर इशारा करता है। HTS अभी भी अमेरिका की टेरर लिस्ट में है और जुलानी पर 1 करोड़ डॉलर का इनाम घोषित है। लेकिन फिर भी, अमेरिका के सीरिया में पूर्व विशेष दूत जेम्स जेफ्री ने HTS को सीरिया में अमेरिकी ऑपरेशन्स के लिए “सामरिक संपत्ति” बताया था।

अमेरिका ने एक तरफ सीरिया पर आर्थिक प्रतिबंधों के जरिए भारी दबाव डाला, तो दूसरी ओर देश के गेहूं और तेल से भरपूर क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में बनाए रखा। मार्च 2021 में PBS को दिए इंटरव्यू में जेफ्री ने स्वीकार किया कि “HTS इदलिब में सबसे कम बुरा विकल्प है, और इदलिब, सीरिया के सबसे अहम हिस्सों में से एक है।”

लेकिन ये सब कैसे हुआ? अमेरिका की मदद से जुलानी और उनके लड़ाके इदलिब में ताकतवर हो गए, जहां जिहादियों को CIA की ओर से हथियार मुहैया कराए गए। विदेशी मीडिया ने इसे “जिहादियों और पश्चिमी हथियारों का मिलाजुला असर” कहा।

इजरायल और यूरोप की मदद भी

इजरायल ने कई मौकों पर सीरियाई सेना के खिलाफ नुसरा फ्रंट की मदद की। इजरायल के सेना प्रमुख ने खुद कहा था कि उन्होंने “हल्के हथियार” विद्रोही गुटों को दिए थे। वहीं, यूरोपीय संघ ने सीरिया पर तेल प्रतिबंध हटाकर विद्रोहियों को तेल बेचने की इजाजत दे दी, ताकि वो अपना ऑपरेशन चला सकें।

‘सालाफ़ी प्रिंसिपालिटी’ की योजना

अमेरिकी डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (DIA) की 2012 की रिपोर्ट में कहा गया था कि अमेरिका और उसके क्षेत्रीय सहयोगी, सीरिया और इराक के हिस्सों में एक ‘सालाफ़ी प्रिंसिपालिटी’ यानी कट्टरपंथी धार्मिक राज्य बनाना चाहते थे।

जुलानी की चढ़ाई तो 2011 में ही शुरू हो गई थी, जब उन्हें ISIS के पूर्व नेता अबू बक्र अल-बगदादी ने सीरिया भेजा था। अमेरिकी खुफिया तंत्र की नाक के नीचे, जुलानी जैसे लोग आतंक फैलाते रहे, ताकि सीरिया में सरकार गिराई जा सके।

‘ग्रेट प्रिज़न रिलीज़’ का खेल

2009 में, अमेरिका ने इराक की बुक्का जेल से हज़ारों कट्टरपंथियों को रिहा किया। इनमें जुलानी और बगदादी जैसे आतंकी शामिल थे। अमेरिकी नौसेना कॉलेज के विशेषज्ञों ने इसे “जिहादियों का विश्वविद्यालय” कहा था, क्योंकि यहाँ से निकले आतंकियों ने सीरिया और इराक में तबाही मचा दी।

अंत में

अबू मोहम्मद अल-जुलानी कौन है, ये सवाल उतना मायने नहीं रखता जितना कि वो क्या दर्शाता है। पिछले दो दशकों से एक बात साफ है: जुलानी पश्चिमी ताकतों और इजरायल के रणनीतिक खेल में एक ‘हथियार’ है।

चाहे वो ‘आतंकी’ कहलाए या ‘सूट-बूट’ पहनने वाला उदारवादी, उसकी भूमिका हमेशा वही रही है – सीरिया और पूरे वेस्ट एशिया क्षेत्र को अस्थिर करना।

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