तुलसी गौड़ा का जन्म 1944 में होन्नाली गांव में एक गरीब हलक्की आदिवासी परिवार में हुआ था। मात्र दो साल की उम्र में उनके पिता का निधन हो गया, जिसके बाद उन्होंने अपनी मां के साथ नर्सरी में दिहाड़ी मजदूरी शुरू कर दी। औपचारिक शिक्षा नहीं मिली, लेकिन प्रकृति से गहरा लगाव बचपन से ही था। 12 साल की उम्र से वे जंगलों में घूमतीं और पेड़-पौधों की प्रजातियों को पहचानने लगीं। वे 300 से अधिक देशी पौधों, वृक्षों और लताओं की विशेषज्ञ थीं। मां ट्री की पहचान करने में उनकी महारत अद्भुत थी।
कर्नाटक वन विभाग की नर्सरी में दिहाड़ी मजदूर से शुरू करके उन्होंने स्थायी नौकरी हासिल की। रिटायरमेंट के बाद भी वे पेड़ लगाने का काम जारी रखीं। उनके प्रयासों से कई वन्यजीव अभयारण्य, टाइगर रिजर्व और संरक्षण क्षेत्र हरे-भरे हुए। वे सालाना 30 हजार से अधिक पौधे लगाती थीं और उनकी देखभाल करती थीं। जंगलों को परिवार और पेड़ों को अपने बच्चे मानने वाली तुलसी गौड़ा ने कभी शोर-शराबे की परवाह नहीं की। बिना कैमरे, बिना सोशल मीडिया के वे चुपचाप धरती मां की सेवा करती रहीं।

2021 में भारत सरकार ने उनके योगदान को मान्यता देते हुए पद्मश्री से सम्मानित किया। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से पुरस्कार लेते वक्त वे नंगे पांव और पारंपरिक आदिवासी वेशभूषा में पहुंचीं, जिसने पूरे देश का ध्यान खींचा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उनसे आशीर्वाद लिया था। इसके अलावा उन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार, कर्नाटक राज्योत्सव पुरस्कार और 2023 में धारवाड़ कृषि विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट मिला।
तुलसी गौड़ा के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गहरा दुख व्यक्त किया। उन्होंने कहा, “कर्नाटक की प्रसिद्ध पर्यावरणविद् और पद्म पुरस्कार प्राप्तकर्ता श्रीमती तुलसी गौड़ा जी के निधन से गहरा दुख हुआ। उन्होंने अपना पूरा जीवन प्रकृति की देखभाल, हजारों पौधे लगाने और पर्यावरण संरक्षण के लिए समर्पित कर दिया। वे पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा स्त्रोत बनी रहेंगी। उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों को ग्रह की रक्षा के लिए प्रेरित करती रहेगी।”
आज के दौर में जहां सोशल मीडिया पर एक पौधा लगाकर सेल्फी खिंचवाना पर्यावरण प्रेम का प्रमाण बन गया है, तुलसी गौड़ा जैसी शख्सियतें याद दिलाती हैं कि असली पर्यावरण प्रेम चुपचाप, निस्वार्थ सेवा में होता है। वे बिना किसी बयानबाजी, बिना पोस्ट के धरती को ऑक्सीजन देती रहीं। उनके जाने पर सोशल मीडिया पर कुछ श्रद्धांजलि आई, लेकिन मुख्यधारा की मीडिया में ज्यादा चर्चा नहीं हुई। यह खामोशी ही उनके योगदान की गहराई बताती है – सच्चे नायक कैमरे नहीं, धरती की गोद में बीज बोते हैं।
तुलसी गौड़ा ने साबित किया कि शिक्षा की डिग्री नहीं, प्रकृति से प्रेम और समर्पण से बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं। उनकी विरासत कर्नाटक के जंगलों में हरे पेड़ों के रूप में जीवित रहेगी, जो हमें सांस देते रहेंगे। वे हमें सिखाती हैं कि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का मतलब सिर्फ मनुष्यों तक नहीं, पूरे पर्यावरण तक है।
तुलसी गौड़ा को सादर नमन। उनकी आत्मा को शांति मिले।



