पटना। नई दिल्ली स्टेशन की हलचल भरी सुबह में स्पेशल ट्रेन समस्तीपुर के लिए दौड़ पड़ी। कोच में मंजूर, दिलशाद और मोहम्मद एहतेशाम चढ़े। तीनों दिल्ली की एक फैक्ट्री में मजदूरी करते हैं—दिन भर मशीनों के बीच पसीना बहाते, शाम को थकान मिटाते। मंजूर, पचपन की उम्र में छोटे कद का परिपक्व व्यक्ति, खिड़की वाली सीट पर बैठा था। बिहार चुनाव का मौसम था, हवा में राजनीति की बहस घुली हुई। बातचीत शुरू हुई तो मंजूर का चेहरा उदास हो गया।
“बीजेपी का बढ़ता प्रभाव देखो,” मंजूर बोले, “हमारे समाज का नीतीश पर भरोसा अब कम हो गया। बीजेपी से कोई गठजोड़? नामुमकिन!” दिलशाद और एहतेशाम सहमत नजर आए। मंजूर को डर था कि अगर बीजेपी सत्ता में आई तो गिरिराज सिंह जैसे नेता मुख्यमंत्री बनेंगे। “बिहार को यूपी की राह पर धकेल देंगे।” उनकी आंखों में चिंता की लकीरें उभर आईं।
मैंने बीच में टोका, “योगी के राज में कानून-व्यवस्था सुधरी है, ये तो मानना पड़ेगा। बिहार के हर बाशिंदे को ऐसा ही चाहिए।” सवाल ने उन्हें चौंका दिया। मंजूर की आवाज तल्ख हो गई, “तुम भाजपाई हो क्या?” नफरत का कोई तर्क न दिया, बस चुप्पी। फिर बात बदली। “तुम्हारा त्योहार खत्म, अब तुम्हारे लोग लौट रहे हैं। हमारा छठ, छह नवंबर को है। हमारे लोग ट्रेनों से बिहार उमड़ रहे हैं—परिवार, रिश्ते, उम्मीदें लेकर।”
ट्रेन की रफ्तार में बहस थम गई। बाहर खेत लहरा रहे थे, अंदर बिहार की धड़कनें। ये मजदूर, ये बहसें—चुनाव की आग में तपते सपने। क्या नीतीश टिकेंगे? क्या गिरिराज का साया बिहार पर मंडराएगा? सवाल अनुत्तरित, लेकिन त्योहार की रोशनी में शायद उम्मीद बनी रहे।



