वैचारिक दलाल संदीप चौधरी की एकपक्षीय पत्रकारिता

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दिल्ली। संदीप चौधरी, एबीपी न्यूज के कथित पत्रकार, जिनका शो देखकर ऐसा लगता है मानो उनकी सैलरी सीधे कांग्रेस आईटी सेल के खाते से आती हो।

उनकी पत्रकारिता का ढोंग इतना साफ़ झलकता है कि दर्शक चैनल बदलने को मजबूर हो जाते हैं। चौधरी का शो ‘सीधा सवाल’ नाम से भले ही चलता हो, लेकिन यह ‘सीधा प्रोपेगेंडा’ ज्यादा लगता है, जहां तथ्यों को तोड़-मरोड़कर कांग्रेस और आप के पक्ष में नरेटिव बनाया जाता है। इसलिए बीजेपी नेताओें के बच्चों के संबंध में बताया जाता है कि वे विदेश में कहां कहां पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन उसमें कांग्रेस के किसी नेता के बेटे का जिक्र जानबुझ कर आने नहीं दिया जाता। यह पत्रकारिता तो नहीं है। मनीष सिसोदिया उनके शो में साक्षात्कार के लिए आए भी थे लेकिन साहसी दिखने का ढोंग करने वाले संदीप यह साहस नहीं जुटा पाए कि मनीष से उनके बेटे के संबंध में सवाल पूछ लेते। इतना भर पूछ लेते कि जब दुनिया की सबसे अच्छी शिक्षा की व्यवस्था दिल्ली में हो गई थी फिर बच्चे को पढ़ने के लिए विदेश भेजने की क्या मजबूरी आ गई?

उनके शो में बीजेपी के खिलाफ ज़हर उगलने की कला बखूबी दिखती है। चाहे कोई भी मुद्दा हो, चौधरी उसे बीजेपी की नाकामी से जोड़ने में माहिर हैं, भले ही तर्कों का कोई आधार न हो। उनकी बहसों में पक्षपात इतना साफ़ दिखता है कि लगता है, वे पत्रकार कम, कांग्रेस के पे-रोल पर चलने वाले प्रवक्ता ज्यादा हैं। यह बीमारी इन दिनों कई कथित पत्रकारों को लगी हुई है। जिसमें आशुतोष गुप्ता और डॉ. मुकेश कुमार का नाम प्रमुख है। अजीत अंजुम, रवीश कुमार, साक्षी जोशी, आरफा खानम, अभिसार शर्मा, कुमकुम बिनवाल जैसे पत्रकार यू ट्यूब अवतार में सालों से यही काम कर रहे हैं।

संदीप की एक्स पर लोग खुलकर आलोचना करते हैं, कहते हैं कि उनकी बदनामी ने एबीपी की रेटिंग्स को तहस-नहस कर दिया। विज्ञापनदाता भी अब चैनल से मुंह मोड़ रहे हैं, क्योंकि चौधरी का चेहरा देखते ही लोग रिमोट का बटन दबा देते हैं।

उनके शो में अक्सर यही तमाशा देखने को मिलता है। यहाँ तथाकथित ‘विश्लेषण’ के नाम पर केवल एकतरफा कहानी परोसी जाती है। चौधरी की पत्रकारिता की आड़ में ‘वैचारिक दलाली’ इतनी शर्मनाक है कि निष्पक्षता का दम भरने वाले इस शख्स का असली चेहरा अब जगज़ाहिर है।

सवाल यह है कि अगर एबीपी को अपनी विश्वसनीयता बचानी है, तो ऐसे पत्रकारों को क्यों बर्दाश्त किया जा रहा है? चौधरी जैसे लोग पत्रकारिता को नहीं, बल्कि अपने आकाओं के एजेंडे को बेच रहे हैं।

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