राहुल बाबा, आह! फिर वही पुराना राग, वही ढपली, वही ताल। समझते क्यों नहीं, बाबा? वंशवादी राजनीति का सोने का पालना तो मिल जाता है, मगर खुली बहस में रणभूमि में टिकने का जिगर चाहिए, जो आप में शायद छठी पीढ़ी तक भी नहीं उगा।
सत्ता के दरवाज़े तक तो दादी-नानी की मेहरबानी और मम्मी की उंगली पकड़कर पहुँच गए, लेकिन जब हिसाब-किताब का वक्त आता है, तो चेहरा लटक जाता है, जैसे कोई बच्चा होमवर्क भूल आया हो।
भाई अनुपम मिश्र ठीक कहते हैं, तुम दिन-रात सावरकर को कोसते हो, जैसे वो तुम्हारे पारिवारिक खजाने का इकलौता विलेन हों। लेकिन जरा नेहरू की बात छेड़ो, तो “अरे, वो तो पुरानी बात है!” कहकर पल्ला झाड़ लेते हो। इंदिरा को आयरन लेडी का तमगा दे दोगे, मगर शिमला समझौते की बात पर मुँह में दही जम जाता है। और हाँ, मोदी के बचपन की चाय की दुकान तक तो खोद डालते हो, लेकिन सोनिया जीके पुराने दिन? अरे बाबा, वो तो पवित्र गंगा का जल है, उसे कौन छूए! राहुल बाबा, तुम कहते हो कि तुम “सत्ता के बीचो-बीच” पैदा हुए। वाह, क्या बात! मगर यही तो तुम्हारी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। सत्ता का सिल्वर स्पून मुँह में लेकर पैदा हुए, तो ज़मीन की धूल-मिट्टी का स्वाद क्या जानो?
ज़मीनी राजनीति की समझ होती, तो हर हफ्ते संसद में मोदी-शाह को ललकारने की नौटंकी न करते। क्या फायदा? दो धुरंधर खिलाड़ी सामने खड़े हैं, जिनके पास न सिर्फ़ तर्क हैं, बल्कि जनता काभरोसा भी है। तुम बार-बार उनसे भिड़ते हो, और हर बार छह पीढ़ियों की छीछालेदर करवा के घर लौटते हो। बाबा, सलाह मानो। अपने मंच पर चढ़ो, चार गालियाँ बक दो, दरबारियों की तालियाँ बटोर लो, और चुपके से घरजाओ। ये बार-बार की भिड़ंत तुम्हारे बस की नहीं।
वंश का बोझ ढोना आसान नहीं, और जब हर बहस में दादा-परदादा का हिसाब माँगा जाता है, तो “मैं सत्ता में पैदा हुआ” वाला तुम्हारा दम्भ अधिक समय तक टिकता भी नहीं। तुम्हारे पास कोई जवाब होता नहीं। तुम्हारा दम घुटने लगता है, सांस उखड़ जाती है। समझे, बाबा!