वाम और दक्षिण: एक वैचारिक यात्रा

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दिल्ली। वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच का अंतर लंबे समय से बहस का विषय रहा है। कुछ इसे गंभीर वैचारिक टकराव मानते हैं, तो कुछ इसे बचकाना विवाद। असहमति और सहमति के बीच यह समझना जरूरी है कि आप वास्तव में कहां खड़े हैं। आपकी विचारधारा चाहे जो हो, अपनी पहचान को समझना सरल है, बशर्ते आप आत्ममंथन करें।

वामपंथ सवालों पर टिकी विचारधारा है। यह परिवर्तन और आंदोलन में विश्वास रखती है, जो आज को कल के लिए बलिदान करने के बजाय वर्तमान में बदलाव चाहता है। उदाहरण के लिए, यदि आप सीपीएम के नेतृत्व में बार-बार दीपांकर भट्टाचार्य के महासचिव चुने जाने पर सवाल नहीं उठाते, लेकिन दूसरों पर ब्राह्मणवाद का आरोप लगाते हैं, तो यह आत्म-विरोध है। वामपंथी होने का मतलब है बगावत का जज्बा, सत्ता और व्यवस्था पर सवाल उठाना। यदि आप बदलाव को संभलकर चलने की रणनीति मानने लगे हैं, तो शायद आपका वामपंथी होना संदेहास्पद है।

वहीं, दक्षिणपंथ, विशेष रूप से संघी होना, धैर्य और समर्पण का रास्ता है। जब आपके सारे सवाल खत्म हो जाएं, जवाब सुनने का धैर्य आए, और आप पूर्ण समर्पण के साथ किसी विचार को स्वीकार करें, तभी आप सही मायनों में संघी हैं। यह आसान नहीं है। इसमें उम्रभर की साधना लगती है। संघी होने का मतलब है प्रश्नों का अंत और समर्पण की शुरुआत। यही कारण है कि युवावस्था में लोग अक्सर वामपंथ की ओर आकर्षित होते हैं, क्योंकि यह सवालों और बगावत का दौर है। वहीं, उम्र बढ़ने पर, धैर्य और स्थिरता के साथ, दक्षिणपंथ का आकर्षण बढ़ता है।

वामपंथ त्वरित परिवर्तन में विश्वास रखता है, जबकि दक्षिणपंथ दीर्घकालिक समर्पण और धैर्य की मांग करता है। दोनों के बीच का अंतर समझना आत्म-निरीक्षण से शुरू होता है। समाजवाद और गांधी मार्ग की चर्चा फिर कभी।

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