चंडीगढ़। संवृति, उस अर्थ का ढिंढोरा पीटता है, जिसका अस्तित्व ही नहीं होता और जो होता है, उसे छिपाए रखता है। यह ऑल आइज़ ऑन राफा के प्रति बॉलीवुड गिरोह, विपक्षी नेताओं, एजेंडावादी पत्रकारों, वामपंथियों और सेक्युलर लिबरल्स के व्यवहार में स्पष्ट दिखाई देता है। ये समूह राफा के मुद्दे पर मुखर होकर अपनी नैतिकता का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन पहलगाम हमले जैसे आतंकी कृत्यों पर उनकी चुप्पी और पाकिस्तान के प्रति उनके नरम रुख या समर्थनकारी बयान उनके दोहरे चरित्र को उजागर करते हैं। यह पाखंड उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है।
राफा पर इनका शोर एक वैश्विक नैरेटिव को बढ़ावा देता है, जो अक्सर एकतरफा और संदर्भ से कटा हुआ होता है। वे इसे मानवीय संकट के रूप में प्रस्तुत करते हैं, लेकिन पहलगाम जैसे हमलों, जहां निर्दोष भारतीय नागरिक आतंकवाद का शिकार बनते हैं, पर उनकी खामोशी कानों को चुभती है। यह चयनात्मक आक्रोश उनकी प्राथमिकताओं को दर्शाता है, जो सत्य या निष्पक्षता पर आधारित नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक एजेंडों से प्रेरित है। पाकिस्तान, जो आतंकवाद को प्रायोजित करने के लिए कुख्यात है, के प्रति उनके नरम बयान या समर्थन न केवल भारत के हितों के खिलाफ हैं, बल्कि आतंकवाद के शिकार लोगों के दर्द को भी कमतर आंकते हैं।
यह व्यवहार संवृति का जीवंत उदाहरण है—वे एक काल्पनिक नैतिक उच्चता का ढोल पीटते हैं, जबकि वास्तविक मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते हैं। उनकी चुप्पी और पक्षपातपूर्ण रुख न केवल सत्य को छिपाता है, बल्कि जनता के बीच भ्रम और विभाजन को बढ़ावा देता है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, जो समाज में विश्वास को कमजोर करती है और सच्चाई को विकृत करती है। ऐसे में, इन समूहों की मंशा पर सवाल उठाना और उनके द्वारा बनाए गए नैरेटिव को गंभीरता से जांचना आवश्यक है।
यह दोहरा मापदंड न केवल नैतिक पतन को दर्शाता है, बल्कि एक गहरे वैचारिक संकट को भी उजागर करता है, जहां सत्य को बलि चढ़ाकर एजेंडा चलाया जाता है। संवृति का यह खेल समाज को भटकाता है और सच्चाई को सामने लाने की ज़िम्मेदारी हम सभी पर डालता है।