ताजमहल की छाँव में ग़ालिब की तन्हाई: आगरा ने अपने शायर-ए-आज़म को क्यों भुला दिया?

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लखनऊ: शहर आगरा, जहाँ संगमरमर मोहब्बत की दास्तान सुनाता है, चाँदनी में ताज मुस्कुराता है और यमुना सदियों के राज़ फुसफुसाती है, उसी शहर में उर्दू अदब का बादशाह मिर्ज़ा ग़ालिब आज एक बुझती हुई शमा बन चुके हैं। जैसे किसी आह का धुआँ हवा में गुम हो गया हो।
27 दिसंबर 1797, आगरा की इसी मिट्टी में जन्मे ग़ालिब, जिनकी ग़ज़लों ने इश्क़, दर्द और फ़िक्र को नए मायने दिए। दिल्ली दरबारों की रौनक रहे यह शायर आज अपनी जन्मभूमि में गुमनामी की धूल ओढ़े हैं। उनकी सालगिरह बस एक रस्मी मुशायरा बनकर रह गई है, किसी होटल के बंद हॉल में, जहाँ अल्फ़ाज़ तो गूँजते हैं, मगर रूह ग़ायब रहती है।

आगरा की गलियाँ आज भी पूछती हैं: उस काला महल में, जहाँ ग़ालिब ने पहली साँस ली, कोई यादगार क्यों नहीं? न कोई पट्टिका, न स्मारक, न कोई ऐसी निशानी जो बताए कि यहाँ उर्दू का सूरज उगा था। दशकों से आगरा विश्वविद्यालय में “ग़ालिब चेयर”, ऑडिटोरियम और रिसर्च लाइब्रेरी की माँग फाइलों में धूल फाँक रही है, अधूरी ख़्वाहिशों की तरह।
आगरा कभी उर्दू अदब की त्रिमूर्ति का केंद्र था: मीर तकी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब और नज़ीर अकबराबादी का शहर। लेकिन आज पत्थर के महल तो जगमगा रहे हैं, मगर संस्कृति, ज़बान और साहित्य—जो असली विरासत हैं, हाशिए पर जा चुके हैं। विरासत सिर्फ़ इमारत नहीं होती, याददाश्त भी होती है, और यही याददाश्त अब मुरझा रही है।

सैलानी, ख़ासकर वेस्ट एशिया से आने वाले, आज भी ग़ालिब की हवेली पूछते हैं। एक स्थानीय होटल संचालक का दर्द साफ़ झलकता है, “टूरिज़्म विभाग से कितनी बार कहा, कुछ ढंग का स्मारक बनाइए, पर जवाब में बस सन्नाटा।”
ग़ालिब उर्दू के लिए वही हैं जो अंग्रेज़ी के लिए शेक्सपियर। बचपन में आगरा छोड़ा, दिल्ली पहुँचे और बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में उनकी शायरी परवाज़ भरती रही। 1869 में दिल्ली में उनका इंतक़ाल हुआ, मगर उनका असर अब तक ज़िंदा है, उनकी पंक्तियाँ हर ऐसे दिल में गूँजती हैं जो मोहब्बत और मायूसी से गुज़रा हो।
स्थानीय लोग बार-बार एक ही बात कहते हैं: “जिस हवेली में ग़ालिब पैदा हुए, सरकार उसे ख़रीद ले और यादगार बना दे।” दरअसल, यह किसी एक मकान का मामला नहीं, पूरे शहर की आत्मा का सवाल है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर अगर ग़ालिब स्मारक, उर्दू लाइब्रेरी और वार्षिक साहित्य सम्मेलन शुरू करें, तो आगरा का सांस्कृतिक परिदृश्य फिर से जीवंत हो सकता है।
आगरा को मोहब्बत, भक्ति और कला का शहर कहा जाता है। यह ब्रज और उर्दू, दोनों परंपराओं का संगम रहा है। मगर आज उर्दू शायरी ठिठक-सी गई है, नए शायर पहचान के मोहताज हैं, और ग़ालिब की आवाज़ धीरे-धीरे इतिहास की परतों में दबी जा रही है।

आगरा में आज ग़ालिब के नाम पर बस एक छोटा-सा पार्क है, वह भी कैंटोनमेंट इलाके में, नाम भर की श्रद्धांजलि। साहित्य और समाज के बीच बढ़ती दूरी बताती है कि हम धीरे-धीरे बंजर ज़मीन बनते जा रहे हैं।
ग़ालिब ने कभी लिखा था कि दुनिया दिल टूटने की जगह है, मगर हर टूटा दिल एक नई शायरी रचता है। शायद अब आगरा को वही शायरी दोबारा लिखनी होगी, अपने शायर की याद में।
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कौन है जो ग़ालिब को नहीं जानता:
“दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है”
“हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ लेकिन फिर भी कम निकले”
“ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता”
“हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है”
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ये शहर ताजमहल की छाँव में जीता है, पर अब उसे उस शायर को भी याद करना चाहिए, जिसने मोहब्बत को लफ़्ज़ और लफ़्ज़ों को रूह दी। ऐ आगरा, उठो, इस बुझती चिंगारी को फिर हवा दो। ग़ालिब को याद करना सिर्फ़ अतीत नहीं, आत्मा को पुकारना है। वरना वह आख़िरी शेर भी ख़ामोशी में गुम हो जाएगा।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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