अक्षय कुमार की 2015 की फिल्म एयरलिफ्ट में रणजीत कटियाल का किरदार कहता है, “जो अपने झंडे का सम्मान नहीं करते, जब विदेश में उनके पिछवाड़े पर लात पड़ती है तो सबसे अधिक याद अपने देश की आती है।” यह डायलॉग कुवैत में बसे एक भारतीय पर आधारित है, जो भारत को गालियां देता है, कुवैत की नागरिकता की शान में डूबा है। लेकिन जब 1990 में खाड़ी युद्ध की आग लगती है और उसे वहां से निकाला जाता है, वह घबराहट में तिरंगा तलाशता फिरता है। यह कहानी उन NRIs की आंखें खोलती है, जो विदेश की चमक में अपनी जड़ों को भूल चुके हैं।
देखिए इन ‘ग्लोबल इंडियंस’ को – न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में सेल्फी, लंदन के ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पर शॉपिंग, और दुबई की गगनचुंबी इमारतों में सपने। भारत? “ओह, वह तो गंदगी, ट्रैफिक और देसी ड्रामा!” लेकिन 2025 की वैश्विक मंदी ने इनके सपनों पर लात मारी है। नौकरियां छिन रही हैं, वीजा रद्द हो रहे हैं, और अचानक ‘मेक इन इंडिया’ की याद आ रही है। जो कभी ‘मेड इन इंडिया’ को हंसी में उड़ाते थे, अब LinkedIn पर देसी जॉब्स की भीख मांग रहे हैं।
ये वही लोग हैं, जो विदेशी पासपोर्ट की शेखी बघारते थे, लेकिन अब एयरपोर्ट पर सूटकेस में तिरंगा ढूंढ रहे हैं। व्यंग्य यह है कि इनका ‘देशप्रेम’ तब जागता है, जब विदेशी ‘सपना’ टूटता है। लौट रहे हैं, मगर तिरंगा अब भी उनके लिए सिर्फ ‘प्लान बी’ है। सावधान, भाइयों! अगली बार तो शायद तिरंगा भी मुंह फेर ले। घर लौटो, लेकिन इस बार जड़ों को गले लगाओ, न कि सिर्फ जॉब्स की तलाश में भटको।